Tuesday, October 30, 2012

निर्मोही !मेरा श्याम कितने रंग बदलता है

निर्मोही !मेरा श्याम
कितने रंग बदलता है
कभी मीरा बन संवरता है
कभी राधा बन हँसता है
यूँ भी कभी अकडता है
बिन माखन ना पिघलता है
निर्मोही !मेरा श्याम
कितने रंग बदलता है
पिताम्बरी ओढा करता है
कनेर का फूल लगाया करता है
अधरों पर बांसुरी को
सजाया करता है

अपनी तिरछी चाल से
सबको लुभाया करता है

देख तो सखी
निर्मोही !मेरा श्याम
कितने रंग बदलता है
जन्म जन्म की दासी हूँ
उसके दरस की प्यासी हूँ
ये सब वो जाना करता है
फिर भी छुपा फ़िरता है
विरहाग्नि बढाता है
लुकाछिपी का खेल उसे
बहुत भाता है
देख तो सखी
निर्मोही !मेरा श्याम
कितने रंग बदलता है


छलिया छल छल जाता है
फिर भी सबको लुभाता है
बस यही रंग तो उसका भाता है
जो उसकी तरफ़ दिल खिंचा खिंचा जाता है
देख तो सखी
निर्मोही !मेरा श्याम
कितने रंग बदलता है

बावरिया बनाया करता है
जोग दिलाया करता है
प्रेम का रोग लगाया करता है
देख तो सखि फिर कैसे
इठलाया फ़िरता है
निर्मोही !मेरा श्याम
कितने रंग बदलता है



यही तो अदा निराली है
जिस पर हर गोपी बलि्हारी है
कहने से ना चूकती है
वो सिर्फ़ मेरा है
जबकि जानती है बावरी
वो आ तो किसी का नहीं
या फिर सबका है
कैसे कैसे बावरा बना नचाता है
अद्भुत खेल दिखाता है
तभी तो नटवर कहलाता है
देख तो सखि
निर्मोही !मेरा श्याम
कितने रंग बदलता है

" नदी हूँ फिर भी प्यासी "

ए .....ले चलो 
मुझे मधुशाला  
देखो
कितनी प्यासी है मेरी रूह
युग युगांतर से
पपडाए चेहरे की दरारें
अपनी कहानी आप कर रही हैं
कहीं तुमने अपनी आँखों पर
भौतिकता का चश्मा
तो नहीं लगा लिया
जो आज तक तुम्हें
मेरी रूह की सिसकती
लाश का करुण  क्रंदन
न सुनाई दिया 
और मैं
युगों युगों से
जन्म जन्म से
अपनी रेत के
तपते रेगिस्तान में 
मीन सी तड़प रही हूँ
प्यास पानी की होती
तो शायद
रेगिस्तान में भी
कोई चश्मा ढूंढ ही लेती
मगर तुम जानते हो
मेरी प्यास
उसका रूप उसका रंग
निराकार होते हुए भी
साकार हो जाती है
और सिर्फ यही इल्तिजा करती है
ए .........एक बार सिर्फ एक बार
प्रीत की मुरली बजाते
मेरी हसरतों को परवान चढाते 
इस राधा की प्यास बुझा जाओ
हाँ ..........प्रियतम
एक बार तो दरस दिखा जाओ
बस .............और कुछ नहीं
कुछ नहीं चाहिए उसके बाद 
तुम जानते हो अपनी इस नदी की प्यास को
फिर चाहे कायनात का आखिरी लम्हा ही क्यों न हो
बस तुम सामने हो ..........और सांस थम जाए 
इससे ज्यादा जीने की चाह नहीं ...........
ए ...........एक बार जवाब दो ना
क्या होगी मेरी ये हसरत पूरी ........... रेगिस्तान की इस रेतीली नदी की
मेरे आंसुओं की धडकन पर
जो तुम थिरक थिरक जाओ
मेरे सांसों की सरगम पर
जो तुम मचल मचल जाओ
सच कहती हूँ ……मोहन
मैं मिट मिट जाऊँ
मैं हुलस हुलस जाऊँ
मैं……मैं ना रहूँ
बस तुम ही तुम बन जाऊँ




पूनम की रात ने डेरा लगाया
देख शरद का चाँद खिलखिलाया
मेरे ह्रदय मे महारास नित हो रहा
बस श्याम ही श्याम चहूँ ओर दिख रहा

खंडित काल की खंडित कृति हूँ मैं .....

 कैसी  हो गयी हूँ मैं ..........खुद से भी अनजान सी  ........क्या चाहती हूँ नहीं जानती ..........ढूंढ रही हूँ खुद में खुद को ...........कोई पहचान चिन्ह ही नहीं मिल रहा ........ बड़ी बेतरतीबी बनी हुयी है ..........कभी किसी धुन पर थिरक उठना तो अगले ही पल किसी धुन पर रो पड़ना या गुमसुम हो जाना ............कभी विचलित तो कभी उद्वेलित तो कभी उद्गिन ...........अजब उहापोह की धमाचौकड़ी मची रहती है और उसमे खुद को ढूंढना जैसे अँधेरी  कोठरी में सूईं को ढूंढना .............भागने की इच्छा होना और कोई दरवाज़ा न दिखना जो गली की ओर  खुलता हो .......... दिख भी जाये तो कोई राह न दिखती जिसकी कोई मंजिल हो ..........ऐसे में ना बाहर  की रही ना  अन्दर की ...........अजब कशमकश का  शोर ................कान  बंद करने पर भी सुनाई देता है ............नहीं भाग पाती आंतरिक कोलाहल से ............और कभी सब यूँ शांत जैसे सृष्टि का अस्तित्व ही न हो ...........सिर्फ एक नाद हो ............परम नाद , ब्रह्म नाद ............कौन सी स्थिति का द्योतक है ? कैसी ये मनःस्थिति है ? कौन सी विडंबना है जो सर उठाना चाहकर भी नहीं उठा पा रही .........खुद को पूरा नहीं पा रही और असमंजस की स्थिति में गोते लगाता मुझमे कोई मुझे ढूंढ रहा है ............क्या मिलूंगी मैं कभी उससे ? खोज की अपूर्णता का तिलिस्म भेदने के लिए किस कालचक्र से गुजरना होगा जो प्रश्न के आगे लगे प्रश्नचिन्ह से निजात मिल सके .........खंडित काल की खंडित कृति हूँ मैं ..... मिलेगा कोई शिल्पकार क्या मुझे मेरा रंग रूप देने के लिए .........इंतज़ार की वेदी पर चिता सुलग रही है ..........आह्वान करती हूँ तुम्हारा ..............पूर्णाहूति के लिए ...........देव मेरे ! शिलाओं के उद्धार को अवतरित होना होगा !!!!!!!!

Monday, October 29, 2012

" इसे प्रश्नोत्तरी कहो या वार्तालाप या आरोप प्रत्यारोप "…भाग 4



प्रभो
ना जाने कौन सा खेल खेल रहे हो
क्यों मन में सवालों के भंवर उठा रहे हो
ये तो तुम ही जानो 
क्या है तुम्हारी माया
मैं तो जीव परवश हूँ
इसलिए जो प्रश्न रूप में तुम 
अवतरित हुए हो
उसे ही तुम्हारे सम्मुख रखता हूँ
आखिर शब्द "मै" ने फिर एक प्रश्न उठाया
लो फिर प्रश्नों की गंगा लेकर
मै तुम्हारे सम्मुख आया
इस बार तुम जरूर अनुत्तरित होंगे
तुम्हें हराना मेरा मंतव्य नही
बस ये भी तुम्हारी ही
कोई माया दिखती है
जिसे तुम्हारे सम्मुख
तो लाना होगा और
खुद को प्रश्न जाल से
बाहर निकालना होगा 
तुम कहते हो 
मैंने जीव को धरती पर भेजा
सिर्फ भगवान को पाने के लिए
और ये आकर यहाँ
विषय विकारों
घर गृहस्थी के चक्कर में
मुझको भूल गया
इसलिए इसे अपने पास बुलाने को
अपनी याद दिलाने को 
कभी कभी विपदाएं देता हूँ
और अपनी याद कराता हूँ
अरे भगवन ये कैसा तुम्हारा कृत्य हुआ?
ऐसे तो तुमने खुद को ही 
महिमामंडित किया 
अपने "मैं " को प्रधान बताया
सिर्फ अपने को ही 
पुजवाना चाहा 
दूसरी बात 
तुम कहते हो 
जीव तुम्हारा ही अंश है
या कहो 
हर रूप में तुम ही विराजते हो
तो बताओ तो जरा
यदि जीव रूप में तुम ही हो
और जीव भी "मैं मैं "
ही करता है
अपने लिए ही जीता है 
तो क्या बुरा करता है
जब तुम "मैं हूँ एक ब्रह्म"
इस सत्य को उद्घाटित करते हो
तो क्या तुम खुद नहीं
"मैं" के भंवर में फंसते हो 
और अपने " मैं " को संतुष्ट करने के लिए
ये अजीबो गरीब चक्रव्यूह रचते हो 
जब घर गृहस्थी में फंसाया है
तो जीविकोपार्जन हेतु
कार्य तो उसे करना होगा
जीवन सञ्चालन के लिए 
उद्योग भी करना होगा
और उसमे झूठ सच का 
सहारा भी लेना ही पड़ता है
हर काम सिर्फ तुम्हारे नाम पर ही
तो नहीं चल सकता है ना
फिर जब सब तुम्हारा है
सब में तुम हो
तो बताओ
भिन्नता कैसी ?
कौन किससे भिन्न हुआ ?
जीव रूप में भी तुम
ईश्वर तो हो ही तुम
तो जीव ने "मैं" कहा 
तो क्यों तुम्हें बुरा लगा
क्या वो "मैं" कहने वाला
तुम ना हुए?
क्या वो "मैं" तुमसे भिन्न हुआ ?
और खुद को खुद से पुजवाना
अपनी याद दिलाना 
ये तो सब तुम्हारे ही 
क्रियाकलाप हुए ना
फिर कैसे जीव इनका कर्ता और भोक्ता हुआ ?
जब हर रूप में तुम ही 
विराजते हो
जब तुम कहते हो
तुम्हारी इच्छा के बिना 
पत्ता तक हिलता नहीं
फिर यहाँ किसे किससे भिन्न कर रहे हो ?
क्यों ये भेद बुद्धि बनाई तुमने
जो जीव और ब्रह्म में फंसाई तुमने
पहले तुम ही सही निर्णय कर लो
कि तुम जीव हो या ब्रह्म
कि तुम ही हर जीव में समाये हो ना नहीं
कि हर रूप में तुम ही तुम होते हो
सब कल्पना विलास हो या यथार्थ
हर रूप , भाव , शब्द, कथन
सबमे तुम्हारा ही तो रूप समाया है
फिर बताओ तो जरा
कौन किससे जुदा है
फिर कौन ये नट का खेल खेलता है 
भोले भक्त की बातें सुन
प्रभु मुस्काते हैं
मन ही मन हर्षित होते हैं
जानते हैं ना 
ये प्रश्न हर दिल में उठता है
शायद तभी आज 
इसे कहने की इसने हिम्मत की है
जो हर कोई नहीं कर पाता है
यदि करता है तो उसके
प्रश्नों का ना सही उत्तर मिलता है 
प्रभु बोले 
प्यारे भक्त मेरे
क्यों तू भूलभुलैया में फंसता है
एक तरफ तू खुद ही कह रहा है
कि सब करने वाला मैं ही हूँ
तो सोच जरा
तेरे मन में उठने वाला प्रश्न 
भी मैं ही हूँ
और जवाब देना वाला भी मैं ही हूँ
मेरी शक्ति अदम्य है
मुझसे ना कुछ भिन्न है
जब नटवर कहा है तो
उसकी जादूगरी में भी 
तो फंसना होगा
गर उसका हर खेल जान लिया 
तो बताओ तो जरा
वो कैसा जादूगर हुआ
फिर भी बतलाता हूँ
हाँ .........मैं हूँ रचयिता
मैं ही हर रूप में समाया हूँ
सब मेरा ही क्रियाकलाप है
कुछ भी ना मुझसे भिन्न है
मैंने ही ये खेल रचा है
मैं ही कार्य, कारण और कर्ता, भोक्ता हूँ 
मैं ही जगत नियंता हूँ
क्या मैं खेल नहीं रच सकता हूँ
बस खेल ही तो खेल रहा हूँ
फिर तू क्यों उलझन में पड़ता है
क्यों नही निर्विकार होकर रहता है
जब तू जान गया 
मेरे सत्य रूप को पहचान गया
फिर क्यों भेद बुद्धि में फंसता है
बस सब आशा, तृष्णा ,अहंता, ममता 
राग- द्वेष, जीवन- मृत्यु, हानि -लाभ 
सब को छोड़ एक मेरा निरंतर ध्यान धर
मुझमे ही अपने स्वरुप का विलय कर 
बस एक बार अपने सब कर्म 
मुझको अर्पण कर दे
फिर मुझमे ही तू मिल जायेगा 
सारे कर्म बंधनों से मुक्त हो जायेगा 
बात तो प्रभु फिर वहीँ आ गयी
जब सब तुम्हारा है
तुम ही कर्ता भोक्ता हो
फिर मेरी क्या हस्ती है ?
कैसे मैं खुद को नियंत्रित कर सकता हूँ
सब तुम्हारा रचाया तो खेल है
उसमे मैं कैसे विघ्न उत्पन्न कर सकता हूँ
क्या मेरे हाथ में तुमने कुछ दे रखा है
क्या मैं अपनी मर्जी से कुछ कर सकता हूँ
नहीं ना ..........तो ये अर्पण समर्पण भी
सब तुम्हारा है
तुम ही जानो
कराओ तो सही ना कराओ तो सही
क्योंकि मेरी दृष्टि में तो 
तुम ही सब करने वाले हो
मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार आदि सबमे 
तुम ही तो समाये हो
और सबके नियंत्रणकर्ता भी तुम ही हो
तो भला मैं कैसे स्वतंत्र हुआ 
मैं तो तुम्हारे हाथ की वो कठपुतली हूँ
जिसे जैसे चाहे नचाते हो
अब ये प्रश्न रूप में भी तुम ही हो
और उत्तर रूप में भी तुम ही हो
फिर भला मेरी क्या हस्ती है
अब मान भी जाओ 
अपने " मैं " के पोषण के लिए
तुम ही भिन्न रूप रखते हो
स्वयं को महिमामंडित करते हो
मानो प्रभु ..........तुम भी "मैं " के जाल से ना मुक्त हो 
ज्ञान के शिखर पर पहुँच कर भी
अज्ञानता के तम में फँस जाता है 
जीव ऐसे ही तो उसके 
चक्रव्यूह में फँस जाता है
जब ये अजीबो गरीब प्रश्न 
उसके मन में उठते हैं
उफ़ ! ये कैसा अजब जाल बिछाया है 
आज तो जग नियंता पालनकर्ता भी
अपने जाल में फँस गया 
मंद मंद मुस्काता है 
मगर कह कुछ ना पाता है 
बस यही तो भक्त और भगवन की 
अजब गज़ब लीलाएं चलती हैं
जो नए नए रूप बदलती हैं 
मगर सत्य हर युग 
हर काल मे एक ही रहता है 
करने कराने वाला तो
 सिर्फ़ वो ही होता है 
हम तो सिर्फ़ माध्यम बनते हैं 
और इसी बल पर ऐंठे फ़िरते हैं 
जरा सी ढील देता है तो 
पतंग लहराने लगती है 
और जरा सी खींच दे तो 
सही राह पर चलने लगती है 
बस कटने से पहले तक ही 
ये प्रश्न मन मे उठते हैं 
जिनके उत्तरों मे हम 
जनम जनम भटकते हैं 
जो उत्तर पा जाता है 
वो निरुत्तर हो जाता है 
ये भी कोई माया है 
ये भी कोई खेल होगा 
यूँ ही तो नही बिना कारण प्रश्नोत्तरी रूप धरा होगा 
हाँ , आज तुम्हें एक नया नाम दे दिया …………मेरे प्रश्नोत्तर! 
शायद ये भी प्रीत का ही कोई रंग होगा 
यूँ ही तो नही ये नाम तुम्हें मिला होगा ……खुश तो हो ना !!!!!!


Thursday, October 25, 2012

इसे प्रश्नोत्तरी कहो या वार्तालाप या आरोप प्रत्यारोप…3

प्रभु और भक्त की नोंक झोंक अब अगले मुकाम पर आ पहुँची ………


अगला प्रश्न भक्त ये करता है
प्रभु एक तरफ तुम ये कहते हो
तेरा योगक्षेम मैं वहन करूंगा
तू बस मेरा चिंतन कर
और जब भक्त ऐसा करता है
फिर भी तुम अपनी कलाबाजियों से 
बाज नहीं आते हो
और बीच बीच में उसे 
किसी ना किसी तरह सताते हो
बताओ भक्त कैसे निश्चिन्त हो
जब तुम ही उसे धोखा देते हो
और कठिन परीक्षा की आग में झोंक देते हो
बेचारा भक्त तो निश्चिन्त हो जाता है
अपना हर कर्म , हर सोच , हर विचार 
सब तुम्हें ही अर्पण कर देता है
जहाँ वो अपना कुछ नहीं मानता है
फिर बताओ तो जरा 
तुम कैसे ऐसे भक्त को
परीक्षा की उलझन में डाल देते हो
क्या तुम्हारा दिल नहीं पिघलता है
माना सुना है कि आँच की कसौटी पर
ही सोना कुंदन बनता है 
मगर जिसे तुमने छू लिया हो
जो पारसमणि बन गया हो
उसे अब और क्या प्रमाणित करने को रहा
कहीं ऐसा तो नहीं
तुम्हें इस खेल में ज्यादा मज़ा आता है
और अपनी सत्ता का अहसास कराकर 
तुम आनंदित होते हो
हाय रे मेरे प्यारे ! तू भी आज मुझे
अजब भक्त मिला है
जिसने मेरे सारे खेलों को खोला है
मैं यूँ ही नहीं ऐसे खेल रचता हूँ
पात्र देखकर ही उसमे जल भरता हूँ
ये सब अपने लिए नहीं करता हूँ
जब देखता हूँ मटका पक चुका है
तभी उसे जल में प्रवाहित करता हूँ
ताकि बाकी सब भी उसका अनुसरण करें
और जल्द से जल्द मुझसे आ मिलें
क्योंकि भक्त और मुझमे जब 
कोई भेद नहीं रहता है
तो भक्त पीड़ा भी वहन नहीं करता है
वो सुख दुःख से परे हो जाता है
हर कृत्य में उसे मेरा खेल ही नज़र आता है
और वो भक्ति भाव से 
उसकी पूर्णता में अपनी 
भागीदारी निभाता है
मगर दोष ना कोई मढ़ता है
क्योंकि दो हों तो दोष मढे
खुद को कैसे कोई खुद ही आरोपित करे
जब भक्त ये जान लेता है
तभी तो परीक्षा पर खरा उतरता है
अब तुम्हारी बात ही मैं कहता हूँ
जब तुम ये कहते हो 
मुझमे और जीव में कोई भेद नहीं
मैं ही हर रूप में समाया हूँ
सब मेरा ही लीला विलास है
ना कोई जीव है ना ब्रह्म 
सब मेरा ही रूप मुझमे व्याप्त है
तो फिर प्रश्न कैसा और किससे?
बोलो प्यारे भोले भक्त 
जब सब मैं हूँ 
अपनी परछाईं से खेलता हूँ
तो कहो तो जरा 
सुख में भी मेरा रूप समाया है
और दुःख में भी तो मेरा ही अंतस अकुलाया है
मैं ही मैं चारों तरफ छाया है
फिर तुम पर क्यूँ पड़ी
इन प्रश्नों की छाया है
तुम चाहे दो मानो चाहे एकोअहम 
मगर भेद नहीं कर सकते हो
सुनकर भक्त का माथा झुक गया
वो प्रभु के चरणों में नतमस्तक हुआ
उसे समझ सब आ गया
इसे  प्रश्नोत्तरी कहो या वार्तालाप या आरोप प्रत्यारोप 
इसका भेद भी पा गया
ये पूछने वाला भी एक ब्रह्म है
और जवाब देने वाला भी 
वो ही सर्वस्व  है
बस अपने किस रूप को कैसे प्रस्तुत करना है
किस रूप से क्या काम लेना है
किसे कैसे खुद से मिलाना है
कैसे खुद में समाना है
ये सब प्रभु का ही आनंद विलास  है 
जहाँ कोई ना दूजा अस्तित्व प्रगट होता है
ये तो प्रभु की लीला का मात्र एक अंश होता है
खुद से खुद की प्रश्नोत्तरी 
खुद से खुद के जवाब
खुद से खुद की पहचान
सब उनका है दृष्टि विलास
वास्तव में तो प्रभु ने अपनी सत्ता दर्शायी है
और अपने खेल में अपनी भागीदारी ही निभाई है
फिर कहाँ और कौन भक्त
कैसा समर्पण कैसा बँधन
सब उसी का उसी में आनंद समाया है 
बस दृष्टि भेद से फर्क समझ नहीं आया है
अब भक्त की जय कहो या भगवान की 
इसका प्रश्नकर्ता हो या उत्तरदाता 
सब मे वो ही था समाया 
बस माध्यम मुझे था बनाया 
या कहो वो खुद ही इस रूप मे उतर आया
और एक नया पन्ना इस तरह लिखवाया 
जिसे भिन्न रुपों मे वो गा चुका है
पर एक बार फिर से दोहराया 
भूला बिसरा पाठ फिर से याद करवाया 
प्रभु हैं अजब अजब है उनकी माया 
जिसमे "मै" का ना कोई वजूद कहीं पाया


क्रमश:……………

Thursday, October 18, 2012

इसे प्रश्नोत्तरी कहो या वार्तालाप या आरोप प्रत्यारोप............2




मगर ये वार्तालाप 
यहीं ना बंद हुआ 
भक्त ने झट दूसरा प्रश्न दाग दिया
प्रभु जब तुमने मान लिया
तुम ही सब कुछ करते हो
तो बताओ तो जरा
फिर भक्त की परीक्षा क्यूँ लेते हो
क्यों उसे दो के भ्रम में उलझाते हो
क्यूँ तुम में और उसमे कोई भेद है
ये बतलाते हो
सुन प्रभु ने जवाब दिया
जब भक्त मेरे हैं
मैं उनका हूँ
तो उनके प्रेम का परिक्षण करता हूँ
क्या ये भी मुझे उतना ही चाहता है
जितना मैंने इसे चाहा है
या ये अपनी किसी गरज से
मुझसे मिलने आया है
जब खोटा है या खरा 
ये परख लेता हूँ
तब उस पर अपना 
सर्वस्व  न्योछावर करता हूँ
और भक्त के हाथों बिक लेता हूँ
अब वो जैसा चाहे मुझे नचाता है
चाहे तो भूखा रखे
चाहे तो काम करवाए
चाहे तो बर्तन मंजवाए
चाहे तो झाडू लगवाए
मैं उसके प्रेम पर रीझ जाता हूँ
और उसकी ख़ुशी में ही
अपनी ख़ुशी समझता हूँ
जैसे भक्त मेरी ख़ुशी में
अपनी ख़ुशी समझता है
वैसे ही मैं भी उसके साथ करता हूँ
यहाँ दोनों के भाव 
एकाकार हो जाते हैं
दोनों ही अपना स्व भूल जाते हैं
और एक रूप हो जाते हैं
यही तो वो भाव होता है
जिसके लिए मैं ये 
सारी लीला रचता हूँ
और तुम मुझ पर दोषारोपण करते हो
बताओ तो जरा कहाँ फिर
दोनों में कोई भेद रहा
और कब मैंने दो का भेद कहा
यही तो मैं समझाना चाहता हूँ
तू मेरी किरण है जो मुझसे बिछड़ी है
बस एक बार मुझे आवाज़ दे
मैं सौ कदम आगे आ जाता हूँ
और उसे अपने में मिला लेता हूँ
फिर कहाँ दोनों में भेद रहा
ये भेद मैंने नहीं डाला है
बस दृष्टि के बदलने से ही
सृष्टि बदली नज़र आती है
वरना तो तुझमे मुझमे कोई भेद नहीं
यही समझाना चाहता हूँ
पर जीव भूला भूला फिरता है
और आवागमन में फंसता है
अरे अरे फिर तुम उसी बात पर आते हो
प्रभु मुझे फिर घुमाते हो
अभी तो तुमने माना है
सब तुम ही करते हो
तो इस रूप में भी तो 
तुम्हारा ही सारा खेल होता है
भेद विभेद सब दृष्टि भ्रम होता है
जबकि कर्ता कर्म और फल 
सब तुम्हारा ही रूप होता है
देखो ये शब्दों की उलझन में ना उलझाओ
मुझे अपने शब्द जाल में ना फंसाओ
और जब तुम कहते हो
तुझमे मुझमे कोई भेद नहीं
फिर क्यों कठिन परीक्षा लेते हो
क्यों जीव को इतना भटकाते हो
जो जान पर बन आती है
तब जाकर तुम मिलने आते हो
और दूसरी तरफ कहते हो
बस मेरा सुमिरन किया कर
और कर्म सारे मेरे अर्पण किया कर
बताओ तो जरा 
जीव क्या करे और क्या ना करे
कैसे खुद को अपने कर्तव्यों से विमुख करे
जब तुम ही उसे फंसाते हो
कर्त्तव्य निभाने का उपदेश देते हो
कर्म की शिक्षा देते हो
और जब वो कर्म में संलग्न होता है
तब उसे भोगों में लिप्त होने का दंड देते हो
ये कैसा तुम्हारा विधान है
जो जीव की समझ से पार है
अरे भोले भक्त मेरे 
मैंने ना कोई दंड विधान रखा
सिर्फ इतना ही तो है कहा
कर्म करे जा फल की इच्छा मत रख
अर्थात निर्लिप्त भाव से कर्म कर
और अपने सारे कर्म मुझे अर्पण कर
मुझे अर्पण करने से वो ही कर्म तेरा
मेरी  पूजा बन जायेगा
और फिर मुझसे मिलने में
ना कोई बाधा तू पायेगा 
कर्म करते भी मुझसे मिला जा सकता है
जरूरी नहीं तू राम नाम की माला ही जपा करे
ये कर्म भूमि मैंने ही बनाई है
बस इतनी ही तो बात कहलाई है
यहाँ कर्म किये बिना ना
कोई एक क्षण रह सकता है
बस तू खुद को कर्म का कर्ता मत मान
और कर्म अपना मेरे अर्पण कर
फिर देख मुझसे मिलना सुगम हो जायेगा
तेरे पथ पर तू बिना पुकारे भी
मुझे खड़ा पायेगा 
अरे वाह प्रभु .....क्या बात तुम कहते हो
जब जीव कर्म करेगा तो बताओ तो जरा
कैसे कर्म बँधन से खुद को मुक्त करेगा
क्या कर्म बिना किसी आशा के किया जा सकता है
क्या कर्म से बिना सम्बन्ध जोड़े कोई कर्म किया जा सकता है
जब कर्म से कोई नाता होगा 
तभी तो कर्म सही ढंग से होगा
और उसे पूरा करने की जब इच्छा होगी
तभी तो कर्म में उसकी रति होगी 
बताओ फिर कैसे कर्मफल से जीव
खुद को विमुख कर सकता है
बिना चाहत के कोई कैसे
कर्म कर सकता है
कहीं ना कहीं किसी ना किसी अंश में
कोई तो चाहत छुपी होगी
अच्छा बताओ जरा
अगर कोई तुम्हें चाहे
तो क्या तुम्हें पाने की चाहत नहीं रखेगा
और तुम्हें पाने के लिए 
वो तुम्हारा सुमिरन भजन मनन नहीं करेगा
अब सारे कर्म वो कर रहा है
मगर बिना चाहत के तो
तुम्हें पाने का कर्म भी नहीं कर रहा है
फिर भला कैसे जीव
चाहत मुक्त हो सकता है
कैसे खुद को पूर्ण विमुख कर सकता है
जब तक किसी कार्य को करने का कारण नहीं होगा
कार्य कहो तो कैसे संपन्न होगा 
प्रभु तुम्हारी बातें बहुत भरम फैलाती हैं
जो जीव के समझ नहीं आती हैं
देखो तुम्हें अपनी कार्यप्रणाली बदलनी होगी
थोड़ी जीव की भी सुननी पड़ेगी
ये नहीं सारा दोष जीव के सिर मढ़ दो
और खुद को पाक साफ़ दिखा दो
तुम भी दोषमुक्त नहीं हो सकते हो
जब तक जीव पर आरोप रखते हो
प्रभु प्यारे भक्त की बातों में 
रस लेते हैं
और मधुर मधुर मुस्कान से 
दृष्टिपात करते हैं
भक्त और भगवान की महिमा
अजब न्यारी है
जहाँ भक्त ने ही वकील और जज की कुर्सी संभाली है
और प्रभु कटघरे में खड़े
मधुर मधुर मुस्काते हैं
और अपने प्यारे भक्त की मीठी बातों पर
रीझे जाते हैं

क्रमश :………

Monday, October 15, 2012

आवाज़ दे कहाँ है ..........

आवाज़ दे कहाँ है

मैं तो भयी रे बावरिया

बनी रे जोगनिया
श्याम तेरे नाम की
श्याम तेरे नाम की
आवाज़ दे कहाँ है
दीवानी तेरी यहाँ है ...........

गली गली ढूँढूँ

अलख जगाऊँ
तेरे नाम पर
मिट मिट जाऊँ
मैं हो के बावरिया
आवाज़ दे कहाँ है
दीवानी तेरी यहाँ है ...........

आँगन बुहारूँ 

या चूल्हा जलाऊँ
नित नित तेरा
दर्शन पाऊँ
मैं तो बन के दिवानिया
आवाज़ दे कहाँ है
दीवानी तेरी यहाँ है ...........

एक आस ही

जिला रही है
ये संदेसा पहुँचा रही है
तेरे चरणों से
लिपट लिपट जाऊँ
मैं बन के धूल के कणिया
आवाज़ दे कहाँ है
दीवानी तेरी यहाँ है ...........




Sunday, October 14, 2012

क्या करते हो तुम ऐसों का ?

देखो प्रभु
सुना है तुमने 
दीनों को है तारा
 बडे बडे पापियों 
भी है उबारा
जो तुम्हारे पास आया
तुमने उसका हाथ है थामा
और जिसने तुम्हें ध्याया
उसके तो तुम ॠणी बन गये
जन्म जन्मान्तरों के लिये
तुम खुद कहते हो
फिर चाहे गोपियाँ हों या राधा
तुम उनके प्रेमॠण से 
कभी उॠण नही हो सकते
ये तुमने ही कहा है
मगर मेरे जैसी का क्या करते हो
देखो मै तो नही जानती कोई
पूजन, अर्चन, वन्दन
मनन, संकीर्तन
ना ही कोई 
व्रत , उपवास , नियम करम करती
ना दान  पुण्य मे विश्वास रखती
ना दीनों पर दया करती
क्यूँकि खुद से दीन हीन किसी को ना गिनती
तुम्हारे बताये किसी मार्ग पर नहीं चलती
ना सुमिरन होता
ना माला जपती
ना तुम्हें पाने की लालसा रखती
ना तुम्हे बुरा भला कहती
ना ही गुण है कोई मुझमें
और अवगुणों की तो खान हूँ
बेशक अत्याचार नही करती
मगर तुम्हें भी तो नही भजती
ना मीरा बनती ना राधा
ना शबरी सी बेर खिलाती
ना विदुरानी से प्रेम पगे केले खिलाती
ना बलि सा तुम्हें बांधने 
का प्रयत्न करती
ना भाव विभोर होकर
नृत्य करती
ना पीर इतनी ऊँची करती
जो तुझसे ट्करा जाये
ना ही वन वन भटकती
ना कोई तपस्या करती
ना पाँव मे छाले पड्ते
ना जोगन बनती
और गली गली भटकती
ना तुम्हें बुलाती
ना तुम्हारे पास आती
ना तुम्हारा कहा कुछ सुनती
ना ही तुम्हारा कहा मानतi
अपनी ही मन मर्ज़ी aक्रती
बताओ तो ज़रा मोहन प्यारे
ऐसों के साथ तुम क्या करते हो?
क्या मिले हैं तुम्हें
मुझे जैसे भी कोई
जो तुमसे कोई 
आस नही रखते
और ना ही तुम्हें भजते 
क्या करते हो तुम ऐसों का
क्योंकि सुना है
जो जैसे भी तुम्हारे पास आया
चाहे प्रेम से
चाहे मैत्री से
चाहे शत्रुता से
चाहे किसी भी भाव से
चाहे तुम्हें सखा बनाया
चाहे पति या पिता
चाहे बालक या माँ
तुमने सबका उद्धार किया
शत्रु भाव रखने वाले को भी
तुमने तार दिया
अपना परम धाम दिया
मगर मै तो ना तुम्हारे 
पास आती हूँ
ना तुमसे कुछ चाहती हूँ
तो बताओ ना मोहन
मुझ जैसों का तुम क्या करते हो?
क्या मुझ जैसों को भी
वो ही गति देते हो
या दे सकते हो
और खुद को सबका 
हितैषी सुह्रद सिद्ध कर सकते हो
वैसे सुना तो नहीं
ना कहीं पढा
कि तुमने बिना कारण 
किसी को तार दिया हो
और मेरी जैसी
अकर्मण्य तुम्हें 
दूसरी नही मिलेगी
जो तुम्हारी सत्ता को ही
चुनौती देती है
हाँ ---आज कहती हूँ 
नही कर सकती
मैं तुम्हारा श्रृंगार
ना है मेरे पास 
आंसुओं की धार
नही कर सकती
अनुनय विनय
क्या फिर भी कर सकते हो
तुम मुझे भवसागर पार
मोहन हो इस प्रश्न का जवाब
तो जरूर देना
मुझे इंतज़ार रहेगा
क्योंकि 
बिना कारण के कार्य नही होता
और मैने ना कोई 
तुम्हारे अनुसार कार्य किया
हो यदि ये चुनौती स्वीकार
तो सिर्फ़ एक बार
तुम जवाब देने जरूर आना
क्योंकि
कोई परीक्षा देने का
मेरा कोई इरादा नहीं है
ना ही तुमसे कोई
वादा लिया है
बस आज तुम्हें ये भी
चैलेंज दिया है
ये भाव यूँ ही नही 
उजागर हुआ है
कोई तो इसका कारण हुआ है
शायद
तभी आज तुम्हारे चमन पर
बिजलियों का पहरा हुआ है
बच सको तो बच जाना …………

Saturday, October 13, 2012

इसे प्रश्नोत्तरी कहो या वार्तालाप या आरोप प्रत्यारोप --1

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः
श्री गणेशाय नमः
श्री सरस्वत्यै नमः
श्री सद्गुरुभ्यो नमः 

अब इसे क्या कहूं वार्तालाप या प्रश्नोत्तरी या भक्त और भगवान की खट्टी मीठी नोंक झोंक .........मगर ये भाव उठते जरूर हैं हर किसी के मन में तो आज उन्हें ही कहने का प्रयत्न किया है और पता नहीं सबके मन मे उठते भी हैं या नहीं मगर मेरे मन मे उठे और मैनें उनसे प्रश्न किये तो उन्होने अन्दर से यही उत्तर दिये जो आज आप सबके सम्मुख हैं…………



जीवन मृत्यु बने दो द्वार
आवागमन से ना पाया पार
इधर जीव घबराया 
उधर ईश्वर भी अकुलाया
जब विकल हुई दोनों की धार
मिलन का बन गया आधार
सम्मुख प्रभु को पाया जब उसने
जिह्वा  तब लगी रुकने
अनुपम सौंदर्य में खो गया
अपना सर्वस्व भी भूल गया
तब प्रभु ने चेतना का किया संचार
क्यूँ घबराया था यूँ अकुलाया था
किया प्रश्न ये बारम्बार
जब चेतना जागृत हुई
खुद की जब स्मृति हुई
जीव ने प्रश्न किया इस बार
प्रभो ! क्यों जन्म मृत्यु का रचा संसार
जिसमे बांधा कर्म का तार ?
मधुर मुस्कान धर प्रभु ने
सुधामय वाणी से दिया जवाब
ये मेरा है लीला विलास
नित्य खेल मैं रचता हूँ
बस तुझमे विलक्षण बुद्धि धरता हूँ
मगर तू उससे ऐसे लिपटता है
स्व स्वरुप भी भूलता है
ना तेरे आना हाथ में 
ना तेरे जाना हाथ में
फिर क्यूँ मैं -मैं का नारा रटता है
जबकि तू कुछ नहीं है
मात्र हाथों की कठपुतली है
बस यही भूल तू करता है
और आवागमन में फंसता है
सुन जीव मुस्कुराया 
प्रभु की चाल समझ प्रश्न किया
जब तुम्हारा खेल है
तुम उसके नियंता हो 
तुम ही सारा कर्ता- धरता हो
फिर क्यूँ बुद्धि की आड़ लेते हो
क्यूँ जीव को भरम ये देते हो
जब तुम खुद ही सब कुछ करते हो
फिर क्यूँ खुद को कर्तुम अकर्तुम 
अन्यथा कर्तुम कहते हो
जब नाटक तुमने लिखा
उसके सब पात्र तुमने रचे
सब पात्रों को संवाद तुमने दिया
अभिनय को मंच दिया 
फिर भला बताओ तो ज़रा 
कैसे जीव की बुद्धि का यहाँ 
प्रवेश हुआ
सारी रचना के रचयिता तुम हो
तो कैसे तुमसे पात्र उन्मुख हो सकता है
वो तो तुम्हारे इशारे पर ही चलता है
फिर भी अभिनय मंच पर 
दृश्य चाहे बदलता है 
समय भी नए रूप धरता है
मगर नाटक वो ही चलता है
वो उससे बाहर ना निकलता है
तुमने उसे ऐसे घेरा है
चाहकर भी ना निकल सकता है
फिर कहो तो जीव ने कब 
स्वयं को तुमसे ऊपर माना
वो तो तुम्हारी ऊंगली के इशारे पर
अभिनय करता है 
जब पात्र का हर संवाद तुम्हारा है
उसकी हर गतिविधि पर लगा
पहरा तुम्हारा है 
फिर कैसे कहते हो 
ये अपने मन की करता है 
सुन प्रभु  मुस्काए
और जीव के सारे भेद सुलझाये
हाँ ....मैं ही ये खेल रचता हूँ
मैं ही पात्रों को संवाद देता हूँ
अभिनय की तालीम देता हूँ
और रंगमंच पर छोड़ देता हूँ
मगर वो अभिनय की बारीकियां भुला देता है
खुद को खुदा मन बैठता है
जो मैंने संवाद दिए 
जैसा अभिनय को कहा
ठीक उससे उलट जब करता है
तभी उसके भाग्य का पांसा पलटता है
और वो आवागमन में फंसता है
अरे वाह प्रभु .........ये कैसे कह सकते हो
तुमने शिशु रूप में जन्म दिया
अब बताओ तो जरा 
उस जरा से शिशु ने ऐसा कौन सा कर्म किया
जो वो अपने मन की कर सके
अभी तो वो बोलना भी नहीं जानता है
ना खुद अपने नित्यकर्म कर सकता है
फिर बुद्धि के प्रयोग की तो बात ही दूसरी हो जाती है
अब उसे जैसे सांचे में 
ढालना होता है
तुम उसमे वैसा ही रंग भर देते हो
और अपने मन का आकार देते हो
और दोष जीव के मत्थे मढ़ देते हो 
बताओ ये कौन सा खेल हुआ
जिसमे सिर्फ परवशता होती है 
बिन सहारे के तो लकड़ी भी नहीं खडी होती है
उसके मुँह में जुबान भी तुम ही देते हो
बुद्धि रूप में भी तुम ही प्रवेश लेते हो
अब कैसे जीव का कोई कर्म 
अकर्म हो सकता है 
जब हर रूप में तुमने ही आकार लिया होता है
अरे मेरे भोले भक्त
तूने सिर्फ जो सुना देखा जाना 
वो तो सिर्फ एक पक्ष होता है
हर तस्वीर का एक 
दूसरा पक्ष भी होता है
बेशक मैं ही सबमे व्याप्ता हूँ
और मैं ही हर सांचे को आकार देता हूँ
मगर साथ में उसमे 
एक गुण भी भर देता हूँ
उसकी बुद्धि में एक बात धर देता हूँ
देख रंगमंच पर जाकर 
तू मुझे ना भूल जाना
मैं तेरा जनक हूँ
गोड फादर हूँ
तू मुझे ना भुलाना
अभिनय करते करते कहीं
उसी में ना रच बस जाना
और जीव मुझसे वादा करता है
और जब रंगमंच पर उतरता है
तो पात्र में ऐसे डूब जाता है
वो अपने घर का पता भी भूल जाता है
और फिर अपनी बुद्धि
दूसरे गोरख धंधों में लगाता है
मगर जिसने भेजा उसे याद नहीं करता है
और मैं इस खेल का रचयिता 
ये देख देख कर दुखी होता हूँ
ये मेरे पात्र को क्या हुआ
कैसे इसने नया रंग लिया
मेरा तो सारा खेल ही
इसने बिगाड़ दिया
अब इसे याद दिलाने को
अपनी पहचान कराने को
मैं दूसरे पात्र या घटनाएं 
उसके जीवन में अवतरित करता हूँ
मगर ये अपने अहम् के वशीभूत हो
सबको दरकिनार करता है
और खुद को ही दुनिया का
भगवान समझता है
जब मैं समझा समझा कर 
हार जाता हूँ
तब उसे अपने पास बुलाता हूँ
और अपनी पहचान करवाता हूँ
जब उसे समझ आ जाता है
और जब वो एक मौका
और चाहता है
उसे फिर से दुनिया में भेज देता हूँ
ये सोच इस बार ये जरूर बदलेगा
मगर वो फिर भी नहीं सुधरता है
और बार बार खुद ही आवागमन में फंसता है
सुन भक्त खिलखिलाकर हँस पड़ा
और प्रभु से प्रश्न किया 
अरे प्रभु ......एक तरफ तुम
गीता में उपदेश ये देते हो
मैं ही सबका कर्ता- धरता हूँ
मेरी इच्छा के बिना तो 
पत्ता भी नहीं हिल सकता है
फिर कहो तो कैसे कोई जीव
अपने मन की कर सकता है
जब तुम ही हर रूप में समाये हो
जब तुम्हारा ही ये संसार रचाया है
और इसके कण - कण में तुम ही समाये हो
फिर कहो कैसे जीव और ब्रह्म का भरम  फैलाये हो 
जब मुझमे भी तुम हो
और तुम में मैं
हर कण कण में सृष्टि के
तुम्हारा ही दर्शन होता है
फिर भला वहाँ कैसे 
किसी की बुद्धि का प्रवेश हो सकता है
कहीं कहते हो 
मैं कुछ नहीं करता हूँ
मैं निर्लेप रहता हूँ
और कहीं कहते हो
सब मेरी दृष्टि का विलास है
सबमे मेरी माया समायी है
मैं ही जर्रे जर्रे में समाया हूँ
मुझसे ही ये सृष्टि जगमगाई है
अब तुम खुद ही दोगली बात करते हो
और जीव को दुधारी तलवार पर चलाते हो
और दूर खड़े तुम मुस्काते हो
ये तो ना न्याय हुआ
ये तो सब तुम्हारा ही किया धरा हुआ
तुम बस यूँ ही जीव को फंसाते हो
और उसकी दुर्दशा देख मुस्काते हो
क्यूँकि खुद ही रचयिता होते हो
खुद ही पात्र भी बनते हो
और खुद ही तुम दिल्लगी करते हो
और दोष जीव पर मढ़ते हो
प्रभु ये ना सही खेल हुआ
इसमें तुम्हारा पांसा तुम ही पर
उल्टा पड़ गया 
भक्त की मीठी बातें सुन
प्रभु खिलखिला उठे
और भक्त की बात को ही 
ऊंचा बना दिया
हाँ मैं ही सब कर्ता नियंता हूँ 
मान लिया और 
भक्त का मान रख लिया 

क्रमश: ……………