कैसे धार्मिक हैं हम ?
हमने धार्मिकता सिर्फ ओढ़ी हुई है मगर अपनाई नहीं है . अगर अपनाई होती तो आज ये हालत ना होती ...........आज आप देखिये हमारे देवी - देवता और बड़े- बड़े साधू संतों की तस्वीरें और मूर्तियाँ कैसे जमीन में धूल चाट रही होती हैं ..........जिस दिन मिलेंगी तो बहुत करीने से सहेजेंगे हम सब और यदि ना मिले तो लेने की भूख .......हर हाल में लेकर ही रहते हैं आखिर मुफ्त का माल होता है .......और घर लाकर उसे कुछ दिन दीवार की शोभा बना देते हैं या मंदिर में बिठा देते हैं ..........उसके बाद जब वो पुरानी हो जाती हैं तो हम क्या करते हैं ?
हम सभी उन्हें उठाते हैं और किसी पीपल पर या चौराहे पर या नदी में प्रवाहित कर देते हैं . मगर कभी सोचा उसके बाद उनका क्या हुआ ? हमने तो अपना काम करके इतिश्री कर ली मगर उसके बाद उन प्रतिमाओं और तस्वीरों का क्या हश्र होता है कोई जानना नहीं चाहता............
आज के वक्त में अगर नदी में प्रवाहित करते हैं तो वो प्रदूषित हो जाती है तो इससे बचने के लिए लोग उन्हें पीपल पर या चौराहे पर रखने लगे मगर कभी नहीं जानना चाहा कि अगले दिन उनके साथ क्या हुआ ?
वैसे पता सबको होता है मगर ये सोचकर कि हमने तो अपना काम कर दिया अब जो चाहे सो हो करके खुद को तसल्ली दे देते हैं जबकि अगले दिन उन तस्वीरों और प्रतिमाओं को भंगी सफाई करते हुए अपने साथ कूड़े में समेट कर ले जाता है ...........तो ये होता है हमारे देवी देवताओं और संतों की प्रतिमाओं का हश्र?
क्या हमारा धर्म हमें यही सिखाता है ? या हम सब इतने नासमझ हैं वैसे तो धर्म के नाम पर एक दूसरे को मारने काटने को तैयार हो जाते हैं मगर कभी ये नहीं सोचते कि क्या ऐसा होने से रोकना हमारा धर्म नहीं?
क्यूँ सोचें भाई ? इसके लिए दुनिया पड़ी है और किसके पास वक्त है इतना ? लेकिन क्या हमारी अन्तरात्मा हमें नहीं धिक्कारती . इससे तो अच्छा है कि हम कम से कम तस्वीरें रखें जितनी हम संभाल सकें और यदि ख़राब हो जाये या मन से उतर जायें तो अपने घर में कामवाली बाई को दे दें या फिर उसे किसी उद्यान में , किसी खेत खलिहान में मिटटी में दबा दें कम से कम ना तो प्रदुषण होगा और ना ही अपमान और धार्मिकता भी बनी रहेगी ...........हम लोग हवन करते हैं तो सारी हवन की राख़ आखिर में नदी में प्रवाहित करने की परंपरा है और हम उसका पालन करते हैं ये सोचकर कि ऐसा नहीं किया तो कुछ गलत हो जायेगा मगर ये नहीं सोचा कि इससे प्रदुषण बढेगा .......अब यदि इसी को हम बागों में , खेतों में मिटटी में दबा दें तो वहाँ ना तो धर्म और ना ही मर्यादा का उल्लंघन होगा और उसके परमाणु से आस- पास का वातावरण भी शुद्ध होगा.............अगर हम सब इन छोटी - छोटी चीजों पर ध्यान दें तो ये हमारे और हमारे धर्म और भविष्य सबके लिए हितकर होगा .
ये हम सबका कर्तव्य है कि हम सब मिलकर अपने धर्म की रक्षा करें और उसे पांव ताले ना रौंदें. ये सब मैंने आँखों देखा ही कहा है ज्यादातर मंदिरों आदि में भी ऐसा हो रहा है .........इसलिए हम सबको इस तरफ ध्यान देना चाहिए और अपने कर्त्तव्य का निर्वाह करना चाहिए तभी हम सही मायने में हिन्दू या धर्मनिष्ठ कहलाने के अधिकारी हैं .
हम सभी उन्हें उठाते हैं और किसी पीपल पर या चौराहे पर या नदी में प्रवाहित कर देते हैं . मगर कभी सोचा उसके बाद उनका क्या हुआ ? हमने तो अपना काम करके इतिश्री कर ली मगर उसके बाद उन प्रतिमाओं और तस्वीरों का क्या हश्र होता है कोई जानना नहीं चाहता............
आज के वक्त में अगर नदी में प्रवाहित करते हैं तो वो प्रदूषित हो जाती है तो इससे बचने के लिए लोग उन्हें पीपल पर या चौराहे पर रखने लगे मगर कभी नहीं जानना चाहा कि अगले दिन उनके साथ क्या हुआ ?
वैसे पता सबको होता है मगर ये सोचकर कि हमने तो अपना काम कर दिया अब जो चाहे सो हो करके खुद को तसल्ली दे देते हैं जबकि अगले दिन उन तस्वीरों और प्रतिमाओं को भंगी सफाई करते हुए अपने साथ कूड़े में समेट कर ले जाता है ...........तो ये होता है हमारे देवी देवताओं और संतों की प्रतिमाओं का हश्र?
क्या हमारा धर्म हमें यही सिखाता है ? या हम सब इतने नासमझ हैं वैसे तो धर्म के नाम पर एक दूसरे को मारने काटने को तैयार हो जाते हैं मगर कभी ये नहीं सोचते कि क्या ऐसा होने से रोकना हमारा धर्म नहीं?
क्यूँ सोचें भाई ? इसके लिए दुनिया पड़ी है और किसके पास वक्त है इतना ? लेकिन क्या हमारी अन्तरात्मा हमें नहीं धिक्कारती . इससे तो अच्छा है कि हम कम से कम तस्वीरें रखें जितनी हम संभाल सकें और यदि ख़राब हो जाये या मन से उतर जायें तो अपने घर में कामवाली बाई को दे दें या फिर उसे किसी उद्यान में , किसी खेत खलिहान में मिटटी में दबा दें कम से कम ना तो प्रदुषण होगा और ना ही अपमान और धार्मिकता भी बनी रहेगी ...........हम लोग हवन करते हैं तो सारी हवन की राख़ आखिर में नदी में प्रवाहित करने की परंपरा है और हम उसका पालन करते हैं ये सोचकर कि ऐसा नहीं किया तो कुछ गलत हो जायेगा मगर ये नहीं सोचा कि इससे प्रदुषण बढेगा .......अब यदि इसी को हम बागों में , खेतों में मिटटी में दबा दें तो वहाँ ना तो धर्म और ना ही मर्यादा का उल्लंघन होगा और उसके परमाणु से आस- पास का वातावरण भी शुद्ध होगा.............अगर हम सब इन छोटी - छोटी चीजों पर ध्यान दें तो ये हमारे और हमारे धर्म और भविष्य सबके लिए हितकर होगा .
ये हम सबका कर्तव्य है कि हम सब मिलकर अपने धर्म की रक्षा करें और उसे पांव ताले ना रौंदें. ये सब मैंने आँखों देखा ही कहा है ज्यादातर मंदिरों आदि में भी ऐसा हो रहा है .........इसलिए हम सबको इस तरफ ध्यान देना चाहिए और अपने कर्त्तव्य का निर्वाह करना चाहिए तभी हम सही मायने में हिन्दू या धर्मनिष्ठ कहलाने के अधिकारी हैं .
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