Monday, November 5, 2012

समर्पण ,प्रश्नोत्तरी ------पुकार, उलाहना……2

वो तो हुआ एक भाव ………अब दूजे भाव का है क्या कोई जवाब



प्रश्नोत्तरी ------पुकार

 मेरी बेबसी पर 
अट्टहास करते हो
या तुम भी 
मेरी तरह दुखी होते हो
इम्तिहान लेते हो
या इम्तिहान स्वयं देते हो
मुझे अपराधी ठहराते हो
या स्वयं कटघरे में खड़े होते हो
कभी- कभी समझ नहीं आता
कौन सा न्यारा खेल खेलते हो

मेरी दशा से तुम अन्जान नहीं
तुम्हारी दशा की मुझे पहचान नहीं 
ये भटकाव है या ठहराव
अरे तुम हो कारण
और मैं तुम्हारा कार्य
फिर कहाँ रहा भेद
कहो कैसे हो निवारण
जब तुम में और मुझमे भेद नहीं
फिर कौन किस पर अट्टहास करे
तुम्हारा रचाया खेल
तुम ही इसके सूत्रधार
बताओ फिर कौन और करे उद्धार
तुम ही कारण तुम ही निवारण
तुम ही फूल तुम ही सुगंध
तुम ही बीज तुम ही वृक्ष
तुम ही दृश्य तुम ही दृष्टा
फिर बताओ और कौन है सृष्टा 
एक तुम ही तुम व्यापते हो
हर रूप में
हर भाव में 
हर क्रोध में
हर हँसी में
इर्ष्या, द्वेष, अहंकार
क्षमा, दया, तप
कहो तो किस रूप में तुम नहीं
फिर कौन किससे विलग है
मन , बुद्धि , चित
अहंकार सा रूप ना तुम्हारा है
और जब इस मन में
संकल्प - विकल्प उठते हैं
तो वो रूप भी तो तुम्हारा ही तो हुआ ना
तुमने ही तो कहा ना
हर भाव में मैं ही हूँ
सृष्टि का आदि - अनादि कारण भी मैं ही हूँ
तो फिर अच्छा हो या बुरा
सब तुम्हारा ही तो रूप हुआ 
फिर क्यूँ महामायाजाल में उलझाया है
क्यों प्राणी को इसमें फंसाया है
माना ये रूप भी तुम्हारा है
तो क्यों संकल्पों- विकल्पों का 
तूफ़ान मन में उठाया है
ये मन रुपी भंवर में
जीव को क्यों उलझाया है
ओ मोहन मुक्त करो
इन विकल्पों से हमें दूर करो
अपनी मायाजाल को 
तुम ही समेटो
मत लो ऐसे इम्तिहान
जिसने अपने हर शब्द
हर भाव , हर रूप को
हर सोच को 
तुम्हें ही समर्पित किया हो
और यदि कोई 
खेल खेलना ही है तो
उससे भी तुम ही उबारना
मगर इस जीव को बस
द्रष्टा ही बना कर रखना
उसके मन पर माया का
आवरण ना डालना
प्यारे बस इतनी सी अरज सुन लेना
हम जन्म जन्मान्तरों से भटके जीव
बडी मुश्किल से तुम्हारा पता पाये हैं 
अब तुम्हारी शरण में आये हैं
हमारा उद्धार करो
कल्याण करो
या नैया डुबा दो
सबमे तुम्हारा ही गौरव होगा
मगर जीव का तो अंतिम आसरा
सिर्फ तुम्हारे चरण होगा

क्रमश:………



Friday, November 2, 2012

समर्पण ,प्रश्नोत्तरी ------पुकार, उलाहना……1




समर्पण

प्रभु
ना पुकार में दम है
ना मेरी चाहत प्रबल है
पूजन अर्चन वंदन
सबको त्यागा है
क्या करूँ
कोई राह नहीं दिखती
तुम भी नहीं मिलते
तुम तक पुकार भी नहीं पहुँचती
फिर और किससे उम्मीद करूँ
जब तुम ही नहीं मेरे
फिर संसार तो बेगाना है
इसे कैसे अपना मानूँ
कैसे इससे उम्मीद करूँ
तुझे भी नहीं चाह पाती ना
देख चाह होती
तो ह्रदय फट जाता
तेरे लिए विकल हो जाता
मगर चाहत मेरी 
कमजोर रही
दिन रात अब मैं तड़पती हूँ
श्याम तुझ बिन भटकती हूँ
अब कोई अर्ज नहीं करती हूँ
पापी हूँ जान गयी हूँ
तेरे धाम से तभी तो वंचित हूँ
मेरी व्यथा ना कोई जाना
श्याम तू भी ना मन पहचाना
हम तेरी मायाजाल में 
फँसे नराधम
बता कहाँ जाएँ
किसे पुकारें
कौन सुने
अब पीर हमारी
श्याम मैं ना 
बन सकी तेरी राधा प्यारी 
विरह का व्याकरण 
मैं ना जानी
मीरा सा गायन वादन 
नृत्य कर तुझे रिझाना 
मुझे नहीं आया
शबरी सा निर्मल प्रेम 
ना मैंने जाना
शिकवा शिकायत
करना ना आया
ना तू  ना संसार 
मन को भाया
तभी तो ना तू आया
तेरे फैलाये जाल के 
हम फडफडाते पंछी
तड़पते हैं
मगर जाल ना काट पाते हैं
जब तक ना 
तेरी कृपा पाते हैं
कहीं कोई ठौर दिखे
कहीं कोई आस मिले
उम्मीद की कोई किरण तो दिखे
मगर तुम तो 
छुपे फिरते हो
मुझको ना कहीं दीखते हो
हे नाथ 
अधूरी हूँ
अधूरी ही रहूँगी
जान गयी हूँ
पहचान गयी हूँ
तुम्हारे लायक ना बनी हूँ
शिकवा नहीं
शिकायत नहीं
तड़प नहीं 
चाहत नहीं
अब मेरे पास श्याम कुछ भी नहीं
तुम्हारे चक्रव्यूह में फँस गयी हूँ
तुम्हारे बिछाए जाल में उलझ गयी हूँ
तेरी रज़ा में अपनी रज़ा मिला दी जबसे
श्याम मेरी वाणी ही मूक हो गयी तबसे
बता अब कैसे पुकारूँ
किसे पुकारूँ
कैसे तुझसे शिकायत करूँ श्याम
अब तुम जानो तुम्हारा काम
जी रही हूँ बस लेकर तेरा नाम 
अब अपना बनाओ या ठुकराओ
फिर संसार जाल में उलझाओ
या अपने चरणों में लगाओ
चित को मेरे चुराओ या
चित मेरा भटकाओ
इसे अपने पांसों में उलझाओ
या जीत की बाजी दोहराओ
गंदगी में डु्बोओ या बंदगी की राह चलाओ 
श्याम अब ये तुम ही जानो
डुबाओ या उबारो
मेरी प्रश्नोत्तरी सुलझाओ 
या स्वयं उत्तर बन 
मेरे जीवन में उतर आओ
जीत करो या हार
सब तुम्हारा तुमको ही 
अर्पण करती हूँ
श्याम सर्वस्व समर्पण करती हूँ
अब तुम्हारी बारी है ......श्याम 
मैं तो ये ज़िन्दगी तेरे नाम पर वारी है 



समर्पण ,प्रश्नोत्तरी ------पुकार, उलाहना ……3


ये तीसरा भाव
उलाहना

सभी गोपियाँ तुझे हैं प्यारी
वंशी की धुन ऐसी बजायी
सारी गोपियाँ दौड़ी आयीं
मेरी बारी श्याम क्यों देर लगायी
कब से तुमसे टेर लगायी
अंखिया मेरी राह तकत हैं
जन्म जन्म से बाट जोहत हैं
फिर क्यूँ ना प्रेम धुन मुझे सुनाई
क्यूँ ना वंशी ने आवाज़ लगायी
मेरी याद ही क्यूँ बिसरायी
माना हूँ मैल की गागर
भक्ति का ना लगाया काजल
फिर भी आस जोह रही हूँ
सुना है तुम हो दया के सागर
दीन हीन पापियों को सदा है तारा
फिर मेरी बार क्यूँ मुँह है मोड़ा
वंशी तुम्हारी सभी को बुलाती
नाम ले लेकर आवाज़ लगाती
क्या मेरा नाम भूल गए हो
या रास्ता अपना पलट गए हो

ना जाने कौन सा शास्त्र लिखवा रहे हो
जो उहापोह में फँसा रहे हो
कभी अमावास का चाँद बन जाते हो
कभी पूनम सा खिल जाते हो
कभी संदेहास्पद बन जाते हो
कभी उत्तरपुस्तिका बन जाते हो
मोहन ना जाने कौन से खेल रच जाते हो
मेरी पीड़ा जो इतनी बढ़ाते हो
अपना आप भी खो बैठती हूँ
तुम्हें ही झिलकारे देती हूँ
फिर भी तुम मुस्काते हो
ना जाने श्याम ये कौन सी लीला दिखाते हो
जब मन बुद्धि चित रूप में
तुम ही व्यापते हो
फिर ये कौन से खेल रचते हो
जो जीव को भ्रमित करते हो
जानती हूँ 
जब सर्वस्व समर्पण किया हो
वहाँ ना किसी चाह का जन्म हुआ हो
फिर भी प्रश्न रूप में
तो कभी संदेह रूप में
आ खड़े होते हो
ये कैसे -कैसे रूप तुम धरते हो
जीव को मायाजाल में उलझाते हो
ये कैसा मिथ्याजाल बिछाते हो
क्या है ये मोहन
कभी लगता है
ये भी तुम्हारी ही चाहत है
जो मेरे मन में उठती है
क्यूँकि बिना तुम्हारी चाह के
ना कोई भावना उठ सकती है
पर दूसरी तरफ तुम ही कहते हो
चाह को प्रबल करो
तभी तुम मिलते हो
मगर मोहन
जिसने अपनी चाह
तुम में मिला दी हो
वो कैसे तुमसे विलग हो
फिर कैसे तुमसे अलग हो
क्यों द्वैत में फंसाते हो
ये भ्रमजाल भ्रमित करता है
जब तुम पूर्ण कहाते हो
तो जिसने स्वयं को समर्पित किया हो
तेरी रज़ा में अपनी रज़ा मिला दी हो
उसकी कहो  तो कौन सी चाह बची हो
कभी लगता है 
कोई सूक्ष्म चाह बची है
तभी ये मची खलबली है
गर ऐसा कुछ बचा है 
तो उसे भी मिटा देना
मेरा वासना रुपी वस्त्र हर लेना
मगर श्याम तुम मूँह ना मोड़ लेना
स्वयं में मिलाकर
मुझ अपूर्ण को पूर्ण कर देना
देखो मुझसे उम्मीद मत करना
मेरा वश तो यहीं तक चलता है
अब सब तुम्हारी कृपा पर ही 
निर्भर करता है
ना पहले उद्योग किया
ना अब कर सकती हूँ
तुम सब जानते हो
जैसी भी अधम पापिन हूँ
बस तुम्हारी ही हूँ
इसे स्वीकार कर लेना
श्याम इस जीव का भी उद्धार कर देना
तुम्हारा कुछ ना घटेगा
बस एक नाम और तुम्हारे यश में जुड़ेगा
मगर इस जीव का उद्धार हो जायेगा
इसका भी बेडा पार हो जायेगा

मैं शून्यकाल का अगीत …………

मैं शून्यकाल का अगीत
तुम हो मोहन मेरे मीत


नृत्य करूँ या झांझर बजाऊँ
कहो तो मोहन कैसे रिझाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


बन मीरा गली गली अलख जगाऊँ
या राधा सी बावरिया बन जाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


देहपुंज को कैसे बिसराऊँ
तुम पर कैसे वारी जाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


कौन सी कहो महावर रचाऊँ

जो तुम्हारे साधिकार दर्शन पाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………

कैसे आँख का अंजन बन जाऊं

जो तेरे नैनों की शोभा बढ़ाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …

कौन सा वो हार बन जाऊँ

जो तेरे गले से मैं लिपट जाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …

कौन सा वो बांस बन जाऊँ

जो मुरली बन अधरों से लिपट जाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …

कहो तो चरणों की रज बन जाऊँ

पायलिया बन उनसे लिपट जाऊँ
अब तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


अंधेरी राह का दीप बन जाऊँ
निराकार को साकार बनाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


ह्रदय वेदना कैसे बुझाऊँ
कहो मोहन कौन सी गंगा नहाऊँ
जो तेरे दर्शन मैं पाऊँ
अब तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


मोहिनी मूरत पर वारी जाऊँ

श्याम तुम पर बलिहारी जाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


कैसे माया का पर्दा गिराऊँ
जो तुझे साकार मैं पाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


कैसे अपना आप मिटाऊँ
जो तुझमे खुद को समाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


कह निर्झर बहता दरिया बन जाऊँ
बस ह्रदय कुंज मे तुम्हें बसाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


सुधि ना तेरी कभी बिसराऊँ
बस श्याम नाम के ही गुण मैं गाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


रसना को नाम का चस्का लगाऊँ
बस सांसों की सरगम पर रटना लगाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


जब भी तेरी गली का फ़ेरा लगाऊँ
बस सलोने मुखडे के दर्शन पाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


एक शून्य मे तुम मिल जाओ
तुम्हें पाकर एक शून्य मै बन जाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


दृष्टि सृष्टि विलीन हो जाये
एक तेरा ही अक्स रह जाये
जिसमे मै एकाकार हो जाऊँ
अब तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


आकुलता व्याकुलता का चरम हो
वो क्षण जीव का परम हो
जब तेरे दिव्य दर्शन पाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


कालगति भी वहीं ठहर जाये
जब परमसत्य मे मैं मिल जाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


कैसे घट को घट में समाऊँ

घटाकाश को व्यापक बनाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …

Tuesday, October 30, 2012

निर्मोही !मेरा श्याम कितने रंग बदलता है

निर्मोही !मेरा श्याम
कितने रंग बदलता है
कभी मीरा बन संवरता है
कभी राधा बन हँसता है
यूँ भी कभी अकडता है
बिन माखन ना पिघलता है
निर्मोही !मेरा श्याम
कितने रंग बदलता है
पिताम्बरी ओढा करता है
कनेर का फूल लगाया करता है
अधरों पर बांसुरी को
सजाया करता है

अपनी तिरछी चाल से
सबको लुभाया करता है

देख तो सखी
निर्मोही !मेरा श्याम
कितने रंग बदलता है
जन्म जन्म की दासी हूँ
उसके दरस की प्यासी हूँ
ये सब वो जाना करता है
फिर भी छुपा फ़िरता है
विरहाग्नि बढाता है
लुकाछिपी का खेल उसे
बहुत भाता है
देख तो सखी
निर्मोही !मेरा श्याम
कितने रंग बदलता है


छलिया छल छल जाता है
फिर भी सबको लुभाता है
बस यही रंग तो उसका भाता है
जो उसकी तरफ़ दिल खिंचा खिंचा जाता है
देख तो सखी
निर्मोही !मेरा श्याम
कितने रंग बदलता है

बावरिया बनाया करता है
जोग दिलाया करता है
प्रेम का रोग लगाया करता है
देख तो सखि फिर कैसे
इठलाया फ़िरता है
निर्मोही !मेरा श्याम
कितने रंग बदलता है



यही तो अदा निराली है
जिस पर हर गोपी बलि्हारी है
कहने से ना चूकती है
वो सिर्फ़ मेरा है
जबकि जानती है बावरी
वो आ तो किसी का नहीं
या फिर सबका है
कैसे कैसे बावरा बना नचाता है
अद्भुत खेल दिखाता है
तभी तो नटवर कहलाता है
देख तो सखि
निर्मोही !मेरा श्याम
कितने रंग बदलता है

" नदी हूँ फिर भी प्यासी "

ए .....ले चलो 
मुझे मधुशाला  
देखो
कितनी प्यासी है मेरी रूह
युग युगांतर से
पपडाए चेहरे की दरारें
अपनी कहानी आप कर रही हैं
कहीं तुमने अपनी आँखों पर
भौतिकता का चश्मा
तो नहीं लगा लिया
जो आज तक तुम्हें
मेरी रूह की सिसकती
लाश का करुण  क्रंदन
न सुनाई दिया 
और मैं
युगों युगों से
जन्म जन्म से
अपनी रेत के
तपते रेगिस्तान में 
मीन सी तड़प रही हूँ
प्यास पानी की होती
तो शायद
रेगिस्तान में भी
कोई चश्मा ढूंढ ही लेती
मगर तुम जानते हो
मेरी प्यास
उसका रूप उसका रंग
निराकार होते हुए भी
साकार हो जाती है
और सिर्फ यही इल्तिजा करती है
ए .........एक बार सिर्फ एक बार
प्रीत की मुरली बजाते
मेरी हसरतों को परवान चढाते 
इस राधा की प्यास बुझा जाओ
हाँ ..........प्रियतम
एक बार तो दरस दिखा जाओ
बस .............और कुछ नहीं
कुछ नहीं चाहिए उसके बाद 
तुम जानते हो अपनी इस नदी की प्यास को
फिर चाहे कायनात का आखिरी लम्हा ही क्यों न हो
बस तुम सामने हो ..........और सांस थम जाए 
इससे ज्यादा जीने की चाह नहीं ...........
ए ...........एक बार जवाब दो ना
क्या होगी मेरी ये हसरत पूरी ........... रेगिस्तान की इस रेतीली नदी की
मेरे आंसुओं की धडकन पर
जो तुम थिरक थिरक जाओ
मेरे सांसों की सरगम पर
जो तुम मचल मचल जाओ
सच कहती हूँ ……मोहन
मैं मिट मिट जाऊँ
मैं हुलस हुलस जाऊँ
मैं……मैं ना रहूँ
बस तुम ही तुम बन जाऊँ




पूनम की रात ने डेरा लगाया
देख शरद का चाँद खिलखिलाया
मेरे ह्रदय मे महारास नित हो रहा
बस श्याम ही श्याम चहूँ ओर दिख रहा

खंडित काल की खंडित कृति हूँ मैं .....

 कैसी  हो गयी हूँ मैं ..........खुद से भी अनजान सी  ........क्या चाहती हूँ नहीं जानती ..........ढूंढ रही हूँ खुद में खुद को ...........कोई पहचान चिन्ह ही नहीं मिल रहा ........ बड़ी बेतरतीबी बनी हुयी है ..........कभी किसी धुन पर थिरक उठना तो अगले ही पल किसी धुन पर रो पड़ना या गुमसुम हो जाना ............कभी विचलित तो कभी उद्वेलित तो कभी उद्गिन ...........अजब उहापोह की धमाचौकड़ी मची रहती है और उसमे खुद को ढूंढना जैसे अँधेरी  कोठरी में सूईं को ढूंढना .............भागने की इच्छा होना और कोई दरवाज़ा न दिखना जो गली की ओर  खुलता हो .......... दिख भी जाये तो कोई राह न दिखती जिसकी कोई मंजिल हो ..........ऐसे में ना बाहर  की रही ना  अन्दर की ...........अजब कशमकश का  शोर ................कान  बंद करने पर भी सुनाई देता है ............नहीं भाग पाती आंतरिक कोलाहल से ............और कभी सब यूँ शांत जैसे सृष्टि का अस्तित्व ही न हो ...........सिर्फ एक नाद हो ............परम नाद , ब्रह्म नाद ............कौन सी स्थिति का द्योतक है ? कैसी ये मनःस्थिति है ? कौन सी विडंबना है जो सर उठाना चाहकर भी नहीं उठा पा रही .........खुद को पूरा नहीं पा रही और असमंजस की स्थिति में गोते लगाता मुझमे कोई मुझे ढूंढ रहा है ............क्या मिलूंगी मैं कभी उससे ? खोज की अपूर्णता का तिलिस्म भेदने के लिए किस कालचक्र से गुजरना होगा जो प्रश्न के आगे लगे प्रश्नचिन्ह से निजात मिल सके .........खंडित काल की खंडित कृति हूँ मैं ..... मिलेगा कोई शिल्पकार क्या मुझे मेरा रंग रूप देने के लिए .........इंतज़ार की वेदी पर चिता सुलग रही है ..........आह्वान करती हूँ तुम्हारा ..............पूर्णाहूति के लिए ...........देव मेरे ! शिलाओं के उद्धार को अवतरित होना होगा !!!!!!!!

Monday, October 29, 2012

" इसे प्रश्नोत्तरी कहो या वार्तालाप या आरोप प्रत्यारोप "…भाग 4



प्रभो
ना जाने कौन सा खेल खेल रहे हो
क्यों मन में सवालों के भंवर उठा रहे हो
ये तो तुम ही जानो 
क्या है तुम्हारी माया
मैं तो जीव परवश हूँ
इसलिए जो प्रश्न रूप में तुम 
अवतरित हुए हो
उसे ही तुम्हारे सम्मुख रखता हूँ
आखिर शब्द "मै" ने फिर एक प्रश्न उठाया
लो फिर प्रश्नों की गंगा लेकर
मै तुम्हारे सम्मुख आया
इस बार तुम जरूर अनुत्तरित होंगे
तुम्हें हराना मेरा मंतव्य नही
बस ये भी तुम्हारी ही
कोई माया दिखती है
जिसे तुम्हारे सम्मुख
तो लाना होगा और
खुद को प्रश्न जाल से
बाहर निकालना होगा 
तुम कहते हो 
मैंने जीव को धरती पर भेजा
सिर्फ भगवान को पाने के लिए
और ये आकर यहाँ
विषय विकारों
घर गृहस्थी के चक्कर में
मुझको भूल गया
इसलिए इसे अपने पास बुलाने को
अपनी याद दिलाने को 
कभी कभी विपदाएं देता हूँ
और अपनी याद कराता हूँ
अरे भगवन ये कैसा तुम्हारा कृत्य हुआ?
ऐसे तो तुमने खुद को ही 
महिमामंडित किया 
अपने "मैं " को प्रधान बताया
सिर्फ अपने को ही 
पुजवाना चाहा 
दूसरी बात 
तुम कहते हो 
जीव तुम्हारा ही अंश है
या कहो 
हर रूप में तुम ही विराजते हो
तो बताओ तो जरा
यदि जीव रूप में तुम ही हो
और जीव भी "मैं मैं "
ही करता है
अपने लिए ही जीता है 
तो क्या बुरा करता है
जब तुम "मैं हूँ एक ब्रह्म"
इस सत्य को उद्घाटित करते हो
तो क्या तुम खुद नहीं
"मैं" के भंवर में फंसते हो 
और अपने " मैं " को संतुष्ट करने के लिए
ये अजीबो गरीब चक्रव्यूह रचते हो 
जब घर गृहस्थी में फंसाया है
तो जीविकोपार्जन हेतु
कार्य तो उसे करना होगा
जीवन सञ्चालन के लिए 
उद्योग भी करना होगा
और उसमे झूठ सच का 
सहारा भी लेना ही पड़ता है
हर काम सिर्फ तुम्हारे नाम पर ही
तो नहीं चल सकता है ना
फिर जब सब तुम्हारा है
सब में तुम हो
तो बताओ
भिन्नता कैसी ?
कौन किससे भिन्न हुआ ?
जीव रूप में भी तुम
ईश्वर तो हो ही तुम
तो जीव ने "मैं" कहा 
तो क्यों तुम्हें बुरा लगा
क्या वो "मैं" कहने वाला
तुम ना हुए?
क्या वो "मैं" तुमसे भिन्न हुआ ?
और खुद को खुद से पुजवाना
अपनी याद दिलाना 
ये तो सब तुम्हारे ही 
क्रियाकलाप हुए ना
फिर कैसे जीव इनका कर्ता और भोक्ता हुआ ?
जब हर रूप में तुम ही 
विराजते हो
जब तुम कहते हो
तुम्हारी इच्छा के बिना 
पत्ता तक हिलता नहीं
फिर यहाँ किसे किससे भिन्न कर रहे हो ?
क्यों ये भेद बुद्धि बनाई तुमने
जो जीव और ब्रह्म में फंसाई तुमने
पहले तुम ही सही निर्णय कर लो
कि तुम जीव हो या ब्रह्म
कि तुम ही हर जीव में समाये हो ना नहीं
कि हर रूप में तुम ही तुम होते हो
सब कल्पना विलास हो या यथार्थ
हर रूप , भाव , शब्द, कथन
सबमे तुम्हारा ही तो रूप समाया है
फिर बताओ तो जरा
कौन किससे जुदा है
फिर कौन ये नट का खेल खेलता है 
भोले भक्त की बातें सुन
प्रभु मुस्काते हैं
मन ही मन हर्षित होते हैं
जानते हैं ना 
ये प्रश्न हर दिल में उठता है
शायद तभी आज 
इसे कहने की इसने हिम्मत की है
जो हर कोई नहीं कर पाता है
यदि करता है तो उसके
प्रश्नों का ना सही उत्तर मिलता है 
प्रभु बोले 
प्यारे भक्त मेरे
क्यों तू भूलभुलैया में फंसता है
एक तरफ तू खुद ही कह रहा है
कि सब करने वाला मैं ही हूँ
तो सोच जरा
तेरे मन में उठने वाला प्रश्न 
भी मैं ही हूँ
और जवाब देना वाला भी मैं ही हूँ
मेरी शक्ति अदम्य है
मुझसे ना कुछ भिन्न है
जब नटवर कहा है तो
उसकी जादूगरी में भी 
तो फंसना होगा
गर उसका हर खेल जान लिया 
तो बताओ तो जरा
वो कैसा जादूगर हुआ
फिर भी बतलाता हूँ
हाँ .........मैं हूँ रचयिता
मैं ही हर रूप में समाया हूँ
सब मेरा ही क्रियाकलाप है
कुछ भी ना मुझसे भिन्न है
मैंने ही ये खेल रचा है
मैं ही कार्य, कारण और कर्ता, भोक्ता हूँ 
मैं ही जगत नियंता हूँ
क्या मैं खेल नहीं रच सकता हूँ
बस खेल ही तो खेल रहा हूँ
फिर तू क्यों उलझन में पड़ता है
क्यों नही निर्विकार होकर रहता है
जब तू जान गया 
मेरे सत्य रूप को पहचान गया
फिर क्यों भेद बुद्धि में फंसता है
बस सब आशा, तृष्णा ,अहंता, ममता 
राग- द्वेष, जीवन- मृत्यु, हानि -लाभ 
सब को छोड़ एक मेरा निरंतर ध्यान धर
मुझमे ही अपने स्वरुप का विलय कर 
बस एक बार अपने सब कर्म 
मुझको अर्पण कर दे
फिर मुझमे ही तू मिल जायेगा 
सारे कर्म बंधनों से मुक्त हो जायेगा 
बात तो प्रभु फिर वहीँ आ गयी
जब सब तुम्हारा है
तुम ही कर्ता भोक्ता हो
फिर मेरी क्या हस्ती है ?
कैसे मैं खुद को नियंत्रित कर सकता हूँ
सब तुम्हारा रचाया तो खेल है
उसमे मैं कैसे विघ्न उत्पन्न कर सकता हूँ
क्या मेरे हाथ में तुमने कुछ दे रखा है
क्या मैं अपनी मर्जी से कुछ कर सकता हूँ
नहीं ना ..........तो ये अर्पण समर्पण भी
सब तुम्हारा है
तुम ही जानो
कराओ तो सही ना कराओ तो सही
क्योंकि मेरी दृष्टि में तो 
तुम ही सब करने वाले हो
मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार आदि सबमे 
तुम ही तो समाये हो
और सबके नियंत्रणकर्ता भी तुम ही हो
तो भला मैं कैसे स्वतंत्र हुआ 
मैं तो तुम्हारे हाथ की वो कठपुतली हूँ
जिसे जैसे चाहे नचाते हो
अब ये प्रश्न रूप में भी तुम ही हो
और उत्तर रूप में भी तुम ही हो
फिर भला मेरी क्या हस्ती है
अब मान भी जाओ 
अपने " मैं " के पोषण के लिए
तुम ही भिन्न रूप रखते हो
स्वयं को महिमामंडित करते हो
मानो प्रभु ..........तुम भी "मैं " के जाल से ना मुक्त हो 
ज्ञान के शिखर पर पहुँच कर भी
अज्ञानता के तम में फँस जाता है 
जीव ऐसे ही तो उसके 
चक्रव्यूह में फँस जाता है
जब ये अजीबो गरीब प्रश्न 
उसके मन में उठते हैं
उफ़ ! ये कैसा अजब जाल बिछाया है 
आज तो जग नियंता पालनकर्ता भी
अपने जाल में फँस गया 
मंद मंद मुस्काता है 
मगर कह कुछ ना पाता है 
बस यही तो भक्त और भगवन की 
अजब गज़ब लीलाएं चलती हैं
जो नए नए रूप बदलती हैं 
मगर सत्य हर युग 
हर काल मे एक ही रहता है 
करने कराने वाला तो
 सिर्फ़ वो ही होता है 
हम तो सिर्फ़ माध्यम बनते हैं 
और इसी बल पर ऐंठे फ़िरते हैं 
जरा सी ढील देता है तो 
पतंग लहराने लगती है 
और जरा सी खींच दे तो 
सही राह पर चलने लगती है 
बस कटने से पहले तक ही 
ये प्रश्न मन मे उठते हैं 
जिनके उत्तरों मे हम 
जनम जनम भटकते हैं 
जो उत्तर पा जाता है 
वो निरुत्तर हो जाता है 
ये भी कोई माया है 
ये भी कोई खेल होगा 
यूँ ही तो नही बिना कारण प्रश्नोत्तरी रूप धरा होगा 
हाँ , आज तुम्हें एक नया नाम दे दिया …………मेरे प्रश्नोत्तर! 
शायद ये भी प्रीत का ही कोई रंग होगा 
यूँ ही तो नही ये नाम तुम्हें मिला होगा ……खुश तो हो ना !!!!!!


Thursday, October 25, 2012

इसे प्रश्नोत्तरी कहो या वार्तालाप या आरोप प्रत्यारोप…3

प्रभु और भक्त की नोंक झोंक अब अगले मुकाम पर आ पहुँची ………


अगला प्रश्न भक्त ये करता है
प्रभु एक तरफ तुम ये कहते हो
तेरा योगक्षेम मैं वहन करूंगा
तू बस मेरा चिंतन कर
और जब भक्त ऐसा करता है
फिर भी तुम अपनी कलाबाजियों से 
बाज नहीं आते हो
और बीच बीच में उसे 
किसी ना किसी तरह सताते हो
बताओ भक्त कैसे निश्चिन्त हो
जब तुम ही उसे धोखा देते हो
और कठिन परीक्षा की आग में झोंक देते हो
बेचारा भक्त तो निश्चिन्त हो जाता है
अपना हर कर्म , हर सोच , हर विचार 
सब तुम्हें ही अर्पण कर देता है
जहाँ वो अपना कुछ नहीं मानता है
फिर बताओ तो जरा 
तुम कैसे ऐसे भक्त को
परीक्षा की उलझन में डाल देते हो
क्या तुम्हारा दिल नहीं पिघलता है
माना सुना है कि आँच की कसौटी पर
ही सोना कुंदन बनता है 
मगर जिसे तुमने छू लिया हो
जो पारसमणि बन गया हो
उसे अब और क्या प्रमाणित करने को रहा
कहीं ऐसा तो नहीं
तुम्हें इस खेल में ज्यादा मज़ा आता है
और अपनी सत्ता का अहसास कराकर 
तुम आनंदित होते हो
हाय रे मेरे प्यारे ! तू भी आज मुझे
अजब भक्त मिला है
जिसने मेरे सारे खेलों को खोला है
मैं यूँ ही नहीं ऐसे खेल रचता हूँ
पात्र देखकर ही उसमे जल भरता हूँ
ये सब अपने लिए नहीं करता हूँ
जब देखता हूँ मटका पक चुका है
तभी उसे जल में प्रवाहित करता हूँ
ताकि बाकी सब भी उसका अनुसरण करें
और जल्द से जल्द मुझसे आ मिलें
क्योंकि भक्त और मुझमे जब 
कोई भेद नहीं रहता है
तो भक्त पीड़ा भी वहन नहीं करता है
वो सुख दुःख से परे हो जाता है
हर कृत्य में उसे मेरा खेल ही नज़र आता है
और वो भक्ति भाव से 
उसकी पूर्णता में अपनी 
भागीदारी निभाता है
मगर दोष ना कोई मढ़ता है
क्योंकि दो हों तो दोष मढे
खुद को कैसे कोई खुद ही आरोपित करे
जब भक्त ये जान लेता है
तभी तो परीक्षा पर खरा उतरता है
अब तुम्हारी बात ही मैं कहता हूँ
जब तुम ये कहते हो 
मुझमे और जीव में कोई भेद नहीं
मैं ही हर रूप में समाया हूँ
सब मेरा ही लीला विलास है
ना कोई जीव है ना ब्रह्म 
सब मेरा ही रूप मुझमे व्याप्त है
तो फिर प्रश्न कैसा और किससे?
बोलो प्यारे भोले भक्त 
जब सब मैं हूँ 
अपनी परछाईं से खेलता हूँ
तो कहो तो जरा 
सुख में भी मेरा रूप समाया है
और दुःख में भी तो मेरा ही अंतस अकुलाया है
मैं ही मैं चारों तरफ छाया है
फिर तुम पर क्यूँ पड़ी
इन प्रश्नों की छाया है
तुम चाहे दो मानो चाहे एकोअहम 
मगर भेद नहीं कर सकते हो
सुनकर भक्त का माथा झुक गया
वो प्रभु के चरणों में नतमस्तक हुआ
उसे समझ सब आ गया
इसे  प्रश्नोत्तरी कहो या वार्तालाप या आरोप प्रत्यारोप 
इसका भेद भी पा गया
ये पूछने वाला भी एक ब्रह्म है
और जवाब देने वाला भी 
वो ही सर्वस्व  है
बस अपने किस रूप को कैसे प्रस्तुत करना है
किस रूप से क्या काम लेना है
किसे कैसे खुद से मिलाना है
कैसे खुद में समाना है
ये सब प्रभु का ही आनंद विलास  है 
जहाँ कोई ना दूजा अस्तित्व प्रगट होता है
ये तो प्रभु की लीला का मात्र एक अंश होता है
खुद से खुद की प्रश्नोत्तरी 
खुद से खुद के जवाब
खुद से खुद की पहचान
सब उनका है दृष्टि विलास
वास्तव में तो प्रभु ने अपनी सत्ता दर्शायी है
और अपने खेल में अपनी भागीदारी ही निभाई है
फिर कहाँ और कौन भक्त
कैसा समर्पण कैसा बँधन
सब उसी का उसी में आनंद समाया है 
बस दृष्टि भेद से फर्क समझ नहीं आया है
अब भक्त की जय कहो या भगवान की 
इसका प्रश्नकर्ता हो या उत्तरदाता 
सब मे वो ही था समाया 
बस माध्यम मुझे था बनाया 
या कहो वो खुद ही इस रूप मे उतर आया
और एक नया पन्ना इस तरह लिखवाया 
जिसे भिन्न रुपों मे वो गा चुका है
पर एक बार फिर से दोहराया 
भूला बिसरा पाठ फिर से याद करवाया 
प्रभु हैं अजब अजब है उनकी माया 
जिसमे "मै" का ना कोई वजूद कहीं पाया


क्रमश:……………

Thursday, October 18, 2012

इसे प्रश्नोत्तरी कहो या वार्तालाप या आरोप प्रत्यारोप............2




मगर ये वार्तालाप 
यहीं ना बंद हुआ 
भक्त ने झट दूसरा प्रश्न दाग दिया
प्रभु जब तुमने मान लिया
तुम ही सब कुछ करते हो
तो बताओ तो जरा
फिर भक्त की परीक्षा क्यूँ लेते हो
क्यों उसे दो के भ्रम में उलझाते हो
क्यूँ तुम में और उसमे कोई भेद है
ये बतलाते हो
सुन प्रभु ने जवाब दिया
जब भक्त मेरे हैं
मैं उनका हूँ
तो उनके प्रेम का परिक्षण करता हूँ
क्या ये भी मुझे उतना ही चाहता है
जितना मैंने इसे चाहा है
या ये अपनी किसी गरज से
मुझसे मिलने आया है
जब खोटा है या खरा 
ये परख लेता हूँ
तब उस पर अपना 
सर्वस्व  न्योछावर करता हूँ
और भक्त के हाथों बिक लेता हूँ
अब वो जैसा चाहे मुझे नचाता है
चाहे तो भूखा रखे
चाहे तो काम करवाए
चाहे तो बर्तन मंजवाए
चाहे तो झाडू लगवाए
मैं उसके प्रेम पर रीझ जाता हूँ
और उसकी ख़ुशी में ही
अपनी ख़ुशी समझता हूँ
जैसे भक्त मेरी ख़ुशी में
अपनी ख़ुशी समझता है
वैसे ही मैं भी उसके साथ करता हूँ
यहाँ दोनों के भाव 
एकाकार हो जाते हैं
दोनों ही अपना स्व भूल जाते हैं
और एक रूप हो जाते हैं
यही तो वो भाव होता है
जिसके लिए मैं ये 
सारी लीला रचता हूँ
और तुम मुझ पर दोषारोपण करते हो
बताओ तो जरा कहाँ फिर
दोनों में कोई भेद रहा
और कब मैंने दो का भेद कहा
यही तो मैं समझाना चाहता हूँ
तू मेरी किरण है जो मुझसे बिछड़ी है
बस एक बार मुझे आवाज़ दे
मैं सौ कदम आगे आ जाता हूँ
और उसे अपने में मिला लेता हूँ
फिर कहाँ दोनों में भेद रहा
ये भेद मैंने नहीं डाला है
बस दृष्टि के बदलने से ही
सृष्टि बदली नज़र आती है
वरना तो तुझमे मुझमे कोई भेद नहीं
यही समझाना चाहता हूँ
पर जीव भूला भूला फिरता है
और आवागमन में फंसता है
अरे अरे फिर तुम उसी बात पर आते हो
प्रभु मुझे फिर घुमाते हो
अभी तो तुमने माना है
सब तुम ही करते हो
तो इस रूप में भी तो 
तुम्हारा ही सारा खेल होता है
भेद विभेद सब दृष्टि भ्रम होता है
जबकि कर्ता कर्म और फल 
सब तुम्हारा ही रूप होता है
देखो ये शब्दों की उलझन में ना उलझाओ
मुझे अपने शब्द जाल में ना फंसाओ
और जब तुम कहते हो
तुझमे मुझमे कोई भेद नहीं
फिर क्यों कठिन परीक्षा लेते हो
क्यों जीव को इतना भटकाते हो
जो जान पर बन आती है
तब जाकर तुम मिलने आते हो
और दूसरी तरफ कहते हो
बस मेरा सुमिरन किया कर
और कर्म सारे मेरे अर्पण किया कर
बताओ तो जरा 
जीव क्या करे और क्या ना करे
कैसे खुद को अपने कर्तव्यों से विमुख करे
जब तुम ही उसे फंसाते हो
कर्त्तव्य निभाने का उपदेश देते हो
कर्म की शिक्षा देते हो
और जब वो कर्म में संलग्न होता है
तब उसे भोगों में लिप्त होने का दंड देते हो
ये कैसा तुम्हारा विधान है
जो जीव की समझ से पार है
अरे भोले भक्त मेरे 
मैंने ना कोई दंड विधान रखा
सिर्फ इतना ही तो है कहा
कर्म करे जा फल की इच्छा मत रख
अर्थात निर्लिप्त भाव से कर्म कर
और अपने सारे कर्म मुझे अर्पण कर
मुझे अर्पण करने से वो ही कर्म तेरा
मेरी  पूजा बन जायेगा
और फिर मुझसे मिलने में
ना कोई बाधा तू पायेगा 
कर्म करते भी मुझसे मिला जा सकता है
जरूरी नहीं तू राम नाम की माला ही जपा करे
ये कर्म भूमि मैंने ही बनाई है
बस इतनी ही तो बात कहलाई है
यहाँ कर्म किये बिना ना
कोई एक क्षण रह सकता है
बस तू खुद को कर्म का कर्ता मत मान
और कर्म अपना मेरे अर्पण कर
फिर देख मुझसे मिलना सुगम हो जायेगा
तेरे पथ पर तू बिना पुकारे भी
मुझे खड़ा पायेगा 
अरे वाह प्रभु .....क्या बात तुम कहते हो
जब जीव कर्म करेगा तो बताओ तो जरा
कैसे कर्म बँधन से खुद को मुक्त करेगा
क्या कर्म बिना किसी आशा के किया जा सकता है
क्या कर्म से बिना सम्बन्ध जोड़े कोई कर्म किया जा सकता है
जब कर्म से कोई नाता होगा 
तभी तो कर्म सही ढंग से होगा
और उसे पूरा करने की जब इच्छा होगी
तभी तो कर्म में उसकी रति होगी 
बताओ फिर कैसे कर्मफल से जीव
खुद को विमुख कर सकता है
बिना चाहत के कोई कैसे
कर्म कर सकता है
कहीं ना कहीं किसी ना किसी अंश में
कोई तो चाहत छुपी होगी
अच्छा बताओ जरा
अगर कोई तुम्हें चाहे
तो क्या तुम्हें पाने की चाहत नहीं रखेगा
और तुम्हें पाने के लिए 
वो तुम्हारा सुमिरन भजन मनन नहीं करेगा
अब सारे कर्म वो कर रहा है
मगर बिना चाहत के तो
तुम्हें पाने का कर्म भी नहीं कर रहा है
फिर भला कैसे जीव
चाहत मुक्त हो सकता है
कैसे खुद को पूर्ण विमुख कर सकता है
जब तक किसी कार्य को करने का कारण नहीं होगा
कार्य कहो तो कैसे संपन्न होगा 
प्रभु तुम्हारी बातें बहुत भरम फैलाती हैं
जो जीव के समझ नहीं आती हैं
देखो तुम्हें अपनी कार्यप्रणाली बदलनी होगी
थोड़ी जीव की भी सुननी पड़ेगी
ये नहीं सारा दोष जीव के सिर मढ़ दो
और खुद को पाक साफ़ दिखा दो
तुम भी दोषमुक्त नहीं हो सकते हो
जब तक जीव पर आरोप रखते हो
प्रभु प्यारे भक्त की बातों में 
रस लेते हैं
और मधुर मधुर मुस्कान से 
दृष्टिपात करते हैं
भक्त और भगवान की महिमा
अजब न्यारी है
जहाँ भक्त ने ही वकील और जज की कुर्सी संभाली है
और प्रभु कटघरे में खड़े
मधुर मधुर मुस्काते हैं
और अपने प्यारे भक्त की मीठी बातों पर
रीझे जाते हैं

क्रमश :………