Monday, November 5, 2012

समर्पण ,प्रश्नोत्तरी ------पुकार, उलाहना……2

वो तो हुआ एक भाव ………अब दूजे भाव का है क्या कोई जवाब



प्रश्नोत्तरी ------पुकार

 मेरी बेबसी पर 
अट्टहास करते हो
या तुम भी 
मेरी तरह दुखी होते हो
इम्तिहान लेते हो
या इम्तिहान स्वयं देते हो
मुझे अपराधी ठहराते हो
या स्वयं कटघरे में खड़े होते हो
कभी- कभी समझ नहीं आता
कौन सा न्यारा खेल खेलते हो

मेरी दशा से तुम अन्जान नहीं
तुम्हारी दशा की मुझे पहचान नहीं 
ये भटकाव है या ठहराव
अरे तुम हो कारण
और मैं तुम्हारा कार्य
फिर कहाँ रहा भेद
कहो कैसे हो निवारण
जब तुम में और मुझमे भेद नहीं
फिर कौन किस पर अट्टहास करे
तुम्हारा रचाया खेल
तुम ही इसके सूत्रधार
बताओ फिर कौन और करे उद्धार
तुम ही कारण तुम ही निवारण
तुम ही फूल तुम ही सुगंध
तुम ही बीज तुम ही वृक्ष
तुम ही दृश्य तुम ही दृष्टा
फिर बताओ और कौन है सृष्टा 
एक तुम ही तुम व्यापते हो
हर रूप में
हर भाव में 
हर क्रोध में
हर हँसी में
इर्ष्या, द्वेष, अहंकार
क्षमा, दया, तप
कहो तो किस रूप में तुम नहीं
फिर कौन किससे विलग है
मन , बुद्धि , चित
अहंकार सा रूप ना तुम्हारा है
और जब इस मन में
संकल्प - विकल्प उठते हैं
तो वो रूप भी तो तुम्हारा ही तो हुआ ना
तुमने ही तो कहा ना
हर भाव में मैं ही हूँ
सृष्टि का आदि - अनादि कारण भी मैं ही हूँ
तो फिर अच्छा हो या बुरा
सब तुम्हारा ही तो रूप हुआ 
फिर क्यूँ महामायाजाल में उलझाया है
क्यों प्राणी को इसमें फंसाया है
माना ये रूप भी तुम्हारा है
तो क्यों संकल्पों- विकल्पों का 
तूफ़ान मन में उठाया है
ये मन रुपी भंवर में
जीव को क्यों उलझाया है
ओ मोहन मुक्त करो
इन विकल्पों से हमें दूर करो
अपनी मायाजाल को 
तुम ही समेटो
मत लो ऐसे इम्तिहान
जिसने अपने हर शब्द
हर भाव , हर रूप को
हर सोच को 
तुम्हें ही समर्पित किया हो
और यदि कोई 
खेल खेलना ही है तो
उससे भी तुम ही उबारना
मगर इस जीव को बस
द्रष्टा ही बना कर रखना
उसके मन पर माया का
आवरण ना डालना
प्यारे बस इतनी सी अरज सुन लेना
हम जन्म जन्मान्तरों से भटके जीव
बडी मुश्किल से तुम्हारा पता पाये हैं 
अब तुम्हारी शरण में आये हैं
हमारा उद्धार करो
कल्याण करो
या नैया डुबा दो
सबमे तुम्हारा ही गौरव होगा
मगर जीव का तो अंतिम आसरा
सिर्फ तुम्हारे चरण होगा

क्रमश:………



Friday, November 2, 2012

समर्पण ,प्रश्नोत्तरी ------पुकार, उलाहना……1




समर्पण

प्रभु
ना पुकार में दम है
ना मेरी चाहत प्रबल है
पूजन अर्चन वंदन
सबको त्यागा है
क्या करूँ
कोई राह नहीं दिखती
तुम भी नहीं मिलते
तुम तक पुकार भी नहीं पहुँचती
फिर और किससे उम्मीद करूँ
जब तुम ही नहीं मेरे
फिर संसार तो बेगाना है
इसे कैसे अपना मानूँ
कैसे इससे उम्मीद करूँ
तुझे भी नहीं चाह पाती ना
देख चाह होती
तो ह्रदय फट जाता
तेरे लिए विकल हो जाता
मगर चाहत मेरी 
कमजोर रही
दिन रात अब मैं तड़पती हूँ
श्याम तुझ बिन भटकती हूँ
अब कोई अर्ज नहीं करती हूँ
पापी हूँ जान गयी हूँ
तेरे धाम से तभी तो वंचित हूँ
मेरी व्यथा ना कोई जाना
श्याम तू भी ना मन पहचाना
हम तेरी मायाजाल में 
फँसे नराधम
बता कहाँ जाएँ
किसे पुकारें
कौन सुने
अब पीर हमारी
श्याम मैं ना 
बन सकी तेरी राधा प्यारी 
विरह का व्याकरण 
मैं ना जानी
मीरा सा गायन वादन 
नृत्य कर तुझे रिझाना 
मुझे नहीं आया
शबरी सा निर्मल प्रेम 
ना मैंने जाना
शिकवा शिकायत
करना ना आया
ना तू  ना संसार 
मन को भाया
तभी तो ना तू आया
तेरे फैलाये जाल के 
हम फडफडाते पंछी
तड़पते हैं
मगर जाल ना काट पाते हैं
जब तक ना 
तेरी कृपा पाते हैं
कहीं कोई ठौर दिखे
कहीं कोई आस मिले
उम्मीद की कोई किरण तो दिखे
मगर तुम तो 
छुपे फिरते हो
मुझको ना कहीं दीखते हो
हे नाथ 
अधूरी हूँ
अधूरी ही रहूँगी
जान गयी हूँ
पहचान गयी हूँ
तुम्हारे लायक ना बनी हूँ
शिकवा नहीं
शिकायत नहीं
तड़प नहीं 
चाहत नहीं
अब मेरे पास श्याम कुछ भी नहीं
तुम्हारे चक्रव्यूह में फँस गयी हूँ
तुम्हारे बिछाए जाल में उलझ गयी हूँ
तेरी रज़ा में अपनी रज़ा मिला दी जबसे
श्याम मेरी वाणी ही मूक हो गयी तबसे
बता अब कैसे पुकारूँ
किसे पुकारूँ
कैसे तुझसे शिकायत करूँ श्याम
अब तुम जानो तुम्हारा काम
जी रही हूँ बस लेकर तेरा नाम 
अब अपना बनाओ या ठुकराओ
फिर संसार जाल में उलझाओ
या अपने चरणों में लगाओ
चित को मेरे चुराओ या
चित मेरा भटकाओ
इसे अपने पांसों में उलझाओ
या जीत की बाजी दोहराओ
गंदगी में डु्बोओ या बंदगी की राह चलाओ 
श्याम अब ये तुम ही जानो
डुबाओ या उबारो
मेरी प्रश्नोत्तरी सुलझाओ 
या स्वयं उत्तर बन 
मेरे जीवन में उतर आओ
जीत करो या हार
सब तुम्हारा तुमको ही 
अर्पण करती हूँ
श्याम सर्वस्व समर्पण करती हूँ
अब तुम्हारी बारी है ......श्याम 
मैं तो ये ज़िन्दगी तेरे नाम पर वारी है 



समर्पण ,प्रश्नोत्तरी ------पुकार, उलाहना ……3


ये तीसरा भाव
उलाहना

सभी गोपियाँ तुझे हैं प्यारी
वंशी की धुन ऐसी बजायी
सारी गोपियाँ दौड़ी आयीं
मेरी बारी श्याम क्यों देर लगायी
कब से तुमसे टेर लगायी
अंखिया मेरी राह तकत हैं
जन्म जन्म से बाट जोहत हैं
फिर क्यूँ ना प्रेम धुन मुझे सुनाई
क्यूँ ना वंशी ने आवाज़ लगायी
मेरी याद ही क्यूँ बिसरायी
माना हूँ मैल की गागर
भक्ति का ना लगाया काजल
फिर भी आस जोह रही हूँ
सुना है तुम हो दया के सागर
दीन हीन पापियों को सदा है तारा
फिर मेरी बार क्यूँ मुँह है मोड़ा
वंशी तुम्हारी सभी को बुलाती
नाम ले लेकर आवाज़ लगाती
क्या मेरा नाम भूल गए हो
या रास्ता अपना पलट गए हो

ना जाने कौन सा शास्त्र लिखवा रहे हो
जो उहापोह में फँसा रहे हो
कभी अमावास का चाँद बन जाते हो
कभी पूनम सा खिल जाते हो
कभी संदेहास्पद बन जाते हो
कभी उत्तरपुस्तिका बन जाते हो
मोहन ना जाने कौन से खेल रच जाते हो
मेरी पीड़ा जो इतनी बढ़ाते हो
अपना आप भी खो बैठती हूँ
तुम्हें ही झिलकारे देती हूँ
फिर भी तुम मुस्काते हो
ना जाने श्याम ये कौन सी लीला दिखाते हो
जब मन बुद्धि चित रूप में
तुम ही व्यापते हो
फिर ये कौन से खेल रचते हो
जो जीव को भ्रमित करते हो
जानती हूँ 
जब सर्वस्व समर्पण किया हो
वहाँ ना किसी चाह का जन्म हुआ हो
फिर भी प्रश्न रूप में
तो कभी संदेह रूप में
आ खड़े होते हो
ये कैसे -कैसे रूप तुम धरते हो
जीव को मायाजाल में उलझाते हो
ये कैसा मिथ्याजाल बिछाते हो
क्या है ये मोहन
कभी लगता है
ये भी तुम्हारी ही चाहत है
जो मेरे मन में उठती है
क्यूँकि बिना तुम्हारी चाह के
ना कोई भावना उठ सकती है
पर दूसरी तरफ तुम ही कहते हो
चाह को प्रबल करो
तभी तुम मिलते हो
मगर मोहन
जिसने अपनी चाह
तुम में मिला दी हो
वो कैसे तुमसे विलग हो
फिर कैसे तुमसे अलग हो
क्यों द्वैत में फंसाते हो
ये भ्रमजाल भ्रमित करता है
जब तुम पूर्ण कहाते हो
तो जिसने स्वयं को समर्पित किया हो
तेरी रज़ा में अपनी रज़ा मिला दी हो
उसकी कहो  तो कौन सी चाह बची हो
कभी लगता है 
कोई सूक्ष्म चाह बची है
तभी ये मची खलबली है
गर ऐसा कुछ बचा है 
तो उसे भी मिटा देना
मेरा वासना रुपी वस्त्र हर लेना
मगर श्याम तुम मूँह ना मोड़ लेना
स्वयं में मिलाकर
मुझ अपूर्ण को पूर्ण कर देना
देखो मुझसे उम्मीद मत करना
मेरा वश तो यहीं तक चलता है
अब सब तुम्हारी कृपा पर ही 
निर्भर करता है
ना पहले उद्योग किया
ना अब कर सकती हूँ
तुम सब जानते हो
जैसी भी अधम पापिन हूँ
बस तुम्हारी ही हूँ
इसे स्वीकार कर लेना
श्याम इस जीव का भी उद्धार कर देना
तुम्हारा कुछ ना घटेगा
बस एक नाम और तुम्हारे यश में जुड़ेगा
मगर इस जीव का उद्धार हो जायेगा
इसका भी बेडा पार हो जायेगा

मैं शून्यकाल का अगीत …………

मैं शून्यकाल का अगीत
तुम हो मोहन मेरे मीत


नृत्य करूँ या झांझर बजाऊँ
कहो तो मोहन कैसे रिझाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


बन मीरा गली गली अलख जगाऊँ
या राधा सी बावरिया बन जाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


देहपुंज को कैसे बिसराऊँ
तुम पर कैसे वारी जाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


कौन सी कहो महावर रचाऊँ

जो तुम्हारे साधिकार दर्शन पाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………

कैसे आँख का अंजन बन जाऊं

जो तेरे नैनों की शोभा बढ़ाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …

कौन सा वो हार बन जाऊँ

जो तेरे गले से मैं लिपट जाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …

कौन सा वो बांस बन जाऊँ

जो मुरली बन अधरों से लिपट जाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …

कहो तो चरणों की रज बन जाऊँ

पायलिया बन उनसे लिपट जाऊँ
अब तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


अंधेरी राह का दीप बन जाऊँ
निराकार को साकार बनाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


ह्रदय वेदना कैसे बुझाऊँ
कहो मोहन कौन सी गंगा नहाऊँ
जो तेरे दर्शन मैं पाऊँ
अब तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


मोहिनी मूरत पर वारी जाऊँ

श्याम तुम पर बलिहारी जाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


कैसे माया का पर्दा गिराऊँ
जो तुझे साकार मैं पाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


कैसे अपना आप मिटाऊँ
जो तुझमे खुद को समाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


कह निर्झर बहता दरिया बन जाऊँ
बस ह्रदय कुंज मे तुम्हें बसाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


सुधि ना तेरी कभी बिसराऊँ
बस श्याम नाम के ही गुण मैं गाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


रसना को नाम का चस्का लगाऊँ
बस सांसों की सरगम पर रटना लगाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


जब भी तेरी गली का फ़ेरा लगाऊँ
बस सलोने मुखडे के दर्शन पाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


एक शून्य मे तुम मिल जाओ
तुम्हें पाकर एक शून्य मै बन जाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


दृष्टि सृष्टि विलीन हो जाये
एक तेरा ही अक्स रह जाये
जिसमे मै एकाकार हो जाऊँ
अब तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


आकुलता व्याकुलता का चरम हो
वो क्षण जीव का परम हो
जब तेरे दिव्य दर्शन पाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


कालगति भी वहीं ठहर जाये
जब परमसत्य मे मैं मिल जाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …………


कैसे घट को घट में समाऊँ

घटाकाश को व्यापक बनाऊँ
कुछ तो बोलो मेरे मनमीत
मै शून्यकाल का अगीत …