Friday, June 17, 2011

मन भूला भूला फिरता है

ना जाने कैसा सवेरा है
किसने घेरा है
कौन पथिक है
कहाँ जाना है
क्या करना है
आगत विगत में उलझा है
मोह निशा में भटका है
मन ने मचाया हल्ला है
दिखता ना कोई अपना है
कभी लगता जहाँ अपना है
कभी लगता सब सपना है
कैसी अबूझ पहेली है
जितनी सुलझाओ उलझी है
जीवन नैया डोली है
बीच भंवर में अटकी है
मल्लाह ना कोई मिलता है
पार ना कोई दीखता है
ये कैसा जीवन खेला है
जहाँ कोई ना तेरा मेरा है
जानता सब कुछ है फिर भी
पथिक भटकता फिरता है
राह विषम ये दिखती है
मंजिल भी तो नहीं मिलती है
किस आस के सहारे बढ़ता जाये
किसके सहारे जीता जाये
कोई ना संबल दिखता है
मन भूला भूला फिरता है

20 comments:

  1. मन की कश्मकश को बहुत प्रवाह मयी शब्दों में पिरोया है ..सुन्दर अभिव्यक्ति

    ReplyDelete
  2. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति|| धन्यवाद|

    ReplyDelete
  3. जीव जंजालो पड़ गया नौ मन उलझा सूत
    या सुलझे बाईक और या सुलझे अवधूत

    ReplyDelete
  4. मन को ठौर दिलाओ यूं ना भटकाओ..सुन्दर रचना

    ReplyDelete
  5. MAM BAHUT ACHI RACHNA HAI YE. . . VERY NICE. . .
    JAI HIND JAI BHARAT

    ReplyDelete
  6. वाह ... बहुत ही अच्‍छा लिखा है ..बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

    ReplyDelete
  7. ye uljha man....man ke dwaar pe dastak deti kavita....or uske bhav
    bahut khub....

    ReplyDelete
  8. भरी रात में टिमटिम कर भी राह दिखाते तारे हैं।

    ReplyDelete
  9. jeevan ek bhool bhulaiyaa hai,
    yahan sabse bara rupaiyaa hai.

    Vandana ji...jeevan ki aboojh paheli par aapki rachna adbhut hai.

    ReplyDelete
  10. बेहतरीन...पसंद आई रचना.

    ReplyDelete
  11. जाने क्या चाहे मन बावरा...........
    --------------------------------
    मुझे जूता लेना है !

    ReplyDelete
  12. मन-दुविधा की सहज सरल शब्दों में अभिव्यक्ति।

    ReplyDelete
  13. मन भटका है उलझन में उलझा है ।कोई अपना नहीं है संसार सपना है । नाव भंवर में फसी है मल्लाह है नहीं तूफान के आने का अंदेशा है। ""बाढ की सम्भावनायें सामने है और नदियों के किनारे घर बने है।"" मंजिल मिलती नहीं है जिसमें भ्रान्तियों ने और भ्रमित कर दिया है । कोई सम्बल भी नहीं है। बहुत अच्छी कविता है। सत्य है । मन भूला हुआ है और कुछ लोगों ने और भुला दिया है। ""वैसे ही चलना दूभर था अंधियारे में तुमने और घुमाव ला दिये गलियारे मे।"" सांसारिक और आध्यात्मिक रचना ।

    ReplyDelete
  14. सिर्फ संबल ही तो खोजना है...फिर मंजिल किसे खोजनी...भटकाव से मुक्ति...

    ReplyDelete
  15. उहापोह और कश्मकश

    ReplyDelete
  16. मन पर ऐसी अवस्था कभी आती है. आपने उसे दार्शनिक भावों में सुंदरता से पिरो कर लिखा है.

    ReplyDelete
  17. मन तो अति-चंचल होता ही है । यूँ ही भूला भूला फिरता है।

    ReplyDelete
  18. कैसी अबूझ पहेली है
    जितनी सुलझाओ उलझी है ... वंदना जी बहुत सुंदर अभिव्यक्ति ...

    ReplyDelete
  19. Sach! Ye man bhee kya cheez banayee hai qudtartne! Ek bhakaav hee bhatkaav hai!
    Behad sundar rachana!

    ReplyDelete