Thursday, January 26, 2012

कृष्ण लीला .........भाग 35


जब कंस ने वत्सासुर का वध सुना
तब उसके भाई बकासुर को भेज दिया
बगुले का रूप रखकर वो आया है
जलाशय के सामने उसने डेरा लगाया है
पर्वत समान रूप बना 
घात लगाकर बैठा है 
कब आयेंगे कृष्ण 
इसी चिंतन में ध्यानमग्न बैठा है
मोहन प्यारे ने उसे पहचान लिया है
ग्वालबाल देखकर डर रहे हैं
तब मोहन प्यारे बोल पड़े हैं
तुम भय मत करना
हम इसको मारेंगे
इतना कह श्यामसुंदर उसके निकट गए
जैसे ही उसने मोहन को देखा है
वैसे ही उन्हें पकड़ निगल लिया है
और प्रसन्न हुआ है
मैंने अपने भाई के वध का बदला लिया है
इधर ग्वाल बाल घबरा गए 
रोते -रोते मैया को बताने चले
थोड़ी दूर पर बलराम जी मिल गए
सारा वृतांत उन्हें सुनाया है
धैर्य धरो शांत रहो 
अभी कान्हा आता होगा
तुम ना कोई भय करो
कह बलराम जी ने शांत किया है
जब कान्हा ने जाना
सब ग्वालबाल व्याकुल हुए हैं
तब अपने अंग में ज्वाला उत्पन्न की है
जिससे उसका पेट जलने लगा
और उसने घबरा कर 
श्यामसुंदर को उलट दिया
तब नन्दलाल जी ने उसकी 
चोंच पर पैर रख 
ऊपर की ओर उसे चीर दिया 
ये देख ग्वालबाल आनंदित हुए 
देवताओं ने भी दुन्दुभी बजायी है 
ग्वालबालों ने मोहन को घेर लिया
और बृज में जाकर सब हाल कह दिया
जिसे सुन सभी हैरत में पड़ गए
पर नंदबाबा ने मोहन के हाथों
खूब दान करवाया है 
आज मेरा पुत्र मौत के मुँह से
बचकर आया है
सब मोहन को निहारा करते हैं
खूब उनकी बलैयां लेते हैं
जब से ये पैदा हुआ 
तब से ना जाने कितनी बार
मौत को इसने हराया है
हे प्रभु हमारे मोहन की 
तुम रक्षा करना
कह - कह ब्रजवासी दुआएँ करते हैं
ये देख मैया बोली
लाला तुम ना बछड़े 
चराने जाया करो 
तब मोहन बातें बनाने लगे
मैया को बहलाने लगे
हमको ग्वाल बाल अकेला छोड़ देते हैं
अब मेरी बला भी 
बछड़ा चराने ना जावेगी
बस तुम मुझको 
चकई भंवरा मंगा देना
तब मैं गाँव में ही खेला करूंगा
इतना सुन यशोदा ने
चकई भंवरा मंगाया है
अब मोहन ग्वालबालों के संग
ब्रज में चकई भंवरा खेला करते हैं
जिसे देखने गोपियाँ आया करती हैं
नैनन के लोभ का ना संवरण कर पाती हैं
प्रीत को अपनी ऐसे बढाती हैं
जब कोई बृजबाला उनके
निकट खडी हो जाती है
तब उनकी प्रीत देख
मोहन हँसकर चकई ऐसे उड़ाते हैं
वो गोपी के गहनों में फँस जाती है
जिसे देखकर वो गोपी 
अंतःकरण में प्रसन्न हो 
प्रगट में गलियाँ देती है 
मोहन ऐसी मोहिनी लीलाएं
नित्य किया करते हैं
जिसके स्वप्न में भी दर्शन दुर्लभ हैं
वो मोहन गोप गोपियों संग
ब्रज में खेला करते हैं
बड़े पुण्य बडभागी वो नर नारी हैं 
जिन्होंने मोहन संग प्रीत लगायी है 
फिर भी न हम जान पाते हैं
उन्हें न पहचान पाते हैं 
वो तो आने को आतुर हैं
मगर हम ही ना उन्हें बुला पाते हैं 
ना यशोदा ना गोपी बन पाते हैं ...

क्रमशः ...........

कृष्ण लीला .........भाग 35


जब कंस ने वत्सासुर का वध सुना
तब उसके भाई बकासुर को भेज दिया
बगुले का रूप रखकर वो आया है
जलाशय के सामने उसने डेरा लगाया है
पर्वत समान रूप बना 
घात लगाकर बैठा है 
कब आयेंगे कृष्ण 
इसी चिंतन में ध्यानमग्न बैठा है
मोहन प्यारे ने उसे पहचान लिया है
ग्वालबाल देखकर डर रहे हैं
तब मोहन प्यारे बोल पड़े हैं
तुम भय मत करना
हम इसको मारेंगे
इतना कह श्यामसुंदर उसके निकट गए
जैसे ही उसने मोहन को देखा है
वैसे ही उन्हें पकड़ निगल लिया है
और प्रसन्न हुआ है
मैंने अपने भाई के वध का बदला लिया है
इधर ग्वाल बाल घबरा गए 
रोते -रोते मैया को बताने चले
थोड़ी दूर पर बलराम जी मिल गए
सारा वृतांत उन्हें सुनाया है
धैर्य धरो शांत रहो 
अभी कान्हा आता होगा
तुम ना कोई भय करो
कह बलराम जी ने शांत किया है
जब कान्हा ने जाना
सब ग्वालबाल व्याकुल हुए हैं
तब अपने अंग में ज्वाला उत्पन्न की है
जिससे उसका पेट जलने लगा
और उसने घबरा कर 
श्यामसुंदर को उलट दिया
तब नन्दलाल जी ने उसकी 
चोंच पर पैर रख 
ऊपर की ओर उसे चीर दिया 
ये देख ग्वालबाल आनंदित हुए 
देवताओं ने भी दुन्दुभी बजायी है 
ग्वालबालों ने मोहन को घेर लिया
और बृज में जाकर सब हाल कह दिया
जिसे सुन सभी हैरत में पड़ गए
पर नंदबाबा ने मोहन के हाथों
खूब दान करवाया है 
आज मेरा पुत्र मौत के मुँह से
बचकर आया है
सब मोहन को निहारा करते हैं
खूब उनकी बलैयां लेते हैं
जब से ये पैदा हुआ 
तब से ना जाने कितनी बार
मौत को इसने हराया है
हे प्रभु हमारे मोहन की 
तुम रक्षा करना
कह - कह ब्रजवासी दुआएँ करते हैं
ये देख मैया बोली
लाला तुम ना बछड़े 
चराने जाया करो 
तब मोहन बातें बनाने लगे
मैया को बहलाने लगे
हमको ग्वाल बाल अकेला छोड़ देते हैं
अब मेरी बला भी 
बछड़ा चराने ना जावेगी
बस तुम मुझको 
चकई भंवरा मंगा देना
तब मैं गाँव में ही खेला करूंगा
इतना सुन यशोदा ने
चकई भंवरा मंगाया है
अब मोहन ग्वालबालों के संग
ब्रज में चकई भंवरा खेला करते हैं
जिसे देखने गोपियाँ आया करती हैं
नैनन के लोभ का ना संवरण कर पाती हैं
प्रीत को अपनी ऐसे बढाती हैं
जब कोई बृजबाला उनके
निकट खडी हो जाती है
तब उनकी प्रीत देख
मोहन हँसकर चकई ऐसे उड़ाते हैं
वो गोपी के गहनों में फँस जाती है
जिसे देखकर वो गोपी 
अंतःकरण में प्रसन्न हो 
प्रगट में गलियाँ देती है 
मोहन ऐसी मोहिनी लीलाएं
नित्य किया करते हैं
जिसके स्वप्न में भी दर्शन दुर्लभ हैं
वो मोहन गोप गोपियों संग
ब्रज में खेला करते हैं
बड़े पुण्य बडभागी वो नर नारी हैं 
जिन्होंने मोहन संग प्रीत लगायी है 
फिर भी न हम जान पाते हैं
उन्हें न पहचान पाते हैं 
वो तो आने को आतुर हैं
मगर हम ही ना उन्हें बुला पाते हैं 
ना यशोदा ना गोपी बन पाते हैं ...

क्रमशः ...........

Saturday, January 21, 2012

कृष्ण लीला .........भाग 34


 कान्हा की वर्षगांठ का दिन था आया
नन्द बाबा ने खूब उत्सव था मनाया 
गोप ग्वालों ने नन्द बाबा संग किया विचार 
यहाँ उपद्रव लगा है बढ़ने 
नित्य नया हुआ है उत्पात 
जैसे तैसे बच्चों की रक्षा हुई 
और तुम्हारे लाला पर तो 
सिर्फ प्रभु की कृपा हुयी 
कोई अनिष्टकारी अरिष्ट 
गोकुल को ना कर दे नष्ट
उससे पहले क्यों ना हम सब
कहीं अन्यत्र चल दें
वृन्दावन नाम का इक सौम्य है वन
बहुत ही रमणीय पावन और पवित्र 
गोप गोपियों और गायों के मनभावन 
हरा भरा है इक निकुंज 
वृंदा देवी का पूजन कर 
गोवर्धन की तलहटी में
सबने जाकर किया है निवास 
वृन्दावन का मनोहारी दृश्य
है सबके मन को भाया 
राम और श्याम तोतली वाणी में
बालोचित लीलाओं का सबने है आनंद उठाया 
ब्रजवासियों को आनंद सिन्धु में डुबाते हैं 
कहीं ग्वाल बालों के संग
कान्हा बांसुरी बजाते हैं
कभी उनके संग बछड़ों को चराते हैं
कहीं गुलेल के ढेले फेंकते हैं
कभी पैरों में घुँघरू बांध 
नृत्य किया करते हैं
कभी पशु पक्षियों की बोलियाँ 
निकाला करते हैं
तो कहीं गोपियों के 
दधि माखन को खाते हैं
नित नए नए कलरव करते हैं
कान्हा हर दिल को 
आनंदित करते हैं 



जब कान्हा पांच बरस के हुए
हम भी बछड़े चराने जायेंगे
मैया से जिद करने लगे
बलदाऊ से बोल दो 
हमें वन में अकेला ना छोडें
यशोदा ने समझाया
लाला , बछड़े चराने को तो
घर में कितने चाकर हैं 
तुम तो मेरी आँखों के तारे हो
तुम  क्यों वन को जाते हो
इतना सुन कान्हा मचल गए
जाने ना दोगी तो 
रोटी माखन ना खाऊँगा
कह हठ पकड़ ली  
यशोदा बाल हठ के आगे हार गयी
और शुभ मुहूर्त में 
दान धर्म करवाया 
और ग्वाल बालों को बुलवाया
श्यामसुंदर को उन्हें सौंप दिया
और बलराम जी को साथ में 
भेज दिया
जब कंस ने जाना 
नंदगोप ने वृन्दावन में
डाला बसेरा है 
तब उसने वत्सासुर राक्षस को भेज दिया
बछड़े का रूप रखकर आया है
और बछड़ों में मिलकर
घास चरने लगा है
उसे देख बछड़े डर कर भागने लगे
पर श्यामसुंदर की निगाह से
वो ना बच पाया है
उसे पहचान केशव मूर्ति ने कहा 
बलदाऊ भैया ये 
कंस का भेजा राक्षस है 
बछड़े का रूप धर कर आया है
चरते - चरते वो 
कृष्ण के पास पहुँच गया 
तब कान्हा ने उसका
पिछला पैर पकड़ 
घुमा कर वृक्ष की जड़ पर पटका 
एक ही बार में प्राणों का 
उसके अंत हुआ है
यह देख देवताओं ने पुष्प बरसाए हैं
ग्वालबाल भी उसका अंत देख हर्षाये हैं


क्रमशः ...........

कृष्ण लीला .........भाग 34


 कान्हा की वर्षगांठ का दिन था आया
नन्द बाबा ने खूब उत्सव था मनाया 
गोप ग्वालों ने नन्द बाबा संग किया विचार 
यहाँ उपद्रव लगा है बढ़ने 
नित्य नया हुआ है उत्पात 
जैसे तैसे बच्चों की रक्षा हुई 
और तुम्हारे लाला पर तो 
सिर्फ प्रभु की कृपा हुयी 
कोई अनिष्टकारी अरिष्ट 
गोकुल को ना कर दे नष्ट
उससे पहले क्यों ना हम सब
कहीं अन्यत्र चल दें
वृन्दावन नाम का इक सौम्य है वन
बहुत ही रमणीय पावन और पवित्र 
गोप गोपियों और गायों के मनभावन 
हरा भरा है इक निकुंज 
वृंदा देवी का पूजन कर 
गोवर्धन की तलहटी में
सबने जाकर किया है निवास 
वृन्दावन का मनोहारी दृश्य
है सबके मन को भाया 
राम और श्याम तोतली वाणी में
बालोचित लीलाओं का सबने है आनंद उठाया 
ब्रजवासियों को आनंद सिन्धु में डुबाते हैं 
कहीं ग्वाल बालों के संग
कान्हा बांसुरी बजाते हैं
कभी उनके संग बछड़ों को चराते हैं
कहीं गुलेल के ढेले फेंकते हैं
कभी पैरों में घुँघरू बांध 
नृत्य किया करते हैं
कभी पशु पक्षियों की बोलियाँ 
निकाला करते हैं
तो कहीं गोपियों के 
दधि माखन को खाते हैं
नित नए नए कलरव करते हैं
कान्हा हर दिल को 
आनंदित करते हैं 



जब कान्हा पांच बरस के हुए
हम भी बछड़े चराने जायेंगे
मैया से जिद करने लगे
बलदाऊ से बोल दो 
हमें वन में अकेला ना छोडें
यशोदा ने समझाया
लाला , बछड़े चराने को तो
घर में कितने चाकर हैं 
तुम तो मेरी आँखों के तारे हो
तुम  क्यों वन को जाते हो
इतना सुन कान्हा मचल गए
जाने ना दोगी तो 
रोटी माखन ना खाऊँगा
कह हठ पकड़ ली  
यशोदा बाल हठ के आगे हार गयी
और शुभ मुहूर्त में 
दान धर्म करवाया 
और ग्वाल बालों को बुलवाया
श्यामसुंदर को उन्हें सौंप दिया
और बलराम जी को साथ में 
भेज दिया
जब कंस ने जाना 
नंदगोप ने वृन्दावन में
डाला बसेरा है 
तब उसने वत्सासुर राक्षस को भेज दिया
बछड़े का रूप रखकर आया है
और बछड़ों में मिलकर
घास चरने लगा है
उसे देख बछड़े डर कर भागने लगे
पर श्यामसुंदर की निगाह से
वो ना बच पाया है
उसे पहचान केशव मूर्ति ने कहा 
बलदाऊ भैया ये 
कंस का भेजा राक्षस है 
बछड़े का रूप धर कर आया है
चरते - चरते वो 
कृष्ण के पास पहुँच गया 
तब कान्हा ने उसका
पिछला पैर पकड़ 
घुमा कर वृक्ष की जड़ पर पटका 
एक ही बार में प्राणों का 
उसके अंत हुआ है
यह देख देवताओं ने पुष्प बरसाए हैं
ग्वालबाल भी उसका अंत देख हर्षाये हैं


क्रमशः ...........

Tuesday, January 17, 2012

कृष्ण लीला ........भाग 33


इक दिन फल बेचने वाली आई है
जन्म -जन्म की आस में
मोहन को आवाज़ लगायी है
अरे कोई फल ले लो
आवाज़ लगाती फिरती है
मगर आज ना टोकरा खाली हुआ
एक भी फल ना उसका बिका
रोज का उसका नित्य कर्म था
प्रभु दरस की लालसा में 
नन्द द्वार पर आवाज़ लगाती थी
और दरस ना  पा 
निराश हो चली जाती थी
मगर आज तो 
अँखियों में नीर भरा है
करुण पुकार कर रही  है
वेदना चरम को छू रही है 
स्वयं का ना भान रहा 
सिर्फ मोहन के नाम की रट लगायी है
कब दोगे दर्शन गिरधारी
कब होगी कृपा दासी पर
इक झलक मुझे भी दिखलाओ
जीवन मेरा भी सफल बनाओ
कातर दृष्टि से द्वार को देख रही है 
मोहन के दरस को तरस रही है
दृढ निश्चय आज कर लिया है
जब तक ना दर्शन होंगे
यहीं बैठी रहूंगी
जब मोहन ने जान लिया
आज भक्त ने हठ किया है
तो अपना हठ  छोड़ दिया
यही तो प्रभु की भक्त वत्सलता है
प्रेम में हारना ही प्रभु को आता  है
पर भक्त का मान रखना ही प्रभु को भाता है 
भक्त के प्रेम पाश में बंधे दौड़ लिए हैं
मैया से बोल उठे हैं
मैया मैं तो फल लूँगा
पर मैया बहला- फुसला रही है
इतने घर में फल पड़े हैं
वो खा लो लाला
पर कान्हा ने आज बाल हठ पकड़ा है 
मैं तो उसी के फल खाऊंगा
लाला पैसे नहीं है कह मैया ने समझाना चाहा
पर कान्हा ने ना एक सुनी
किसी तरह ना मानेंगे जब मैया ने जाना
तब बोली मैया पूछो उससे 
क्या अनाज के बदले फल देगी
इतना सुन कान्हा किलक गए हैं
अंजुलियों  में अनाज भर लिया है 
ठुमक - ठुमक कर दौड़े जाते हैं
अनाज भी हथेलियों से गिरता जाता है
मगर कान्हा दौड़ लगाते आवाज़ लगाते हैं 
रुकना फलवाली मैं आता हूँ 
बाहर जाकर फलवाली से कहते हैं
मैया फल दे दो 
तोतली वाणी सुन 
मालिन  भाव विह्वल हुई जाती है
और कहती है
लाला एक बार फिर मैया कहना
और कान्हा फिर पुकारने लगते हैं
मैया फल दे दो ना
बार - बार यही क्रम दोहराती है
प्रभु की रसमयी वाणी सुन 
जीवन सफल बनाती है
आज जन्मों की साध पूरी हुई है
नेत्रों की प्यास तृप्त हुई है
अश्रु धारा बह रही है
प्रभु का दीदार कर नेत्र रस पी रही है 
अपना सब कुछ न्यौछावर कर देती है
कान्हा के हाथों पर फल रख देती है
ना जाने उन छोटे- छोटे हाथों में
कौनसा करिश्मा समाया था
सुखिया मालन के सभी फलों ने
आज कान्हा के हाथों में स्थान पाया था
पर कान्हा उससे पहले जो 
अनाज लेकर आये थे
वो छोटी- छोटी अंजुरियों में 
समा ना पाया था 
रास्ते भर बिखरता आया था
सिर्फ दो चार दाने ही बचे थे
उन्हें ही टोकरी में रख देते हैं
और उसके फल लेकर
पुलक- पुलक कर 
आनंदित हो अन्दर चल देते  हैं
मगर आज उस मालिन का 
भाग्योदय हो गया था
वो तो आल्हादित हो रही थी
प्रभु प्रेम में मगन हो रही थी
अब ना कोई साध बची थी
नाचती- गाती घर को गयी थी 
मगर जो टोकरी फलों की रोज उठाती थी
वो ना आज उससे चल रही थी
जैसे - तैसे घर को पहुंची थी
और जैसे ही टोकरी उतारी थी
वो तो मणि- माणिकों से भरी पड़ी थी 
ये देख वो रोने लगी 
अरे लाला मैंने तुझसे ये कब माँगा था
बस तेरे दीदार की लालसा बांधी थी
हर आस तो पूरी  हो गयी थी
पर तू कितना दयालू है
ये आज तूने बतला दिया
और मुझे अपना ऋणी बना लिया 
ये प्रभु की भक्त वत्सलता है
कितना वो भी प्यार पाने को तरसता है
इस प्रसंग से ये ही दर्शाया है
जिसमे ना लेश मात्र स्वार्थ ने स्थान पाया है
सिर्फ प्रेम ही प्रेम समाया है 
बस निस्वार्थ प्रेम ही तो प्रभु के मन को भाया है 
जो एक बार उनका बन जाता है
फिर न दरिद्र रह पाता है 
उसका तो भाग्योदय हो जाता है
जिसने नामधन पा लिया
कहो तो उससे बढ़कर 
कौन धनवान हुआ 
बस यही तो दर्शाना था
सभी को तो प्रभु ने 
संतुष्ट करके जाना था
हर मन की साध को 
पूर्णता प्रदान करना 
प्रभु की भक्तवत्सलता दर्शाता है 
फिर ओ रे मन तू 
उस प्रभु से क्यों न प्रेम बढाता है 

क्रमशः ..................

कृष्ण लीला ........भाग 33


इक दिन फल बेचने वाली आई है
जन्म -जन्म की आस में
मोहन को आवाज़ लगायी है
अरे कोई फल ले लो
आवाज़ लगाती फिरती है
मगर आज ना टोकरा खाली हुआ
एक भी फल ना उसका बिका
रोज का उसका नित्य कर्म था
प्रभु दरस की लालसा में 
नन्द द्वार पर आवाज़ लगाती थी
और दरस ना  पा 
निराश हो चली जाती थी
मगर आज तो 
अँखियों में नीर भरा है
करुण पुकार कर रही  है
वेदना चरम को छू रही है 
स्वयं का ना भान रहा 
सिर्फ मोहन के नाम की रट लगायी है
कब दोगे दर्शन गिरधारी
कब होगी कृपा दासी पर
इक झलक मुझे भी दिखलाओ
जीवन मेरा भी सफल बनाओ
कातर दृष्टि से द्वार को देख रही है 
मोहन के दरस को तरस रही है
दृढ निश्चय आज कर लिया है
जब तक ना दर्शन होंगे
यहीं बैठी रहूंगी
जब मोहन ने जान लिया
आज भक्त ने हठ किया है
तो अपना हठ  छोड़ दिया
यही तो प्रभु की भक्त वत्सलता है
प्रेम में हारना ही प्रभु को आता  है
पर भक्त का मान रखना ही प्रभु को भाता है 
भक्त के प्रेम पाश में बंधे दौड़ लिए हैं
मैया से बोल उठे हैं
मैया मैं तो फल लूँगा
पर मैया बहला- फुसला रही है
इतने घर में फल पड़े हैं
वो खा लो लाला
पर कान्हा ने आज बाल हठ पकड़ा है 
मैं तो उसी के फल खाऊंगा
लाला पैसे नहीं है कह मैया ने समझाना चाहा
पर कान्हा ने ना एक सुनी
किसी तरह ना मानेंगे जब मैया ने जाना
तब बोली मैया पूछो उससे 
क्या अनाज के बदले फल देगी
इतना सुन कान्हा किलक गए हैं
अंजुलियों  में अनाज भर लिया है 
ठुमक - ठुमक कर दौड़े जाते हैं
अनाज भी हथेलियों से गिरता जाता है
मगर कान्हा दौड़ लगाते आवाज़ लगाते हैं 
रुकना फलवाली मैं आता हूँ 
बाहर जाकर फलवाली से कहते हैं
मैया फल दे दो 
तोतली वाणी सुन 
मालिन  भाव विह्वल हुई जाती है
और कहती है
लाला एक बार फिर मैया कहना
और कान्हा फिर पुकारने लगते हैं
मैया फल दे दो ना
बार - बार यही क्रम दोहराती है
प्रभु की रसमयी वाणी सुन 
जीवन सफल बनाती है
आज जन्मों की साध पूरी हुई है
नेत्रों की प्यास तृप्त हुई है
अश्रु धारा बह रही है
प्रभु का दीदार कर नेत्र रस पी रही है 
अपना सब कुछ न्यौछावर कर देती है
कान्हा के हाथों पर फल रख देती है
ना जाने उन छोटे- छोटे हाथों में
कौनसा करिश्मा समाया था
सुखिया मालन के सभी फलों ने
आज कान्हा के हाथों में स्थान पाया था
पर कान्हा उससे पहले जो 
अनाज लेकर आये थे
वो छोटी- छोटी अंजुरियों में 
समा ना पाया था 
रास्ते भर बिखरता आया था
सिर्फ दो चार दाने ही बचे थे
उन्हें ही टोकरी में रख देते हैं
और उसके फल लेकर
पुलक- पुलक कर 
आनंदित हो अन्दर चल देते  हैं
मगर आज उस मालिन का 
भाग्योदय हो गया था
वो तो आल्हादित हो रही थी
प्रभु प्रेम में मगन हो रही थी
अब ना कोई साध बची थी
नाचती- गाती घर को गयी थी 
मगर जो टोकरी फलों की रोज उठाती थी
वो ना आज उससे चल रही थी
जैसे - तैसे घर को पहुंची थी
और जैसे ही टोकरी उतारी थी
वो तो मणि- माणिकों से भरी पड़ी थी 
ये देख वो रोने लगी 
अरे लाला मैंने तुझसे ये कब माँगा था
बस तेरे दीदार की लालसा बांधी थी
हर आस तो पूरी  हो गयी थी
पर तू कितना दयालू है
ये आज तूने बतला दिया
और मुझे अपना ऋणी बना लिया 
ये प्रभु की भक्त वत्सलता है
कितना वो भी प्यार पाने को तरसता है
इस प्रसंग से ये ही दर्शाया है
जिसमे ना लेश मात्र स्वार्थ ने स्थान पाया है
सिर्फ प्रेम ही प्रेम समाया है 
बस निस्वार्थ प्रेम ही तो प्रभु के मन को भाया है 
जो एक बार उनका बन जाता है
फिर न दरिद्र रह पाता है 
उसका तो भाग्योदय हो जाता है
जिसने नामधन पा लिया
कहो तो उससे बढ़कर 
कौन धनवान हुआ 
बस यही तो दर्शाना था
सभी को तो प्रभु ने 
संतुष्ट करके जाना था
हर मन की साध को 
पूर्णता प्रदान करना 
प्रभु की भक्तवत्सलता दर्शाता है 
फिर ओ रे मन तू 
उस प्रभु से क्यों न प्रेम बढाता है 

क्रमशः ..................