Sunday, August 8, 2010

"मैं "का कोई अस्तित्व नहीं

मैं क्या हूँ ?
कुछ भी तो नहीं 
ब्रह्मांड में घूमते
एक कण के सिवा 
कुछ भी तो नहीं 
अकेले किसी 
कण की
सार्थकता नहीं
जब तक अणु 
परमाणु ना बने
जब तक उसके 
जीवन का कोई
प्रयोजन ना हो 
उद्देश्यहीन सफ़र
को मंजिल
नहीं मिलती 
हर डूबती लहर को 
साहिल नहीं मिलता 
और बिना बाती के 
जिस तरह 
दीया नहीं जलता
उसी तरह
"मैं "का कोई 
अस्तित्व नहीं
तब तक ......
जब तक
अस्तित्व बोध 
नहीं  होता  

27 comments:

  1. बहुत सुन्दर रचना है बधाई ।

    आप की इस रचना को पढ़ कर लगता है कि आध्यात्म की ओर आप के कदम बढ़ रहे हैं....बहुत अच्छी लगी रचना।

    ReplyDelete
  2. "मैं "का कोई
    अस्तित्व नहीं
    तब तक ......
    जब तक
    अस्तित्व बोध
    नहीं होता
    और शायद अस्तित्व बोध के बाद "मैं" विलुप्त भी हो जाता है
    विज्ञान से शुरू हुई कविता दर्शन पर खत्म हुई
    बहुत सुन्दर

    ReplyDelete
  3. Sach hai Vandana! Is 'mai'ko na apna aadi pata hai na ant! Aur ye madhy ka maqsad kya hai,ye to koyi buddh hee jaan paya!

    ReplyDelete
  4. 'मैं' का अहं एक क्षण में समाप्‍त हो जाता है .. बहुत सुदर रचना !!

    ReplyDelete
  5. जब तक ध्यान न दिया जाये, मैं का कोई अस्तित्व नहीं।

    ReplyDelete
  6. कमाल कि रचना है, बहुत गहराई लिए बेहतरीन रचना!

    ReplyDelete
  7. सही लिखा है!
    मैं का कोई अस्तित्व नही है!
    मैं के गले पर तो छुरी ही चलती है!
    --
    छन बकरी के गले के,
    आते है किस काम!
    जिससे न हो देश हित,
    वह जीवन बेकाम!

    ReplyDelete
  8. अलग अंदाज!!


    उम्दा रचना!

    ReplyDelete
  9. एक बेहतरीन रचना
    काबिले तारीफ़ शव्द संयोजन
    बेहतरीन अनूठी कल्पना भावाव्यक्ति
    सुन्दर भावाव्यक्ति .साधुवाद
    satguru-satykikhoj.blogspot.com

    ReplyDelete
  10. बिल्कुल सही..बेहतरीन अभिव्यक्ति!

    ReplyDelete
  11. वाह...आज तो बड़ी दार्शनिक ...विज्ञान से जोडती हुई ..अनुपम रचना लायी हो....

    मैं का बोध भी तभी होता है जब सामने कोई दूसरा हो....सुन्दर प्रस्तुति

    ReplyDelete
  12. वन्दना कुछ दिन अनुपस्थित रहने के लिये क्षमा चाहती हूँ रचना बहुत अच्छी है शायद दुनिया के सारे विवाद इस मैं से ही उपजते हैं। अच्छी रचना के लिये बधाई शुभकामनायें

    ReplyDelete
  13. बहुत खूब वंदना जी | मुझे नहीं पता था की आपके कई ब्लॉग हैं, एक सवाल है आपसे.....अगर आप सच जवाब दे तो ........मैं क्या हूँ ? ..कुछ भी तो नहीं ............ये लाइन आपने कहाँ से ली है?????????
    जहाँ तक मुझे पता है ये लाइन मेरी ब्लॉग प्रोफाइल में मैंने इस्तेमाल की है |
    बाकी आपकी कविता बहुत अछि है बधाई |

    ReplyDelete
  14. sukhad anubhav sebhari apne astitv ko niharti

    ReplyDelete
  15. मैं' के अस्तित्व को बहुत अच्छे ढंग से परिभाषित किया है. अगर इस सच को सब स्वीकार कर लें तो या जान ही लें तो फिर ये चारों ओर फैला हुआ अराजकता का साम्राज्य और मानव को मानव न समझने का रिवाज ख़त्म हो जाएगा.

    ReplyDelete
  16. मैं' के अस्तित्व को बहुत अच्छे ढंग से परिभाषित किया है. अगर इस सच को सब स्वीकार कर लें तो या जान ही लें तो फिर ये चारों ओर फैला हुआ अराजकता का साम्राज्य और मानव को मानव न समझने का रिवाज ख़त्म हो जाएगा.

    ReplyDelete
  17. मैं' के अस्तित्व को बहुत अच्छे ढंग से परिभाषित किया है. अगर इस सच को सब स्वीकार कर लें तो या जान ही लें तो फिर ये चारों ओर फैला हुआ अराजकता का साम्राज्य और मानव को मानव न समझने का रिवाज ख़त्म हो जाएगा.

    ReplyDelete
  18. @इमरान अंसारी जी,
    आपका हार्दिक आभार आपको रचना पसंद आयी।
    अब बात आपके सवाल की……………अगर आप विश्वास कर सकें तो आपको जानकर हैरानी होगी कि मैने आज तक आपका प्रोफ़ाइल नही पढा ………………हाँ कुछ रचनायें शायद पढी हों ………………इसलिये आपकी प्रोफ़ाइल से लेने का तो सवाल ही नही उठता दूसरी बात ये कोई ऐसा शब्द या वाक्य नही है जो किसी के दिल मे ना उठते हों…………आज हर कोई इसी तलाश मे तो भटक रहा है कि "मै क्या हूँ"और ये भी हर किसी को पता है कि वो " कुछ भी नही है"………तो ये एक आम वाक्य का प्रयोग किया है जिसका किसी से भी कोई संबंध नही होते हुये भी सभी की ज़िन्दगी का सच भी है……………कृपया आप ऐसा ना सोचें कि आपके या किसी के भी प्रोफ़ाइल से कुछ लिया है ये एक सार्वभौमिक सत्य है…………वैसे भी मुझे ऐसा करने की जरूरत नही है क्यूँ कि कुछ शब्द अपने आप आकर झंझोड जाते हैं और ऐसी रचनायें बन जाती हैं ।
    अब आपके कहने पर आपके ब्लोग पर जा रही हूँ देखने कि ऐसा कैसे हुआ एक जैसे शब्दों का गठजोड्।
    आभार्।

    ReplyDelete
  19. बहुत अच्छी प्रस्तुति।
    राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।

    ReplyDelete
  20. अस्तित्व बोध..!

    ....मैं को अस्तित्व बोध की लालसा रहती है और अस्तित्व बोध होते ही मैं गायब हो जाता है.

    जब मैं था तब हरी नहीं,अब हरी है मैं नाहीं
    सब अंधियारा मिटि गया,दीपक देख्या माहीं.

    ..सुदंर पोस्ट.

    ReplyDelete
  21. मंगलवार 10 अगस्त को आपकी रचना ... चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर ली गयी है .कृपया वहाँ आ कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ....आपकी अभिव्यक्ति ही हमारी प्रेरणा है ... आभार

    http://charchamanch.blogspot.com/

    ReplyDelete
  22. सुन्दर रचना !

    वन्दना जी ब्लॉग का फॉण्ट और back-ground mismatch के कारन ब्लॉग पढने में दिक्कत हो रही है | वैसे फॉण्ट और back-ground बदलने से पहले किसी अन्य से भी पुस्ती कर लें |

    धन्यवाद .

    ReplyDelete
  23. सत्य कहा....स्वत्व की अनुभूति बिना जीवन की सार्थकता संदिग्ध है...
    सुन्दर भाव और प्रखर अभिव्यक्ति...

    ReplyDelete
  24. vandna--kmal ka likhti hain aap...maine aapki kavitaen padhi...achha lga...mujhe kavita-kahani padhne ka saukh hai..kyonki....mai bhi kavita kahani likhta hun....mere ek kavita ki do line likh rha hu.....ravindar naam ka ladka ab ravi ho gya hai--jo top-taap kar likhta tha wo kavi ho gya hai.....aapse nivedan hai ki=====www.cavstoday.blogspot.com padhte rahiyega. thoda bahut mai bhi usme likhta hu..filhal DAINIK JAGRAN REWA MADHYA PRADESH ME TREINEE REPORTER HUN.

    ReplyDelete
  25. बढ़िया अभिव्यक्ति...सुंदर रचना के लिए आभार

    ReplyDelete
  26. "मैं "का कोई
    अस्तित्व नहीं
    तब तक ......
    जब तक
    अस्तित्व बोध
    नहीं होता
    .........बहुत सुंदर कृति!

    ReplyDelete