अहंकार के दो बच्चे
"मै" और" मेरा"
खूब फ़ले फ़ूले
अहंकार की चाशनी मे
बहुत मीठे लगे
वक्त के साथ
परवान चढते रहे
अहंकार के शिखर
तक पहुंच गये
और फिर लगी
इक ठेस
और धरातल भी
नसीब ना हुआ
"मै" तो पल मे
चकनाचूर हुआ
दर्प अहंकार का
नेस्तनाबूद हुआ
जब "मेरा" ने
उसे दुत्कार दिया
"मै" ने "मेरा" को
कुछ ऐसे पोषित किया
"मेरा" ने "मै" का
सब कुछ छीन लिया
अब ना "मै" है
ना "मेरा" है
जीवन मे आया
नया सवेरा है
छोड दिया "मै" ने
"मेरा" को और
ओढ ली चादर
हरि नाम की
तन राखा संसार मे
मन कर दिया अर्पण
कृपानिधान को
"मै" और" मेरा"
खूब फ़ले फ़ूले
अहंकार की चाशनी मे
बहुत मीठे लगे
वक्त के साथ
परवान चढते रहे
अहंकार के शिखर
तक पहुंच गये
और फिर लगी
इक ठेस
और धरातल भी
नसीब ना हुआ
"मै" तो पल मे
चकनाचूर हुआ
दर्प अहंकार का
नेस्तनाबूद हुआ
जब "मेरा" ने
उसे दुत्कार दिया
"मै" ने "मेरा" को
कुछ ऐसे पोषित किया
"मेरा" ने "मै" का
सब कुछ छीन लिया
अब ना "मै" है
ना "मेरा" है
जीवन मे आया
नया सवेरा है
छोड दिया "मै" ने
"मेरा" को और
ओढ ली चादर
हरि नाम की
तन राखा संसार मे
मन कर दिया अर्पण
कृपानिधान को
मेरा" ने "मै" का
ReplyDeleteसब कुछ छीन लिया
अब ना "मै" है
ना "मेरा" है,,,, bahut badhiyaa
अहंकार के दो बच्चे
ReplyDelete"मै" और" मेरा"
खूब फ़ले फ़ूले
अहंकार की चाशनी मे
बहुत मीठे लगे...
--
बहुत सुन्दर!
सारा झगड़ा तो मैं और मेरा का ही है!
बढ़िया बिम्ब है अहम् का.. सुन्दर कविता बन गई है..
ReplyDeleteआजकल लग रहा है आप अनूप जलोटा को अधिक सुन रही हैं ! शुभकामनायें !!
ReplyDeleteमेरा और तेरा ने ही महाभारत को जन्म दिया.
ReplyDeleteआपने अपनी सुन्दर प्रस्तुति द्वारा ज्ञान का संचार किया है .इसके लिए बहुत बहुत आभार आपका.
कृपया ,मेरे ब्लॉग पर आयें,नई पोस्ट जारी की है
कितना कुछ छीन लेता है, मैं और मेरा।
ReplyDeleteमैं और मेरा से अब तेरा हो गया ...बहुत अच्छी प्रस्तुति
ReplyDeleteअहंकार के दो बच्चे
ReplyDelete"मै" और" मेरा"
खूब फ़ले फ़ूले
अहंकार की चाशनी मे
बहुत मीठे लगे
कविता मे बहुत सुंदर संदेश मिला, धन्यवाद
ज्ञान के प्रकाश में आध्यात्मिकता की शुरुआत...
ReplyDeleteअहम से वयम तक की यात्रा ही सफलता का सूत्र है।
ReplyDeleteवंदना जी बहुत पसंद आई ये रचना।
ReplyDeletesunder or mithi prastuti !
ReplyDeleteओढ ली चादर
ReplyDeleteहरि नाम की
तन राखा संसार मे
मन कर दिया अर्पण
कृपानिधान को....
बहुत सुन्दर दार्शनिक कविता...
बहुत गहराई है भावों में...
बहुत बढ़िया और सच्चा खेल दिखाया 'मै' और 'मेरा' का!यही तो जड़ बतायी गयी है..
ReplyDeleteकुँवर जी,
adhyatm ka dhyan ,shreshthhata ki pahchan . suner manohari rachana .badhayiyan ji .
ReplyDelete"मै" और" मेरा" को सहज ढंग से व्याख्यायित किया है आपने अपनी इस कविता में....
ReplyDeleteहार्दिक बधाई !
"मै" ने "मेरा" को
ReplyDeleteकुछ ऐसे पोषित किया
"मेरा" ने "मै" का
सब कुछ छीन लिया
बहुत सुंदर लिखा है ...!!
सटीक ज्ञानवर्धक सुंदर अभिव्यक्ति .....!!
बहुत सुंदर भावों को पिरोये अनुभव से उपजी कविता !
ReplyDeleteSach hai ye baisaakhi raaste mein hi toot jaati hai ... bas hari maan hi saath rahta hai ..
ReplyDeleteदुनियादारी से दियानतदारी के बीच उलझा इंसान जब जीवन की गंभीरता को समझने लगता है तब मैं और मेरा से निकलना चाहता है. इसी भाव को बखूबी दर्शाती हुयी सुन्दर रचना.
ReplyDeleteबहुत पसंद आई ...मैं और मेरा का ही है सारा झगड़ा...शुभकामनायें
ReplyDeleteअहंकार के दो बच्चे
ReplyDelete"मै" और" मेरा"
खूब फ़ले फ़ूले
अहंकार की चाशनी मे
बहुत मीठे लगे...
क्या बात कही है वंदना जी...लोग व्यर्थ में इसे पाले रहते है...बहुत खूब
मैं और मेरा छूटने के बाद ही इश्वर के निकट पहुंचा जा सकता है ...बहुत अच्छे विचार ..बधाई
ReplyDeleteऔर साथ ही आपकी टिप्पणियों के लिए बहुत बहुत धन्यवाद जो समय समय पर ऊर्जा प्रदान करती हैं
मीरामय भाव.
ReplyDeleteसुन्दर बिम्बात्मक रचना
ReplyDeleteकल 03/04/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल (विभा रानी श्रीवास्तव जी की प्रस्तुति में) पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!
मैं का दर्प इंसान को अँधा , बहरा, संवेदनशून्य बना देता है .....लेकिन जब वह चूर होता है .....तो मात्र इश्वर की शरण ही रह जाती है ....बहुत सुन्दर भाव !
ReplyDeleteमर्म अलौकिक समझा जाना। बिना अहं जग स्वर्ग समाना।।
ReplyDeleteसुंदर कविता....
सादर।
'मैं' और 'मेरा' ... क्या बात ... !!
ReplyDelete