Sunday, September 30, 2012

मेरे घर श्याम आ गये

सुना है जब किसी संत का घर मे आगमन होता है तो बस वो ही क्षण पावन होता है और इस कलिकाल मे वो संतों के रूप मे ही पधारते हैं।बस आनन्दविभोर करने वाले क्षण थे ।सात दिन कहाँ और कैसे गुजरे पता ही नही चला ।शायद यही ईश्वर की असीम अनुकम्पा होती है ।(23 सितम्बर - 30 सितम्बर श्री मद भागवत सप्ताह )  और जब महाराज श्री का आगमन हुआ तो बस यूँ लगा जैसे वो कन्हैया ही इस रूप मे आ गया है फिर भावों का उदय तो होना ही था इस रूप मे …………


मेरे घर श्याम आ गये
मेरे घनश्याम आ गये
अपनी मोहिनी छटा बिखरा गये
मेरे घर श्याम आ गये

श्याम जब आये संग सखियाँ भी लाये

मेरे बृजमंडल मे आनन्द छाये
चहुँ ओर मंगल ध्वनि बिखराये
सबके साथ रास रचा गये
मेरे घर श्याम आ गये

विदुरानी सम भोग लगाये

शाक रज - रज कर खाये
मुरली भी मधुर सुनायें
प्रेम की हर रीत निभा गये
मेरे घर श्याम आ गये

बतियाँ कैसी मधुर बनायें

पल मे हँसायें पल मे बहलायें
सबको अपना दीवाना बनायें
हाथ पकड मधुबन मे नचा गये
मेरे घर श्याम आ गये………

Wednesday, September 26, 2012

कृष्ण लीला रास पंचाध्यायी………भाग 69


जब विरह की उच्चतम अवस्था हुई
और प्रभु ने देखा
अब ये बस मेरी हुईं
तभी प्रभु ने खुद को प्रकट किया
यहाँ एक कारण नज़र आता है
प्रभु के अंतर्धान होने का
वो बतलाना चाहते हैं
जो गोपियाँ  दिन रात
मेरे नाम की माला जपती थीं
जिनका मेरे सिवा ना दूजा ठिकाना था
उनकी परीक्षा लेने से भी ना चूकता हूँ
जिन्होंने सर्वस्व  समर्पण किया था
उनको भी किसी भी मोड़ पर
परीक्षा में बैठा देता हूँ
तो जीव जो उनकी तरफ आते हैं
और अपने प्रेम का दावा करते हैं
तो उन्हें कैसे छोड़ सकता हूँ
प्रभु देखना चाहते हैं
ये कच्चा है या पक्का
क्या इसका भाव वास्तव में
प्रेम समर्पण का है
या अभी भी दुनियावी
बातों से भरा है
जब प्रभु ठोक बजाकर परख लेते हैं
तब उसे रास में शामिल कर लेते हैं
और उसका योगक्षेम स्वयं वहन कर लेते हैं

जब प्रभु ने जान लिया
अब ये प्राण छोड़ देंगी
पर विरह में ना जीवित रहेंगी
तब प्रभु ने उनकी अलौकिक प्रीति जान
स्वयं को प्रकट किया
खिले कमल सा प्रभु का मुखकमल
वैजयंती माला पहने
मंद मंद मुस्कुराते
मुरली मधुर बजाते
प्रभु का जब दर्शन किया
गोपियों में प्राणों का संचार हुआ
ज्यों रेत पर पड़ी मीन पर
बरखा ने जीवनदान दिया
सब गोपियों के ह्रदय आंगन  खिल उठे
कान्हा को सबने घेर लिया
किसी गोपी ने उनका हाथ पकड़ लिया
किसी ने उनका चरण स्पर्श किया
किसी ने उन्हें नेत्र द्वार से
ह्रदय में बिठा लिया
और नेत्र बंद कर
अन्दर ही अन्दर उनका
आलिंगन कर
प्रेम समाधि में डूब गयी
कोई गोपी अपने कटाक्ष बाणों से
बींधने लगी
कोई गोपी प्रेम गुहार करने लगी
तो कोई गोपी निर्मिमेष नेत्रों से
प्रभु के मुखकमल का
मकरंद रस पान करने लगी
फिर भी ना ह्रदय तृप्त होता है
सभी गोपियों ने प्रभु में ध्यान लगाया है
जिसे देख उनका ह्रदय हर्षाया है
प्रभु विरह की वेदना से
जो दुःख उपजा था
वो अब दूर हुआ था
परम शांति का गोपियों को
अनुभव हुआ था
प्रभु के दर्शन से
गोपियाँ पूर्णकाम हुईं
इतना आनंदोल्लास हुआ
ह्रदय की सारी आधि व्याधि मिट गयी
अब गोपियों ने चन्दन केसर युक्त
अपनी ओढनी बिछा
प्रभु को विराजमान किया
जिन प्रभु को योगसाधन से भी
पवित्र ह्रदय में
ऋषि मुनि ना
ह्रदय सिंहासन पर बैठा पाते हैं
वो कृष्ण आज प्रेम के वशीभूत हो
यमुना की रेती में
गोपियों की ओढनी पर बैठे दिखाई देते हैं
ये ही तो प्रेम की सगाई है
जो सिर्फ गोपियों ने ही निभाई है
प्रभु के संसर्ग का , संस्पर्श का
गोपियाँ आनंद लेती हैं
और कभी कभी कह उठती हैं
कितना सुकुमार है
कितना मधुर है
और मन ही मन
प्रभु के छिपने से नाराज होने का
अभिनय कर उन्हें
दोष स्वीकारने को कहती हैं
गोपियों ने यहाँ प्रभु से प्रश्न किया
हे नटवर ज़रा इतना तो बतलाना
कुछ लोग ऐसे होते हैं
जो प्रेम करने वालों से ही प्रेम करते हैं
और कुछ लोग
प्रेम ना करने वालों से भी प्रेम करते हैं
परन्तु कोई कोई तो
दोनों से ही प्रेम नहीं करते हैं
प्यारे ज़रा बतलाओ
इन तीनों में से तुम्हें
कौन अच्छा लगता है ?
तब प्रभु ने जवाब यूँ दिया
गोपियों जो प्रेम करने पर प्रेम करे
ये तो सिर्फ स्वार्थियों का व्यापार हुआ
इसमें ना कोई सौहार्द हुआ
और ना ही धर्माचरण का पालन हुआ
जो लोग ना करने वालों से भी प्रेम करते हैं
वहाँ ही निश्छल सत्य और पूर्ण धर्म का पालन हुआ
जैसे सज्जन, माता पिता , करुणाशील लोग
बिना कारण दया करते हैं
और सबके परम हितैषी होते हैं
कुछ ऐसे होते हैं
जो प्रेम करने वालों से भी
प्रेम नहीं करते
और प्रेम ना करने वालों का तो वहाँ
प्रश्न ही नहीं उठता है
ऐसे लोग भी चार प्रकार के होते हैं
एक जो निज स्वरुप में मस्त रहते हैं
जहाँ द्वैत का ना भास होता है
दूसरे वे जिन्हें द्वैत तो भासता है
पर वो कृतकृत्य हो चुके हैं
उनका ना फिर किसी से कोई प्रयोजन रहता है
तीसरे वे हैं जो जानते ही नहीं
हमसे कौन प्रेम करता है
और चौथे वे हैं जो जान बूझकर
अपना हित करने वालों को भी सताना चाहते हैं
उनसे भी द्रोह रखते हैं
गोपियों मैं तो प्रेम करने वालों से भी
प्रेम का वैसा व्यवहार ना कर पाता हूँ
जैसे करना चाहिए
और ऐसा मैं इसलिए करता हूँ
ताकि उनकी चितवृत्ति मुझमे लगी रहे
निरंतर मेरा ही ध्यान उन्हें बना रहे
इसलिए ही उन्हें
मिल मिल कर छुप  जाता हूँ
और इस तरह
उनका प्रेम बढाता हूँ
निस्संदेह तुम लोगों ने
लोग मर्यादा वेदमार्ग
सगे सम्बन्धियों को त्यागा है
तभी मुझे पाया है
अब तुम्हारी मनोवृत्ति
मुझमे लगी रहे
निरंतर मेरा ही चिंतन तुम्हें होता रहे
इसलिए परोक्ष रूप से
तुमसे प्रेम करता हुआ भी
मैं छुप गया था
इसलिए मेरे प्रेम में
तुम ना दोष निकलना
तुम मेरी सर्वथा प्यारी हो
जन्म जन्म के लिए
तुम्हारा ऋणी हुआ  हूँ
क्योंकि तुमने उन बेड़ियों को तोडा है
जिसे बड़े बड़े ऋषि मुनि भी ना तोड़ पाते हैं
यदि मैं अपने अमर शरीर से
अमर जीवन से
अनंत काल तक
तुम्हारे प्रेम, सेवा और त्याग का
बदला चुकाना चाहूँ
तो भी ना चुका सकता हूँ
और तुम्हारे ऋण से ना कभी
उऋण हो सकता हूँ
प्रभु के मुख से उनकी
सुमधुर वाणी सुन
जो विरह्जन्य ताप शेष था
उससे गोपियाँ मुक्त हुईं
अब प्रभु ने यमुना के पुलिन पर
गोपियों संग रासलीला प्रारंभ की 


क्रमश:…………

Sunday, September 23, 2012

राधे राधे तेरे दर्शन को हम हैं प्यासे

 
 
राधे राधे तेरे दर्शन को हम हैं प्यासे
जल्दी आ मन उपवन मे ………नैना भये उदासे
साथ मे मोहन को भी लाना
हिल मिल फिर बंसी बजाना
करो कलोल मिल बांके
राधे राधे तेरे दर्शन को हम हैं प्यासे



मेरे मन मधुबन मे डेरा लगाना
श्याम के संग रास रचाना
मुझे भी अपनी सखी बनाना
मधुर रस बरसा के
राधे राधे तेरे दर्शन को हम हैं प्यासे



अव्यक्त को व्यक्त कर जाना
मुझे भी अपना दरस कराना
प्रेम रस ज़रा छलकाना
प्रेम सुधा के हम प्यासे
राधे राधे तेरे दर्शन को हम हैं प्यासे





Wednesday, September 19, 2012

कृष्ण लीला रास पंचाध्यायी………भाग 68


विरह अगन में गोपियाँ पुकारने लगीं
मधुदूदन तुमने हमारे लिए
तो है अवतार लिया
प्रभु भला फिर क्यूँ हमसे
मुँह फेर लिया
ये बृज की भूमि तुम्हें बुलाती है
तुम्हारी चरण रज की प्यासी है
तुमने तो बृज की खातिर
लक्ष्मी को भी
दासी बना दिया
बैकुंठ को भी ठुकरा दिया
अब क्यों देर लगाते हो
मोहन क्यों छुप छुप जाते हो
हमारी रक्षा को ही तो तुमने
इतने असुरों का संहार किया
जो हमें छोड़कर जाना था
फिर क्यों
बकासुर, अघासुर, वृत्तासुर , पूतना , तृणावर्त से था बचाया
क्यों दावानल की अग्नि से
तो कभी कालिया के विष से
तो कभी इन्द्र के कोप से
तुमने था बचाया
देखो तुम्हारे विरह में हम
बावली हुई जाती हैं
और उलटे सीधे आक्षेप लगाती हैं
पर प्रेम में इतना तो अधिकार होता है
प्रीतम को मनाने का
ये ही तो तरीका होता है
हे प्राणनाथ ! तुम्हारी मंद मंद मुस्कान पर
हम बलिहारी जाती हैं
गोधुली वेला में अधरों पर
वंशी सजाये
मोर मुकुट धारण किये
मुरली बजाते जब तुम
प्रवेश करते हो
उसी मनमोहिनी छवि के दर्शन को तो
दिन भर हमारे नैना तरसते थे
तुम्हारी अद्भुत झांकी देख
ह्रदय ज्वाला शांत हो जाती थी
मगर हाय ! प्यारे अब हम कहाँ जायें
कहाँ तुम्हें खोजें
हमसे बड़ी भूल हुई
कह गोपियाँ पछताती हैं
हे श्यामसुंदर ! क्यों छोड़ चले गए
कैसे छुए छुपे फिर रहे हो
जिन चरणों को
लक्ष्मी भी अपनी छाया से दबाती है
वो चरण आज
कंकड़ पत्थरों से भरे
ऊबड़ खाबड़ रास्तों पर चल रहे हैं
जिन चरणों से कालिया पर
नृत्य किया वो ही चरण
आज वनों की कंटकाकीर्ण
कुश, झाडी से लहूलुहान होते होंगे
हमारी गलती की सजा उन्हें मत दो
इन्हें चरण कमलों पर तो
हमारे नयन गड़े रहते हैं
आपकी हम चरण दासी हैं
हे स्वामी ! प्रकट हो जाओ
और अपने चरण कमल
हमारे वक्षस्थल पर रख
विरह ज्वाल शांत करो
हा गोपीनाथ! अपने नाम की लाज रखो
हा मदनमोहन ! यूँ कठोरता ना तुम्हें शोभा देती है
हम अपने बधू बांधव
पति बच्चे
सब छोड़ कर आई हैं
यूँ ना हमारा बहिष्कार करो
गर तुमने ठुकरा दिया तो कहाँ जाएँगी
तुम्हारे बिना तो हम
यूँ ही मर जाएँगी
जब मरने की गोपियों ने बात कही
तो कहीं से आवाज़ आई
तो फिर मर क्यों नहीं जातीं ?
इतना सुन गोपियाँ बोल पड़ीं
अरे चितचोर! मरना तो हम चाहती हैं
तुम बिन एक सांस भी नहीं लेना चाहती हैं
पर जैसे ही मरने को उद्यत होती हैं
वैसे ही तुम्हारा भेजा कोई
संत आ जाता है
और तुम्हारी मधुर मंगलकारी कथा
सुनाने लगता है
तुम्हारी कथा रुपी अमृत ही
हमें जिला देता है
वरना तो ये शरीर प्राण विहीन  ही रहता है
प्राण तो तुम्हारे साथ गए हैं
यहाँ तो बस मिटटी को रख गए हैं
तुम्हारे नाम का अमृत ही
मिटटी में प्राण फूंकता है
हा राधारमण! अब तो दर्श दो गिरधारी
हम हैं तुम्हारी बिना मोल की दासी
अपनी मधुर वंशी की धुन सुना दो
हमें भी अपनी वंशी बना
अधरों पर सजा लो
हे प्यारे ! हमें प्रेमामृत पिलाओ
अब जी सो की
आगे ना कोई गलती होगी
कह गोपियाँ करुण स्वर से विलाप करने लगीं
जब -जब वेदना चरम पर पहुँच गयी
तब -तब एक- एक ठाकुर का प्रकटीकरण हुआ
हा गोपीनाथ! हा राधारमण ! हा मदनमोहन !
ऐसे पांच बार जब
विरह वेदना हर सीमा को लाँघ गयी
और गोपियों ने पुकारा
तब पांच ठाकुर प्रकट हुए
जिनमे से तीन आज भी
वृन्दावन में आसान जमाये हैं
दो दूसरे राज्यों में पहुँच गए हैं


क्रमश:…………

Tuesday, September 18, 2012

मीरा होना आसान नही



मीरा होना आसान नही
मीरा बन जाओ तो बताना
देखो तुम्हे एक दिन है दिखाना
मीरा यूँ ही नही बना करतीं
श्याम को पति यूँ ही वरण नही किया करतीं
प्रेम दीवानी , मतवाली बन
गली गली यूँ ही अलख नही जगाया करती
मीरा बनने से पहले
खुद को मिटाना होगा
मीरा बनने से पहले
श्याम को रिझाना होगा
मीरा बनने से पहले
विष पी जाना होगा
ना केवल पीने वाला
बल्कि सांसारिक कटु
आलोचनाओं का विष
संबंधियों द्वारा ठुकराये जाने का विष
अपनों के विश्वास के
उठ जाने का विष
क्या तैयार हो तुम
ए कर्मभूमि के वासियों
मीरा बनने के लिए........
जहाँ पति को पत्नी में
सिर्फ औरत ही दिखती है
जहाँ औरत में समाज को
एक अबला ही दिखती है
जहाँ सिर से पल्लू उतरने पर
बवाल मच जाया करता है
जहाँ कन्याओं को गर्भ में ही
मार दिया जाता है
तो कभी चरित्रहीन करार
दिया जाता है
तो कभी प्रेम करने के जुर्म में
ऑनर किलिंग की सजा का
हकदार बना दिया जाता है
तो कभी अकेली स्त्री से
व्यभिचार किया जाता है
फिर चाहे वो किसी भी उम्र की क्यों ना हो
बच्ची हो या बूढी या जवाँ
सिर्फ लिंग दोहन की शिकार होती है
और उफ़ करने की भी
ना हक़दार होती है
क्या ऐसे समाज में
है किसी में हिम्मत मीरा बनने की
गली गली विचरने की
है मीरा जैसा वो पौरुष
वो ललकार , वो आत्मसमर्पण
जिसने अपना सर्वस्व श्याम को अर्पित कर दिया
और निकल पड़ी हाथ में वीणा संभाले
जिसे ना संसार में श्याम के अलावा
दूजा पुरुष दिखा
ऐसा नहीं कि उस वक्त राहें सरल थीं
शायद इससे भी गयी गुजरी थीं
नारी के लिए तो हमेशा समाज की दृष्टि
वक्र ही रही है
तो क्या मीरा ने ये सब ना झेला होगा
जरूर झेला होगा
किया होगा प्रतिकार हर रस्म-ओ-रिवाज़ का
और दिया होगा साथ अपने श्याम का
फिर कैसे वो विमुख रह सकते थे
कैसे ना वो मीरा का योगक्षेम वहन करते
लेकिन सर्वस्व समर्पण सा वो भाव
आज तिरोहित होता है
बस हमारा ये काम हो जाये
हमारा वो काम हो जाए
इसी में हम जीवनयापन करते हैं
तो कैसे मीरा बन सकते हैं
कैसे श्याम को रिझा सकते हैं
मीरा बनने के लिए मीरा भाव जागृत करना होगा
और मीरा भाव जागृत करने के लिए
मीरा को आत्मसात करना होगा
और मीरा को आत्मसात करने के लिए
खुद को राख बनाना होगा
और उस राख का फिर तर्पण करना होगा
तब कहीं जाकर मीरा का एक अंश प्रस्फुटित होगा
तब कहीं जाकर मीरा भाव से तुम्हारा ह्रदय द्रवीभूत होगा
यूँ ही मीरा नहीं बना जाता
यूँ ही नहीं श्याम को रिझाया जाता


Friday, September 14, 2012

कृष्ण लीला रास पंचाध्यायी……भाग 67



इधर गोपियाँ विलाप करतीं
चरण चिन्हों को देखतीं
वन वन भटक रही थीं
उधर कृष्ण जिस गोपी को
साथ लेकर गए थे
उसने समझा "मैं" सब गोपियों में श्रेष्ठ हूँ
इसलिए तो प्यारे सबको छोड़
मेरा मान रखते हैं
और मुझे इतना चाहते हैं
तभी अपने साथ लाये हैं
गोपियों को अभिमान हुआ था
और राधा रानी को मान
सौभाग्य  के मद में  मतवाली हो
कृष्ण से कहने लगीं
मुझसे अब चला जाता नहीं
तुम मुझे कहाँ लिए जाते हो
कान्हा बोले जहाँ मैं चलता हूँ
तुम मेरे साथ चलो
मैं तो थक गयी हूँ राधा ने इज़हार किया
सुन प्रभु ने उपाय बताया
मेरे कंधे पर चढ़ जाओ
और जैसे ही प्रभु झुके
और राधा रानी बैठने को उद्यत हुईं
वैसे ही प्रभु नीचे से अंतर्धान हुए
इस लीला का भी बड़ा विलक्षण भाव है
राधा रानी ने सोचा
अगर मैं प्रभु के साथ चली गयी तो
गोपियों को प्रभु कभी ना मिलेंगे
और वो विरह वेदना में दग्ध हो जाएँगी
ये सोच राधा रानी ने
थके होने का स्वांग रचा
और सब गोपियों पर
अपनी विलक्षण कृपा का आह्वान किया
यूँ ही थोड़े राधा को
प्रेम माधुरी कहा जाता है
प्रेम का महासागर है वो
किसी भी प्रेमी की पुकार पर
दौड़ी चली आती हैं
खुद दुःख उठाती हैं
पर कृष्ण से जरूर मिलवाती हैं
गर कान्हा का पता पाना हो
तो राधा को बुलाना होगा
अपना दुखड़ा सुनाना होगा
तभी प्रियतम का दरस पाना होगा
जैसे ही प्रभु अंतर्धान हुए
राधा प्यारी विकल हो पुकारने लगीं
हा नाथ ! हा प्राण प्यारे
तुम कहाँ गए
मुझे अकेला किसके सहारे छोड़ गए
श्याम तुम कहाँ गए?
जैसे मणि खोने पर सर्प
विकल हो जाता है
वैसा ही हाल आज राधा का होता है
अपनी दासी समझ मेरी
सुध ले लो श्याम
मुझे अपनी शरण में ले लो श्याम
राधा विरह में व्याकुल हो पुकारती हैं
रुदन देख वन के पशु पक्षी और वृक्ष भी रोने लगते हैं
राधा की प्रीत में खोने लगते हैं
तभी चरण चिन्हों का
अवलोकन करतीं
गोपियाँ वहाँ पहुँच गयीं
और राधे को रोती देख
उसके समीप गयीं
क्या तुम्हें भी श्यामसुंदर
छोड़ गए राधा ?
हाँ गोपियों ,मैंने थोडा मान किया
तुमने थोडा अभिमान किया
ये मोहन को नागवार गुज़रा
और तुम संग मुझे भी अकेला छोड़ गए
कह विलाप करने लगीं
अब तो गोपियों का बुरा हाल हुआ
मधुसूदन बिना जीना बेहाल हुआ
उनका तो कान्हा को
याद करते करते
सारा शरीर कृष्णमय हुआ
तन मन वचन से
कृष्णमय हो गयीं
वाणी कृष्ण गान करने लगी
मन चितचोर को ढूँढने लगा
तन का ना कोई होश रहा
सुध बुध  भूल गोपियाँ
वन वन भटकने लगीं
कृष्ण नाम की माला जपने लगीं
जरा कहीं पीत वर्ण दिखता
पीताम्बरी का आभास कर
उस ओर दौड़ पड़तीं
और कुछ ना मिलने पर
अचेत हो गिर पड़तीं
होश आने पर फिर
कान्हा नाम जपने लगतीं
कुञ्ज लताओं में
मोहन को खोजने लगतीं
कहीं कोई मधुर ध्वनि सुनाई पड़ती
गोपियों को बंसी की तान ही लगती
और गोपियाँ चित्रलिखि सी
खडी रह जातीं
घंटों यूँ ही खडी रहतीं
तन की ना कोई सुधि रहती
ये प्रेम के ढाई अक्षर का कमाल था
प्रीतम के बिना प्यारी का ये हाल था
अपना पता चलता  ना था
उनका पता मिलता ना था
प्रीत का कैसा हाल हुआ था
रोम रोम कृष्ण नाम जपता था
जब विरह वेदना में गोपियाँ बेहाल हुयें
तब राधा रानी ने उन्हें समझाया
देखो यूँ वन वन भटकने से
कुछ नहीं होने वाला
जो चीज जहाँ पर खोती है
वो वहीँ पर वापिस मिलती है
गोपियों  चलो  यमुना की रेती में
वहीं हम आराधना करती हैं
और मोहन को खोजती हैं
मानो राधा कह रही हों
यमुना है भक्ति
और जब तक भक्ति नहीं करोगे
शक्ति कहाँ से आएगी
और शक्ति बिना कैसे
शक्तिमान को पाओगी
तब सभी गोपियाँ यमुना किनारे पहुँच गयीं
सबने अपनी अपनी चूनर उतारकर
सिंहासन बना दिया
और गहन भक्तिभाव में डूब गयीं


 क्रमश:…………

Wednesday, September 12, 2012

पीर प्रसव की............

पीर प्रसव की
यूं ही तो नहीं होती है
इसमें भी तो
इक चाहत जन्म लेती है
और जन्म किसी का भी हो
पीर बिना ना हो सकता है
यही तो प्रसव का सुख होता है
गर करें विचार शुरू से
तो बीजारोपण से लेकर प्रसव वेदना तक
एक सफ़र ही तो तय होता है
जो नयी संभावनाओं को जन्म देता है
तो क्यों ना आज
सफ़र का दिग्दर्शन किया जाए
प्रसव वेदना तक के सफ़र को टंकित किया जाए

यूँ तो ये अटल सत्य है

बिना बीज के ना अंकुरण होता है
सो बीज तो रोपित हुआ ही होगा
फिर चाहे उसके लिए
रूप जन्मों ने बदले होंगे
शिलाओं पर लेख लिखे होंगे
मगर कब और कैसे
इसका ना हम निर्धारण कर पाते हैं
बस सफ़र में चलते चले जाते हैं
कब कैसे कहाँ से खाद पानी मिलता रहा
किसने उसे पोषित किया
ये ना बेशक हम जान पाए
मगर कहीं ना कहीं हम ही उसका माध्यम बने
आंवल नाल से जुड़ने के बाद
चिंता सारी मिट जाती है
भ्रूण को उसकी खुराक तो
हर कीमत पर मिल ही जाती है
यूँ सफ़र जारी रहता है

प्रथम द्वितीय और तृतीय महीने

सुना है बेहद संवेदनशील होते हैं
शायद यही तो आराधना का शैशवकाल होता है
जहाँ भ्रूण ना परिपक्व होता है
सारा दारोमदार माता पर ही होता है
उसे ही उसके प्रति फिक्रमंद रहना पड़ता है
और साधक की साधना को दुरुस्त रखने को
अनुभूति का संचार करना पड़ता है
अनुभूति क्या होती है ............
ये तो ह्रदय की धड़कन होती है
जो बालक की पहचान बनती है
जो बालक के जीवन को दिशा देती है
जब अनुभूति का आगमन होता है
उत्साह द्विगुणित होता है
मन प्रसन्न प्रफुल्लित होता है
क्योंकि अब तक भ्रूण भी
अपनी शैशवावस्था से बाल्यावस्था
की ओर पदार्पण करने लगता है

चतुर्थ , पंचम और षष्ठ महीनो में

बालक आकार लेता है
यही तो साधक के जीवन का
सबसे उत्तम सोपान होता है
अपनी साधना में रत वो
देवता का आह्वान करता है
रो कर , रूठकर , मनाकर
कभी इठलाकर तो कभी उलझाकर
कभी गाकर तो कभी नृत्यकर
मधुसुदन को मोहित करता है
और अपनी साधना के दूसरे
सोपान चढ़ता है
जहाँ ना कोई सहारा होता है
ना कश्ती का किनारा होता है
सिर्फ भावों की बेल ही अमरबेल बन
वटवृक्ष से लिपटती है
साधक जो भावों से परे
ज्ञान नैया में बैठ जाता है
वो ज़रा सी लहर से ही डूब जाता है
साधक जो कर्म की खेती करता है
उसमे भी कभी ना कभी
अहंकार का उदय हो जाता है
और बीच मझधार में ही
उसका गर्भपात हो जाता है
मगर साधक जो प्रभु को
समर्पित होता है
जीवन डोर उसके हाथ सौंप
निश्चिन्त होता है
वो ही अंत में भाव से पार होता है
जैसे भ्रूण का शैशवकाल ख़त्म होता है
वैसे ही वो बाल्यकाल में पदार्पण  करता है
तो माँ का दायित्व हो जाता है
खट्टा मीठा तीखा कड़वा
सोच समझ कर खाए
जिससे ना भ्रूण को कोई दुःख पहुंचे
जो ना उसके अस्तित्व को हानिकारक हो
वो ही क्रियाएं आजमाए
वैसे ही प्रभु भी अपने उस साधक का
ध्यान निरंतर करते हैं
जो सर्वस्व  समर्पित कर
भक्ति भाव से उनको भजता है
और यूँ उसका बाल्यकाल संपूर्ण होता है
फिर चाहे जन्म जन्मान्तरों के चक्कर लगते रहें
उसकी साधना में ना अवरोध उत्पन्न होता है
वहीँ से फिर शुरू हो जाती है
जहाँ से पिछले जन्मों में छुटी होती है
बस यही तो प्रभु की महती कृपा होती है

सप्तम , अष्टम और नवम महीने

फिर बहुत संवेदनशील होते हैं
जहाँ भ्रूण अपने बाल्यकाल से तरुणावस्था
को प्राप्त करता है
तभी तो उसमे समझ का संचार होता है
वो आदतें वो ही ग्रहण करता है
जैसा माँ  का व्यवहार होता है
दिमाग भी तभी आकार पाता है
यही समय तो होता है
जब माँ को विशेष ध्यान रखना होता है
कहीं गलती से भी कोई आचरण बिगड़ जाए
तो संस्कार ना वो मिट पायेंगे
जो जन्म के साथ ही बाहर आयेंगे
ऐसे ही प्रभु को भी ध्यान रखना होता है
जब साधक साधना की अंतिम अवस्था में होता है
जब साधक पूर्णता की ओर अग्रसित होता है
तब रिद्धि सिद्धियों का प्रकटीकरण होता है
जो लालच में फंसाती हैं
जन्मों के फेर में उलझाती हैं
मोह माया के बंधनों के दांव पेंच आजमाती हैं
जिसे साधक ना समझ पाता है
और वो उन्ही में उलझ जाता है
और उसे ही साधना की अंतिम परिणति समझ लेता है
जैसे माँ को कंसूले उठते हैं
तो लगता है जैसे अभी जन्म हुआ
वैसे ही भक्त का वो ऐसा ही समय होता है
ऐसे में किसी ज्ञानी संत की जरूरत होती है
जो इन बाधाओं से पार करता है
जैसे चिकित्सक बतलाता है
अभी समय नहीं आया है
बस आने वाला है
तब तक इंतज़ार करो
और पग संभल संभल कर रखो
ऐसे ही संत आखिरी पड़ाव में
मार्गदर्शन करते हैं
संत रूप में प्रभु ही भक्त की देखभाल करते हैं
ये बस रूप बदले होते हैं
साधना में परिपक्वता लाने के लिए
यूँ भी परीक्षा लेते हैं

जब नौ महीने का समय

व्यतीत हो जाता है
तब शिशु आगमन में
माँ का ह्रदय हिलोर खाता है
प्रतिक्षण एक ही इच्छा रहती है
कब जन्म होगा
कब उसे देखूँगी
कब उसे खिलाऊंगी
कब मेरी ममता सम्पूर्ण होगी
कब मेरे ममत्व को आधार मिलेगा
जो पयोरस  का वो पान करेगा
और जब वो वक्त आता है
तब पीर ना सहन हो पाती है
जान पर बन आती है
मगर शिशु दरस की लालसा में
माँ वो मृत्युतुल्य कष्ट भी सह जाती है
और शिशु को देखते ही
उसकी मुस्कान देख
उसका रुदन सुन
दुग्धपान कराते ही
उसकी सारी पीड़ा छू मंतर हो जाती है
वो प्रसव की वेदना भी भूल जाती है
कुछ ऐसी ही दशा भक्ति की होती है
जब साधना की अंतिम अवस्था होती है
प्रभु दरस की लालसा में
नित्य अश्रु बहाया करता है
उसका गुणगान किया करता है
चहुँ ओर उसके ही दर्शन किया करता है
कभी गाता है कभी नाचता है
प्रभु दरस की लालसा में यूँ बिलखता है
कि प्राण देने को आतुर हो जाता है
हर किसी के पाँव में वो पड़ जाता है
कोई पिया से मिलन करा दे
इसी आस में प्रतिक्षण गुजारने लगता है
और जब भक्ति की चरम सीमा आ जाती है
और पीर इतनी बढ़ जाती है
कि ह्रदय फटने को आतुर होता है
अपना पता भी ना उसे फिर चलता है
सोने खाने पीने का ना उसे होश होता है
क्या पहना है , क्या कर रहा है
इसका भी भान जब नहीं होता है
बस मुख में नाम और आँख से अश्रु बहते हैं
और शब्द ना मुख से निकलते हैं
दुनिया दीवाना कहने लगती है
पागल उपनाम पड़ने लगता है
वो ही तो प्रसव वेदना का अंतिम चरण होता है
फिर प्रभु भी ना रुक पाते हैं
दरस को दौड़े आते हैं
यूँ उसका साक्षात्कार होता है
और निराकार आकार पाता है
तब पीर सारी बह जाती है
अश्रुओं में ढल जाती है
मैं - तू का भेद मिट जाता है
खुद का खुद से मिलन हो जाता है
आत्मसाक्षात्कार हो जाता है
फिर चाहे ८४ लाख योनियों में ही
क्यों ना भटका हो वो
फिर चाहे साधना में ही क्यों ना अटका हो वो
फिर चाहे कितनी ही बार
योगभ्रष्ट क्यों ना बना हो वो
एक बार तो वो उस ड्योढ़ी को पार कर ही जाता है
जिसके उस तरफ उसे
दिव्यज्ञान मिल जाता है
पीड़ा का हरण हो जाता है
चहुँ ओर सिर्फ उजाला ही उजाला चमचमाता है
यूँ पीर प्रसव की सुखकर हो जाती है
जब दिव्य अनुभूति होती है
फिर ना कोई कारण बचता है
वो जन्मों के खेल से बाहर निकलता है
यही तो मनुष्य जीवन का प्रथम और अंतिम लक्ष्य होता है
जिसे कोई कोई ही जान पाता है
और इस पथ पर चल पाता है
क्योंकि यहाँ परीक्षाएं निरंतर होती हैं
और प्रसव वेदना को सहने में हर कोई ना समर्थ होता है
जो इस पीड़ा को सह जाता है वो फिर और ना कुछ चाहता है
हर चाह का अंत हो जाता है
आत्मसुख में वो डूब जाता है
जब आत्म परमात्म मिलन हो जाता है .......आनंद सागर लहराता है
बस रसानंद छा जाता है .......बस रसानंद छा जाता है

यूँ ही नहीं पीर प्रसव की सहने को कोई आतुर होता है ............




Saturday, September 8, 2012

कृष्ण लीला रास पंचाध्यायी ……भाग 66



जब प्रेम विरह में मतवाली हुईं
तब एक गोपी बोल पड़ी
सखियों देखो इन पशु पक्षियों को
ब्रज रज और वृक्षों को
ये सब ऋषि मुनि योगी हैं
प्रभु दरस की लालसा में
बने वियोगी हैं
इनसे पता हम पूछते हैं
जरूर इन्होने
श्यामसुंदर को देखा होगा
कृष्ण हमारा मन चुरा
डर कहीं छुप गए हैं
ए वृक्षों! क्या तुमने उन्हें
कहीं देखा है
ओ तुलसी ! तुम कितनी कोमल हो
प्रेम में सराबोर हो
तुमसे तो वो प्रेम करते हैं
जरूर तुम्हें पता होगा
क्या तुमने हमारे
चितचोर को देखा है
ए अनार ! तेरी दंतपंक्ति तो
खूब निकल रही है
लगा है तुमने जरूर
उन्हें देखा होगा
ए केला ! तुम्हारे नरम नरम
पत्तों पर ही तो
मोहन भोजन करते थे
जरूर तुम्हें उनका पता होगा
हे अशोक के वृक्ष ! तुम ही
अपने नाम को सार्थक करो
हम सब का शोक हरो
और हमारे प्यारे का पता बतला दो
या तो उनका पता बतला दो
नहीं तो अपना नाम बदल दो
हे चन्दन ! तुम्हें तो कान्हा
अपने अंगों पर लगाते हैं
तुम्हारे बिन ना रह पाते हैं
जरूर तुमने उन्हें देखा होगा
हे मालती , जूही , चमेली के फूलों
तुम्हारी मुस्काती मुख माधुरी बतलाती है
जरूर उन्होंने तुम्हारा स्पर्श किया है
ज़रा उनका पता तो बतलाओ
हे पृथ्वी ! तुम्हारे भार हरण को तो
मनहर प्यारे अवतरित हुए हैं
तुमसा बडभागी कौन होगा
जरूर तुम्हें उनका पता होगा
अरी लताओं ! कैसे तुमने
वृक्षों को आलिंगनबद्ध किया है
ये पुलक ये रोमांच जो तुम्हें हुआ है
जरूर हमारे प्यारे के नखों का
तुम्हें स्पर्श हुआ है
यूँ गोपियाँ मतवाली हो
प्रलाप करते करते
भगवद्स्वरूपरूप हो गयीं
और कृष्ण रूप ही बन गयीं
उनकी लीलाओं का अनुकरण करने लगीं



एक गोपी पूतना बन गयी
दूसरी कृष्ण
पूतना बनी गोपी ने
कृष्ण बनी गोपी को
अपने ऊपर डाल लिया
और पूतना मर गयी
पूतना मर गयी का आलाप किया
कोई गोपी शकटासुर
तो गोपी तृणाव्रत बन गयी
और प्रभु की दिव्य लीलाएं करने लगी
कोई गोपी बांसुरी  बजाने लगी
बाकी गोपियाँ उसकी प्रशंसा करने लगीं
कोई गोपी गोवर्धन धारण का अनुकरण करने लगी
और अपनी ओढनी तान कर
ब्रजवासियों की रक्षा करने लगी
कोई गोपी कालिय नाग
तो कोई गोपी कृष्ण बन
उसके ऊपर नृत्य करने लगी
कोई गोपी यशोदा
तो कोई कृष्ण बनी
और प्रभु की ऊखल लीला का
अनुसरण करने लगीं
जब लीला करते करते भी
कृष्ण का ना पता चला
तब चलते चलते एक जगह
कृष्ण चरण चिन्ह  दिखा
अवश्य ये उन्ही के चरण चिन्ह हैं
देखो ध्वजा  , कमल , बज्र
और अंकुश
जो आदि चिन्ह स्पष्ट दीखते हैं
थोडा आगे बढ़ने पर
स्त्री के चरण चिन्ह साथ दिखे
अब गोपियाँ व्याकुल हो
बतियाने लगीं
कौन बडभागिनी है जो
मोहन के मन को भायी है
किस देवी देवता की तपस्या
से उन्हें रिझायी है
जरूर उनकी प्यारी
आराधिका के चरण चिन्ह  हैं
जिसकी रज वो स्वयं
मस्तक पर धारण करते हैं
वो सखी जरूर श्यामा प्यारी है
जिनके संग मोहन प्रेमालाप करते हैं
और हम वियोगिनी सी बन
वन वन भटकती फिरती हैं
यूँ विरह वेदना में  बतियाती गोपियाँ
आगे बढती जाती हैं
कुछ दूर जाने पर
चरण चिन्ह ना नज़र आते हैं
तब गोपियों के ह्रदय में बड़ा क्षोभ हुआ
जरूर श्यामसुंदर ने अपनी प्रेयसी
कोमलांगी  राधा को कंधे पर चढ़ा लिया होगा
देखो यहाँ की बालू
कितना नीचे धंस गयी है
मालूम होता है किसी ने
कोई भारी वस्तु उठाई हो
ये देखो यहाँ फूल बिखरे पड़े हैं
और सुन्दर पत्तों का बिछौना बना है
साथ में ये जडाऊ शीशा भी पड़ा है
जरूर मनहरण प्यारे ने यहाँ बैठ
राधा का श्रृंगार किया है
उनकी वेणी में फूल लगाया है
और राधा ने शीशे में
प्यारे जू को निहारा है
तभी शीशा यहाँ पड़ा है
ये देख गोपियों का ह्रदय
विरह में विदीर्ण हुआ
मगर परीक्षित प्रभु तो आत्माराम हैं
संतुष्ट व् पूर्ण हैं
जब उनमे दूसरा कोई है ही नहीं
तब काम की कल्पना कैसी
ये तो ब्रह्म अपनी
परछाईं से खेल रहा था
शुकदेव जी ने बतलाया

क्रमश:…………

Tuesday, September 4, 2012

कृष्ण लीला रास पंचाध्यायी………भाग 65


जब प्रभु ने देखा
हाँ----ये सिर्फ मेरे लिए आई हैं
इनमे संसार की ना कोई
तुच्छ वासना रही है
अपना सर्वस्व मुझे ही
समर्पित  है किया
तब मनमोहन ने
महारास का उद्घोष किया
सभी गोपियों ने  योगमाया कृत
दिव्य वस्त्र  आभूषणों   से श्रृंगार किया
प्रभु ने अनेकों रूप बनाये
जितनी गोपियाँ
उतने कृष्ण नज़र आने लगे
मगर दूसरी को ना पता चलता था
हर गोपी को यही लगता था
कृष्ण सिर्फ मेरे संग रास रचाते हैं
कभी एक गोपी बीच में
और चारों तरफ कृष्ण
तो कभी चारों तरफ गोपियाँ
और बीच में कृष्ण
अद्भुत रूप बनाते हैं
रास रंग रचाते हैं
नृत्य गायन वादन से
इक दूजे को रिझाते हैं
कोई गोपी मुरली छीन
अपने अधरों पर रख लेती है
तो कोई गोपी गले में हाथ ड़ाल
प्रभु संग झूला, झूला करती है
अद्भुत दिव्य आनंद समाया है
कभी गोपी कृष्ण तो
कभी कृष्ण को गोपी बनाया है
प्रभु ने सभी के मनानुसार
अपना रूप बनाया है
ह्रदय से लगा सबके ह्रदय की
विरहाग्नि को बुझाया है
कभी मधुर रागिनी बजाते हैं
तो सबकी सुध बुध खो जाती है
कभी  नैन मटकाते हैं
कभी  तिरछी चितवन से
वार करते हैं
तो कभी किसी गोपी की
सुन्दरता पर मोहित होने
का स्वांग भरते हैं
मगर अपने निजरूप में
एकरस रहते हैं
ये तो गोपियों को
दिव्य आनंद देने को
मन बनाया था
वरना तो प्रभु में
मन ने ना स्थान पाया था
क्योंकि पंचतत्वों से बना ना उनका विग्रह  था
जब प्रभु गोपियों के मनानुसार
चेष्टाएं करने लगे
तब गोपियों के मन में अभिमान के
अंकुर का स्फुरण हुआ
मनहरण  प्यारे देखो हमारी
सुन्दरता पर कैसे रीझे जाते हैं
कैसे हमारे इशारों पर नाचा करते हैं
हमारे बराबर सुन्दरी तो
कोई दूसरी नहीं होगी
अब हमारी आज्ञा बिना
ना कोई कार्य करेंगे
जब गोपियों के मन में
ये अभिमान जगा
तभी प्रभु ने सारा हाल जान लिया
जब प्रभु ने देखा
गोपियाँ धर्म लज्जा छोड़
पाप दृष्टि  से देखने लगी हैं
अज्ञानता से मुझे अपना पति
समझ अंग लिपटाती हैं
तब प्रभु ने विचार किया
ये तो मेरी परम भक्त हैं
ऐसे अभिमान का बीज
यदि छोड़ दिया

जिसे जड़ से ना उखाड़ा जाए
तो कल ना जाने
कितना बड़ा वटवृक्ष बन जाये
इसे तो अभी नष्ट करना होगा
क्योंकि मुझे बाकी सब है प्रिय
सिर्फ अभिमानी ही नहीं प्रिय
ये सोच प्रभु गोपियों के
बीच से अंतर्धान हुए
गोपियाँ मोहपाश में बंधी 
ना सोच पाती थीं
जिसमे से सारे जग की
सुन्दरता निकली हो
वो कैसे उन पर रीझ सकता था
उसके प्रकाश से ही तो
उनका रूप प्रकाशित होता था
जिसकी भृकुटी के इशारे पर
ब्रह्मांड नाचा करता है
वो कैसे उनकी उँगलियों पर नाच सकता है
ये तो प्रभु  की परम
भक्त वत्सलता थी
अपने भक्त का मान रखने को
प्रभु अपने स्वामी के रूप से
नीचे उतर आये थे
और आम इन्सान बन
हास विलास करते थे
मगर गोपियाँ कुछ समय के लिए
इस सत्य को भूल गयी थीं
और गर्व कर बैठी थीं
जिसे मिटाना जरूरी था
इसलिए प्रभु राधा जी संग
अंतर्धान हुए
ये देख गोपियों के तो होश उड़े
अरे कृष्ण कहाँ गए
अभी तो यहीं थे
अरे कृष्ण कहाँ गए
अभी तो यहीं थे
इक दूजे से  पूछती फिरती थीं
जैसे मणिधर सर्प की मणि
किसी ने छीन ली हो
जैसे मीन जल बिन मचल रही हो
यूँ गोपियाँ व्याकुल  होने लगीं
जैसे किसी धनवान का सारा धन छिन गया हो
इस महादुख से गोपियाँ बौरा गयीं
इक दूजे से मनहर प्यारे का पता पूछने लगीं
कभी विरह वेदना में
दग्ध हुई जाती हैं
और कान्हा को बारम्बार बुलाती हैं
हम  तुम्हारी बिना मोल की दासी हैं
मनसा वाचा कर्मणा तुम पर न्योछावर हुई हैं
फिर कहाँ जा छुपे हो
किससे पता तुम्हारा पूछें
प्रेमाश्रु बहाती हैं 


क्रमश:………