मोह का छोटा सा अंकुर भी
कैसे झुलसा जाता है
रे मन !
तू इतना सा भी
ना समझ पाता है
तेरे वर्षों के तप को
खंडित कर जाता है
फिर दूर बैठा मुस्काता है
रे मन !
तू इतना सा भी
ना समझ पाता है
तुझसे तेरा ही
सब छीन ले जाता है
देख कैसी
धमाचौकड़ी मचाता है
कहीं का नहीं
फिर छोड़ पाता है
जब अपनों की
लात खाता है
रे मन !
तू इतना सा भी
ना समझ पाता है
ये आदमखोर है ऐसा
जो जीते जी को खाता है
पर इसके पंजों से
ना छूट पाता है
रे मन !
तू इतना सा भी
ना समझ पाता है
ये मोह की ऐसी
जोंक है जो
अमरबेल सी
लिपट जाती है
फिर तो राम नाम की
वीणा से ही
मन विश्रांति पाता है
रे मन !
तू इतना सा भी
ना समझ पाता है
कैसे झुलसा जाता है
रे मन !
तू इतना सा भी
ना समझ पाता है
तेरे वर्षों के तप को
खंडित कर जाता है
फिर दूर बैठा मुस्काता है
रे मन !
तू इतना सा भी
ना समझ पाता है
तुझसे तेरा ही
सब छीन ले जाता है
देख कैसी
धमाचौकड़ी मचाता है
कहीं का नहीं
फिर छोड़ पाता है
जब अपनों की
लात खाता है
रे मन !
तू इतना सा भी
ना समझ पाता है
ये आदमखोर है ऐसा
जो जीते जी को खाता है
पर इसके पंजों से
ना छूट पाता है
रे मन !
तू इतना सा भी
ना समझ पाता है
ये मोह की ऐसी
जोंक है जो
अमरबेल सी
लिपट जाती है
फिर तो राम नाम की
वीणा से ही
मन विश्रांति पाता है
रे मन !
तू इतना सा भी
ना समझ पाता है
कविता का सोता कहाँ से प्रस्फुटित होता है? ये तो पता नहीं, हाँ इतना जरूर कहा जा सकता है, वन्दना रूपी सागर की लहरें कविता के हिमाल को छू ही जातीं हैं ....... इस रचना को देखिये.......... क्या ये सच नहीं?
ReplyDeleteयह मोह ही तो है जो मन को दिग्भ्रमित करता रहता है ....सुन्दर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteये मोह की ऐसी
ReplyDeleteजोंक है जो
अमरबेल सी
लिपट जाती है
फिर तो राम नाम की
वीणा से ही
मन विश्रांति पाता हैaur mukt hota hai, rahasyavaad ka samavesh hai
क्या यह नासमझी का दर्द तुझे सोने देता है ?
ReplyDeleteतुझसे तेरा ही
ReplyDeleteसब छीन ले जाता है
देख कैसी
धमाचौकड़ी मचाता है
कहीं का नहीं
फिर छोड़ पाता है
जब अपनों की
लात खाता है
रे मन !
तू इतना सा भी
ना समझ पाताहै
बहुत अच्छी रचना
बहुत सुन्दर 'प्रयास' है वंदनाजी मन को समझाने का.भक्ति और विरक्ति को प्रेरित करता यह आपका सुप्रयास मुक्ति की ओर ले जानेवाला है.
ReplyDeleteमोह की जोंक का सफल इलाज बताया आपने
'ये मोह की ऐसी
जोंक है जो
अमरबेल सी
लिपट जाती है
फिर तो राम नाम की
वीणा से ही
मन विश्रांति पाता है'
bahut bahut aabhar aapka.
YE MOH KI ESI JONK HAI, AMARBEL SI LIPAT JATI HAI . . . .BAHUT KHUB. . . . .
ReplyDeleteJAI HIND JAI BHARAT
raam ji karenge bera paar...
ReplyDeleteaapki rachna ke liye bahut aabhaar
मन की राह विषम है।
ReplyDeleteजीवन की गहनता और उसकी सघनता का अनुभव आध्यात्म में होता है. जीवन के एक पाट को खूबसूरती से चित्रित करती हुयी रचना.
ReplyDeleteस्वगत आलाप-प्रलाप की यह रचना बहुत खूब रही!
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्ति!
मन ही तो है....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति..
"मन रे....तू काहे न धीर धरे...!" मन सब कुछ जानते समझते भी नासमझ रहना चाहता है...खूबसूरत अभिव्यक्ति
ReplyDeleteमोह से मुक्त होकर साधू ही न बन जाये. ये मानव मन का सबसे गहरा भाव है. तभी तो वह मोह के सागर में डूबता तिरता रहता है.
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteअभिव्यक्ति का यह अंदाज निराला है. आनंद आया पढ़कर.
ReplyDeleteये मोह की ऐसी
ReplyDeleteजोंक है जो
अमरबेल सी
लिपट जाती है
जब से ब्लॉग बनाया है आपको पढ़ती गई हूँ , जादू है कलम में
मन चंचल जो हे हर बार भुलावे मे आ जाता हे, बहुत सुंदर रचना, धन्यवाद
ReplyDeleteजीवन के सफर में मन का बन्धन...
ReplyDeleteमन की थाह लगाना कठिन है।
ReplyDeleteकविता अच्छी लगी।
true !
ReplyDeleteमन को समझाना आसान नहीं ...शुभकामनायें आपको !
ReplyDeleteये मोह की ऐसी
ReplyDeleteजोंक है जो
अमरबेल सी
लिपट जाती है
फिर तो राम नाम की
वीणा से ही
मन विश्रांति पाता है...
कितना भी कोशिश करो कहाँ छूट पाता है यह मोह का बंधन..बहुत सुन्दर और सार्थक रचना..आभार
मोह को मन कब समझ पाया है भला ...
ReplyDeleteबेहतरीन अभिव्यक्ति