इक दिन
बाल गोपालो और बलराम जी संग
कान्हा क्रीडा करते थे
इसी क्रम मे उन्होने
मृद भक्षण किया
जिसे बाल गोपालो ने देख लिया
जाकर यशोदा को बतलाया
और मैया ने कान्हा को धमकाया
जब यशोदा ने क्रोध किया
तब कान्हा ने बोल दिया
मैया मैने माटी नही खायी
ग्वाल बाल झूठ बोल रहे हैं
श्री दामा बोल पडा
दाऊ दादा से चाहे
पूछ लो मैया
इतना सुन दाऊ दादा ने कह दिया
मैया कान्हा ने माटी खायी है
ये सुन कान्हा दाऊ दादा के पास गये
और धीरे से कान मे कहने लगे
अगर ऐसी बात कहोगे तो
मै भी तुम्हारा सच
मैया को बतला दूँगा
दाऊ दादा भांग का गोला खाते है
सब कह दूँगा
इतना सुन बलराम जी घबरा गये
और कहने लगे
मैया मैने देखा नही
सबने कहा तो मैने भी कह दिया
श्री दामा बोले मैया
ये दोनो एक ही डाल के तूम्बडा हैं
इनकी बातो मे ना आना
बस तुम इसका मूँह
खोल के देख लेना
और जैसे ही कान्हा ने
मूँह को खोला है
मैया को उसमे
त्रिलोक का दर्शन हुआ है
उसमे मैया चर अचर
सम्पूर्ण जगत को देख रही है
आकाश, दिशायें , पाताल
द्वीप , समुद्र, पृथ्वी,
सभी के दर्शन कर रही है
देवी देवता यक्ष किन्नर
सभी जीवो के दर्शन कर रही है
उसी मे उसने
बृज क्षेत्र को भी देखा है
और उसमे ही उसने
नन्दालय मे कान्हा का
मूँह खोलते खुद को देखा है
ये देख मैया घबरा गयी
और आँखे बंद कर लीं
मन मे यशोदा सोच रही है
ये तो चराचर विश्व के पालक हैं
मैने त्रिलोकीनाथ को धमकाया है
कैसे अब मैं माफ़ी मांगूँ
मैया मन ही मन सोच रही है
और डर कर आंखे खोल रही है
उन्हे देख कन्हा मुस्काये हैं
और अपनी सारी माया
समेट ली है
जो कुछ मैया ने देखा
सब विस्मृत कर दिया
और जैसे ही दोबारा
माँ ने मूँह मे देखा
वहाँ ना कोई चमत्कार दिखा
भोली माँ इसे मन का
भ्रम समझ बैठी
और प्राणप्यारे को
गले लगा बैठी
मगर माटी खाने की लीला मे
प्रभु ने एक संदेश दिया है
एक भाव से प्रभु विचारते हैं
मुझमे तो सिर्फ़ सतगुण का ही बसेरा है
और यहाँ धरा पर कुछ
रजोगुण कर्म भी करना होगा
इसलिये कुछ रज का भी
भक्षण करना होगा
संस्कृत मे पृथ्वी का नाम
‘रसा’ भी होता है
श्री कृष्ण ने सोचा
सभी रसो का आनन्द तो ले चुका हूँ
कुछ ‘ रसा रस’ का भी
आस्वादन करूँ
इक भाव से खडे सोच रहे हैं
मैने पहले विष भक्षण किया
अब मृदा खा उसका उपचार किया
गोपियो का माखन भी खाया है
तो मिट्टी खा मुख साफ़ भी तो करना है
कान्हा के उदर मे
सम्पूर्ण सृष्टि समाहित है
हर कोई बृज रज और गोपियों की रज
पाना चाहता है
ये सोच कान्हा ने
सबकी मनोकामना पूर्ण करने को
मृदा भक्षण किया
और हर प्राणी को
बृज रज से तृप्त किया
क्रमशः -----------
यह प्रयास कृष्ण को गुनने का नहीं ,आपने तो उनको हमारे बीच रख दिया ...
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति ..
ReplyDeleteभक्तिमय पोस्ट, बहुत अच्छा बखान किया है,आभार !
ReplyDeleteभगवान् की लीलाओं से बढ़कर जगत में कुछ नहीं,कवि अथवा कवियत्री की कलम सच्चे अर्थों में तभी संपूर्ण,अर्थपूर्ण व मंगलकारी होती है जब उससे भगवत महिमा निकले |
गोस्वामी तुलसीदास जी ने बालकाण्ड में इसका उल्लेख किया है -
भगति हेतु बिधि भवन बिहाई। सुमिरत सारद आवति धाई॥2॥
भावार्थ:-इसी तरह, बुद्धिमान लोग कहते हैं कि सुकवि की कविता भी उत्पन्न और कहीं होती है और शोभा अन्यत्र कहीं पाती है (अर्थात कवि की वाणी से उत्पन्न हुई कविता वहाँ शोभा पाती है, जहाँ उसका विचार, प्रचार तथा उसमें कथित आदर्श का ग्रहण और अनुसरण होता है)। कवि के स्मरण करते ही उसकी भक्ति के कारण सरस्वतीजी ब्रह्मलोक को छोड़कर दौड़ी आती हैं॥2॥
राम चरित सर बिनु अन्हवाएँ। सो श्रम जाइ न कोटि उपाएँ॥
कबि कोबिद अस हृदयँ बिचारी। गावहिं हरि जस कलि मल हारी॥3॥
भावार्थ:-सरस्वतीजी की दौड़ी आने की वह थकावट रामचरित रूपी सरोवर में उन्हें नहलाए बिना दूसरे करोड़ों उपायों से भी दूर नहीं होती। कवि और पण्डित अपने हृदय में ऐसा विचारकर कलियुग के पापों को हरने वाले श्री हरि के यश का ही गान करते हैं॥3॥
कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना। सिर धुनि गिरा लगत पछिताना॥
हृदय सिंधु मति सीप समाना। स्वाति सारदा कहहिं सुजाना॥4॥
भावार्थ:-संसारी मनुष्यों का गुणगान करने से सरस्वतीजी सिर धुनकर पछताने लगती हैं (कि मैं क्यों इसके बुलाने पर आई)। बुद्धिमान लोग हृदय को समुद्र, बुद्धि को सीप और सरस्वती को स्वाति नक्षत्र के समान कहते हैं॥4॥
जौं बरषइ बर बारि बिचारू। हो हिं कबित मुकुतामनि चारू॥5॥
भावार्थ:-इसमें यदि श्रेष्ठ विचार रूपी जल बरसता है तो मुक्ता मणि के समान सुंदर कविता होती है॥5॥
अति सुंदर भाव और भावना !
ReplyDeleteशुभकामनायें आपको !
मानो, सामने घटित होती लीला।
ReplyDeleteरजोगुण के लिये रज-भक्षण बड़ा ही रोचक प्रसंग.एक सीरियल का आनंद आ रहा है
ReplyDeleteकृष्ण लीला का सुंदर वर्णन अच्छा लगा ....
ReplyDeleteकृष्ण जी की लीलाएं बाल्यावस्था से ही आरंभ हो गयीं थीं...माँ को भी एहसास दिला दिया कि वो कोई सामान्य बालक नहीं हैं...
ReplyDeleteप्रभू की लीला अपरंपार है!
ReplyDeleteजय श्रीकृष्णा!
आपकी कविता से कृष्ण के बारे में ज्ञान भी बढ़ रहा है.. सुन्दर कविता...
ReplyDeleteआपकी कविता से कृष्ण के बारे में ज्ञान भी बढ़ रहा है.. सुन्दर कविता...
ReplyDeleteहमेशा की तरह कृष्ण लीला का सुंदर वर्णन आभार
ReplyDeleteनमस्कार वंदना जी..यहाँ आकर मै अक्सर कृष्णमय हो जाता हूँ....राधा सी पवित्र और उनके प्रेम सी अनोखी और सुंदर रचना।
ReplyDeletebahut hi sundar parstuti...
ReplyDeletejai hind jai bharat
श्रीकृष्ण जी की लीला अपरंम्पार है...भावमयी प्रस्तुति|
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और भावपूर्ण कृष्ण लीला प्रस्तुती! ज्ञानवर्धक पोस्ट!
ReplyDeleteआपके पोस्ट पर आना सार्थक सिद्ध हुआ । । मेरे पोस्ट पर आप आमंत्रित हैं । धन्यवाद ।
ReplyDeleteएक भाव से प्रभु विचारते हैं मुझमे तो सिर्फ़ सतगुण का ही बसेरा है और यहाँ धरा पर कुछ रजोगुण कर्म भी करना होगा इसलिये कुछ रज का भी भक्षण करना होगा
ReplyDeleteसंस्कृत मे पृथ्वी का नाम ‘रसा’ भी होता है श्री कृष्ण ने सोचा सभी रसो का आनन्द तो ले चुका हूँ कुछ ‘ रसा रस’ का भी आस्वादन करूँ
इक भाव से खडे सोच रहे हैं मैने पहले विष भक्षण किया अब मृदा खा उसका उपचार किया
गोपियो का माखन भी खाया है तो मिट्टी खा मुख साफ़ भी तो करना है
आप भी क्या क्या विचार लेती हैं,वंदना जी.
कान्हा को 'रज','रसा',मृदा का स्वाद चखा देती हैं.मिटटी से मुख का माखन साफ़ करवा
देती हैं,दाऊ दादा को भांग का गोला खिलवा
देती है.
आप की महिमा बस आप ही जाने जी.