ना जाने कैसा सवेरा है
किसने घेरा है
कौन पथिक है
कहाँ जाना है
क्या करना है
आगत विगत में उलझा है
मोह निशा में भटका है
मन ने मचाया हल्ला है
दिखता ना कोई अपना है
कभी लगता जहाँ अपना है
कभी लगता सब सपना है
कैसी अबूझ पहेली है
जितनी सुलझाओ उलझी है
जीवन नैया डोली है
बीच भंवर में अटकी है
मल्लाह ना कोई मिलता है
पार ना कोई दीखता है
ये कैसा जीवन खेला है
जहाँ कोई ना तेरा मेरा है
जानता सब कुछ है फिर भी
पथिक भटकता फिरता है
राह विषम ये दिखती है
मंजिल भी तो नहीं मिलती है
किस आस के सहारे बढ़ता जाये
किसके सहारे जीता जाये
कोई ना संबल दिखता है
मन भूला भूला फिरता है
किसने घेरा है
कौन पथिक है
कहाँ जाना है
क्या करना है
आगत विगत में उलझा है
मोह निशा में भटका है
मन ने मचाया हल्ला है
दिखता ना कोई अपना है
कभी लगता जहाँ अपना है
कभी लगता सब सपना है
कैसी अबूझ पहेली है
जितनी सुलझाओ उलझी है
जीवन नैया डोली है
बीच भंवर में अटकी है
मल्लाह ना कोई मिलता है
पार ना कोई दीखता है
ये कैसा जीवन खेला है
जहाँ कोई ना तेरा मेरा है
जानता सब कुछ है फिर भी
पथिक भटकता फिरता है
राह विषम ये दिखती है
मंजिल भी तो नहीं मिलती है
किस आस के सहारे बढ़ता जाये
किसके सहारे जीता जाये
कोई ना संबल दिखता है
मन भूला भूला फिरता है
मन की कश्मकश को बहुत प्रवाह मयी शब्दों में पिरोया है ..सुन्दर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति|| धन्यवाद|
ReplyDeleteजीव जंजालो पड़ गया नौ मन उलझा सूत
ReplyDeleteया सुलझे बाईक और या सुलझे अवधूत
मन को ठौर दिलाओ यूं ना भटकाओ..सुन्दर रचना
ReplyDeleteMAM BAHUT ACHI RACHNA HAI YE. . . VERY NICE. . .
ReplyDeleteJAI HIND JAI BHARAT
वाह ... बहुत ही अच्छा लिखा है ..बेहतरीन प्रस्तुति ।
ReplyDeleteye uljha man....man ke dwaar pe dastak deti kavita....or uske bhav
ReplyDeletebahut khub....
भरी रात में टिमटिम कर भी राह दिखाते तारे हैं।
ReplyDeletejeevan ek bhool bhulaiyaa hai,
ReplyDeleteyahan sabse bara rupaiyaa hai.
Vandana ji...jeevan ki aboojh paheli par aapki rachna adbhut hai.
बेहतरीन...पसंद आई रचना.
ReplyDeleteजाने क्या चाहे मन बावरा...........
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मुझे जूता लेना है !
मन-दुविधा की सहज सरल शब्दों में अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteमन भटका है उलझन में उलझा है ।कोई अपना नहीं है संसार सपना है । नाव भंवर में फसी है मल्लाह है नहीं तूफान के आने का अंदेशा है। ""बाढ की सम्भावनायें सामने है और नदियों के किनारे घर बने है।"" मंजिल मिलती नहीं है जिसमें भ्रान्तियों ने और भ्रमित कर दिया है । कोई सम्बल भी नहीं है। बहुत अच्छी कविता है। सत्य है । मन भूला हुआ है और कुछ लोगों ने और भुला दिया है। ""वैसे ही चलना दूभर था अंधियारे में तुमने और घुमाव ला दिये गलियारे मे।"" सांसारिक और आध्यात्मिक रचना ।
ReplyDeleteसिर्फ संबल ही तो खोजना है...फिर मंजिल किसे खोजनी...भटकाव से मुक्ति...
ReplyDeleteउहापोह और कश्मकश
ReplyDeleteमन पर ऐसी अवस्था कभी आती है. आपने उसे दार्शनिक भावों में सुंदरता से पिरो कर लिखा है.
ReplyDeleteमन तो अति-चंचल होता ही है । यूँ ही भूला भूला फिरता है।
ReplyDeleteकैसी अबूझ पहेली है
ReplyDeleteजितनी सुलझाओ उलझी है ... वंदना जी बहुत सुंदर अभिव्यक्ति ...
Sach! Ye man bhee kya cheez banayee hai qudtartne! Ek bhakaav hee bhatkaav hai!
ReplyDeleteBehad sundar rachana!
nice
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