इक दिन मैया
दधि मन्थन करने लगी
तभी आकर मोहन ने
मथानी पकड ली
मोहन मथानी पकड
मचलने लगे
जिन्हे देख देवताओं, वासुकि सर्प
मन्दराचल, शंकर जी के ह्रदय
कांपने लगे
वे मन ही मन प्रार्थना
ये करने लगे
प्रभो! मथानी मत पकडो
कहीं प्रलय ना हो जाये
और सृष्टि की मर्यादा मिट जाये
शंकर जी सोचने लगे
इस बार मंथन मे निकले विष का
कैसे पान करूँगा
अब किस कंठ मे धारण करूँगा
कष्ट के कारण समुद्र संकुचित हो गया
पर सूर्य को आनन्द हुआ
अब प्रलय होगी तो
मेरा भ्रमण बन्द होगा
और लक्ष्मी जी भी
ये सोच सोच मुस्काने लगीं
प्रभु से मेरा पुनर्विवाह होगा
प्रभु की इस लीला ने
किसी को सुखी तो
किसी को दुखी किया है
और प्रभु के मथानी पकडते ही
कैसा अद्भुत दृश्य बना है
पर मैया अति आनन्दित हुई है
जब दधि के छींटों को
प्रभु के मुखकमल पर देखा है
बार बार मैया से
माखन मांग रहे हैं
और मैया कह रही है
कान्हा पहले नृत्य तो करके दिखलाओ
और मोहन माखन के लालच मे
ठुमक ठुमक कर नाच रहे हैं
मैया के ह्रदय को हुलसा रहे हैं
जिसे देख सृष्टि भी थम गयी है
देवी देवता अति हर्षित हुये हैं
बाल लीलाओ से कान्हा ने
सबके मनो को मोहा है
मैया के मन में ख्याल आया
सबने मोहन को खुद है माखन खिलाया
आज उसके लिए मैं खुद
माखन निकालूंगी
अपने प्राण प्यारे को भोग लगूंगी
ये सोच
इक दिन मैया ब्रह्म मुहूर्त मे
दधि मन्थन करने बैठ गयी
दधि मन्थन करते समय
कान्हा का स्मरण करने लगी
हाथो से दधि को मथती है
और वाणी से गाती जाती है
सेवा तीन तरह की होती है
कायिक, वाचिक और मानसिक
आज मैया तीनो तरह की
सेवा कर रही है
प्रभु प्रेम मे झूम रही है
कमर मे रेशमी लहंगा पहन रखा है
ताकि कोई अपवित्रता ना मोहन को लग जाये
रेशमी वस्त्र पवित्रता का
द्योतक माना जाता है
अर्थात आलस्य , प्रमाद, असावधानी
ना चित्त मे आने पाये
सेवाकर्म मे पूरी तत्परता रहे
माता का ह्रदय स्नेह रस से भीग रहा है
कानो के कुण्ड्ल और हाथो के कंगन
झंकार कर धन्य हो रहे हैं
क्योंकि आज मैया के द्वारा
प्रभु के लिये दधि मन्थन हो रहा है
और हम भी प्रभु सेवा मे लगे हैं
हाथ वो ही धन्य कहाते है
जो प्रभु सेवा मे तत्पर रहते हैं
कान वो ही धन्य कहाते हैं
जो प्रभु के दिव्य गान सुनते हैं
वाणी वो ही पवित्र कहाती है
जो प्रभु की लीलाओ का
गुणगान किया करती है
दधिमन्थन करते करते
मैया के मुख पर
स्वेदकण छलक रहे हैं
और मालती के पुष्प
जूडे से नीचे गिर रहे हैं
मैया अपना श्रृंगार और शरीर
भूल चुकी है
यही प्रभु सेवा की
अति उत्तम रीति है
जिसमे शरीर की सुध भी
बिसरा जाती है
जब प्रेम चरम पर पहुंच गया
तब श्यामसुन्दर ने मैया की तरफ़
रुख किया..........
क्रमशः ..................
नई जानकारी मिली हैं ........आभार
ReplyDeleteदधिमन्थन करते करते मैया के मुख पर स्वेदकण छलक रहे हैं और मालती के पुष्प जूडे से नीचे गिर रहे हैं मैया अपना श्रृंगार और शरीर भूल चुकी है...
ReplyDeleteवाह! यशोदा मैया के भक्ति में सरावोर रूप का अद्भुत चित्रण...
भावमय करती यह प्रस्तुति ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर व भक्तिमय रचना है। सुन्दर चित्रण किया है।
ReplyDeleteprabhu kee hi leela hai aapka yun likhna...
ReplyDeleteबहुत अच्छी भावपूर्ण सुंदर रचना,..
ReplyDeleteबहुत अच्छी भावपूर्ण सुंदर रचना,..
ReplyDeleteप्रभु भक्ति और माँ के वात्सल्य का अद्भुत चित्रण किया है.. उम्दा
ReplyDeleteसुन्दर,भावमयी प्रस्तुति .
ReplyDeleteभक्ति रस की बहुत बढ़िया प्रस्तुति!!
ReplyDeleteबढ़िया प्रस्तुति!
ReplyDeleteवात्सल्य, भक्ति और मनोहारी प्रसंग.
ReplyDeleteबहुत अच्छी भावपूर्ण सुंदर भक्तिमय रचना है। अद्भुत
ReplyDeleteभावमयी प्रस्तुति !
mujhe to laga ek kshan ko ki main hi maiyaa Yashoda hi ban gayi hoon.....Adbhut.... Vandana....bahut hi achcha chitran....
ReplyDeleteसेवा तीन तरह की होती है कायिक, वाचिक और मानसिक आज मैया तीनो तरह की सेवा कर रही है प्रभु प्रेम मे झूम रही है
ReplyDeleteआप भी तो प्रभु प्रेम में ही झूम रहीं है न वंदना जी.आपके हिचकोले हम में भी आनंद का संचार कर रहे हैं.
अनुपम झूमती हुई प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत आभार जी.