हे कृष्ण !
तुम प्रश्नचिन्ह हो
समझ में न आने वाले
ऐसा जटिल प्रश्न
जिसका उत्तर
जितना खोजो
उतना उलझता है
कभी तो द्रौपदी का
चिर बढ़ाते हो
कभी गोपियों का
चीर चुराते हो
कभी अर्जुन को
युद्ध का उपदेश देते हो
कभी कालयवन के डर से
भाग खड़े होते हो
कभी तो नित्य
तृप्त लगते हो
और कभी
गोपियों से माखन
माँग माँग कर
खाते हो
कभी जेल में
जन्म लेते हो
तो कभी जीव को
संसारी बेड़ियों से
मुक्त करते हो
तुम अव्यक्त होकर
व्यक्त होते हो
तो कभी व्यक्त
होकर भी
अव्यक्त रह जाते हो
कृष्ण तुम
आदि भी हो
अंत भी और
अनंत भी
हे कृष्ण तुम
समझ न आने वाले
वो अलक्ष्य लक्ष्य हो
जिसे जानना होगा
प्रेम करना होगा
सिर्फ प्रेम की
डोरी से बाँधना होगा
वरना तो तुम
कभी किसी की
समझ न आने
वाले प्रश्नचिन्ह हो
फिर कोई कैसे और
कहाँ उत्तर खोजे
कुछ प्रश्न अनुत्तरित
ही रहते हैं
तो फिर तुम तो
खुद एक प्रश्नचिन्ह हो