Friday, June 24, 2011

ललिता पूछे राधा से , ए राधा

ललिता पूछे राधा से , ए राधा
कौन शरारत कर गया
तेरे ख्वाबों में ,ख्वाबों में

आँख का अंजन बिखेर गया गालों पे-२-
ये चेहरा कैसे उतर गया ए राधा
दो नैनों में नीर कौन दीवाना भर गया ए राधा
ललिता पूछे राधा से ए राधा ...............


वो छैल छबीला आया था ओ ललिता -२-
मन मेरा भरमाया था ओ ललिता
मुझे प्रेम सुधा पिलाया था ओ ललिता
मेरी सुध बुध सब बिसराय गया वो छलिया
मेरा चैन वैन सब छीन गया री ललिता
ललिता पूछे राधा से ए राधा..................

वो मुरली मधुर बजाय गया सुन ललिता
वो प्रेम रस  पिलाय गया ओ ललिता
मुझे अपना आप भुलाय गया ओ ललिता
मुझे मोहिनी रूप दिखाय गया ओ ललिता
बंसी की धुन सुनाय गया सुन ललिता
और चित मेरा चुराय गया वो छलिया
ललिता पूछे राधा से ए राधा ..............

अब ध्यानमग्न मैं बैठी हूँ सुन ललिता
उसकी जोगन बन बैठी हूँ सुन ललिता
ये कैसा रोग लगाय गया ओ ललिता
ये कैसा रास रचाए गया ओ ललिता
मोहिनी चितवन डार गया सुन ललिता
ये कैसी प्रीत सुलगाय गया वो छलिया
मुझे अपनी जोगन बनाय गया री ललिता
ललिता पूछे राधा से ए राधा ..............

अब हाथ छुडाय भाग गया वो छलिया
मुझे प्रेम का रोग लगाय गया वो छलिया
मेरी रूप माधुरी चुराय गया वो छलिया
मुझे कमली अपनी बनाय गया वो छलिया
अब कैसे धीरज बंधाऊं री ललिता
अब कैसे प्रीत पहाड़ चढाऊँ री ललिता
मोहे प्रीत की डोर से बाँध गया वो छलिया
मेरी सुध बुध सब बिसराय गया वो छलिया
ललिता पूछे राधा से ए राधा .................











ललिता पूछे राधा से , ए राधा

ललिता पूछे राधा से , ए राधा
कौन शरारत कर गया
तेरे ख्वाबों में ,ख्वाबों में

आँख का अंजन बिखेर गया गालों पे-२-
ये चेहरा कैसे उतर गया ए राधा
दो नैनों में नीर कौन दीवाना भर गया ए राधा
ललिता पूछे राधा से ए राधा ...............


वो छैल छबीला आया था ओ ललिता -२-
मन मेरा भरमाया था ओ ललिता
मुझे प्रेम सुधा पिलाया था ओ ललिता
मेरी सुध बुध सब बिसराय गया वो छलिया
मेरा चैन वैन सब छीन गया री ललिता
ललिता पूछे राधा से ए राधा..................

वो मुरली मधुर बजाय गया सुन ललिता
वो प्रेम रस  पिलाय गया ओ ललिता
मुझे अपना आप भुलाय गया ओ ललिता
मुझे मोहिनी रूप दिखाय गया ओ ललिता
बंसी की धुन सुनाय गया सुन ललिता
और चित मेरा चुराय गया वो छलिया
ललिता पूछे राधा से ए राधा ..............

अब ध्यानमग्न मैं बैठी हूँ सुन ललिता
उसकी जोगन बन बैठी हूँ सुन ललिता
ये कैसा रोग लगाय गया ओ ललिता
ये कैसा रास रचाए गया ओ ललिता
मोहिनी चितवन डार गया सुन ललिता
ये कैसी प्रीत सुलगाय गया वो छलिया
मुझे अपनी जोगन बनाय गया री ललिता
ललिता पूछे राधा से ए राधा ..............

अब हाथ छुडाय भाग गया वो छलिया
मुझे प्रेम का रोग लगाय गया वो छलिया
मेरी रूप माधुरी चुराय गया वो छलिया
मुझे कमली अपनी बनाय गया वो छलिया
अब कैसे धीरज बंधाऊं री ललिता
अब कैसे प्रीत पहाड़ चढाऊँ री ललिता
मोहे प्रीत की डोर से बाँध गया वो छलिया
मेरी सुध बुध सब बिसराय गया वो छलिया
ललिता पूछे राधा से ए राधा .................











Thursday, June 23, 2011

महाकाव्य

ज़िन्दगी के महाकाव्य में
जाने कितने श्लोक बने 

दोहे सोरठे चौपाइयां 
अनगिनत बने
कहीं पूर्ण विराम तो
कहीं अर्धविराम लगे
कहीं कोई जीवन छूट गया
कहीं कोई तारा टूट गया
कहीं स्वप्न छंदबद्ध हुए
कहीं हकीकतें कोष्ठकों में
अवगुंठित हुयीं
कहीं कोई कहानी का
नव निर्माण हुआ
कहीं कोई टुकड़ा कहीं
छूट गया
कभी आसमाँ का रंग
जीवन में उतर गया
कभी रात की स्याही
आँखों में सज गयी
और ज़िन्दगी यूँ ही
कट गयी मगर
आत्मवेदना को ना
शब्द मिले
खोज ना कभी पूर्ण हुई
जो बहता है इक दरिया
उसकी प्यास ना सम्पूर्ण हुई
इस महाकाव्य की आत्मा को ना
आकार मिला
जब तक ना साक्षात्कार हुआ
और महाकाव्य ना
संपूर्ण हुआ
क्यूँकि जीव का ना
ब्रह्म से मिलन हुआ
पूर्ण का पूर्ण से जब मिलन होगा
तब ही पूर्णत्व पूर्ण होगा
और महाकाव्य संपूर्ण होगा

महाकाव्य

ज़िन्दगी के महाकाव्य में
जाने कितने श्लोक बने 

दोहे सोरठे चौपाइयां 
अनगिनत बने
कहीं पूर्ण विराम तो
कहीं अर्धविराम लगे
कहीं कोई जीवन छूट गया
कहीं कोई तारा टूट गया
कहीं स्वप्न छंदबद्ध हुए
कहीं हकीकतें कोष्ठकों में
अवगुंठित हुयीं
कहीं कोई कहानी का
नव निर्माण हुआ
कहीं कोई टुकड़ा कहीं
छूट गया
कभी आसमाँ का रंग
जीवन में उतर गया
कभी रात की स्याही
आँखों में सज गयी
और ज़िन्दगी यूँ ही
कट गयी मगर
आत्मवेदना को ना
शब्द मिले
खोज ना कभी पूर्ण हुई
जो बहता है इक दरिया
उसकी प्यास ना सम्पूर्ण हुई
इस महाकाव्य की आत्मा को ना
आकार मिला
जब तक ना साक्षात्कार हुआ
और महाकाव्य ना
संपूर्ण हुआ
क्यूँकि जीव का ना
ब्रह्म से मिलन हुआ
पूर्ण का पूर्ण से जब मिलन होगा
तब ही पूर्णत्व पूर्ण होगा
और महाकाव्य संपूर्ण होगा

Sunday, June 19, 2011

कभी कभी मिल जाता है उम्मीद से ज्यादा

ज़रा गौर फरमाइए इधर भी.........कभी कभी मिल जाता है उम्मीद से ज्यादा ...........पता नहीं कैसे हुआ मगर हो गया .........अगर जानना है तो यहाँ देखिये ...........इस लिंक पर 


 दोस्तों
   "क्या संन्यासी या योग गुरु से छिन जाते हैं मौलिक अधिकार?"
ये लिंक है इस आलेख का
http://www.mediadarbar.com/%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE-%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%80-%E0%A4%AF%E0%A4%BE-%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%97-%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%81/


 इस आलेख को मिला है प्रथम पुरस्कार मिडिया दरबार की ओर से .........हर हफ्ते आयोजित होने वाली प्रतियोगिता में ..........जानिए वो विचार जो मेरे द्वारा प्रस्तुत किये गए .........मुझे नहीं पता कैसे मिल गया .........मुझे तो लगा ही नहीं था कि ऐसा खास लिखा है कि प्रथम पुरस्कार मिलेगा ........अब आप सब खुद पढ़ कर देखिये और बताइए .

कभी कभी मिल जाता है उम्मीद से ज्यादा

ज़रा गौर फरमाइए इधर भी.........कभी कभी मिल जाता है उम्मीद से ज्यादा ...........पता नहीं कैसे हुआ मगर हो गया .........अगर जानना है तो यहाँ देखिये ...........इस लिंक पर 


 दोस्तों
   "क्या संन्यासी या योग गुरु से छिन जाते हैं मौलिक अधिकार?"
ये लिंक है इस आलेख का
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 इस आलेख को मिला है प्रथम पुरस्कार मिडिया दरबार की ओर से .........हर हफ्ते आयोजित होने वाली प्रतियोगिता में ..........जानिए वो विचार जो मेरे द्वारा प्रस्तुत किये गए .........मुझे नहीं पता कैसे मिल गया .........मुझे तो लगा ही नहीं था कि ऐसा खास लिखा है कि प्रथम पुरस्कार मिलेगा ........अब आप सब खुद पढ़ कर देखिये और बताइए .

Friday, June 17, 2011

मन भूला भूला फिरता है

ना जाने कैसा सवेरा है
किसने घेरा है
कौन पथिक है
कहाँ जाना है
क्या करना है
आगत विगत में उलझा है
मोह निशा में भटका है
मन ने मचाया हल्ला है
दिखता ना कोई अपना है
कभी लगता जहाँ अपना है
कभी लगता सब सपना है
कैसी अबूझ पहेली है
जितनी सुलझाओ उलझी है
जीवन नैया डोली है
बीच भंवर में अटकी है
मल्लाह ना कोई मिलता है
पार ना कोई दीखता है
ये कैसा जीवन खेला है
जहाँ कोई ना तेरा मेरा है
जानता सब कुछ है फिर भी
पथिक भटकता फिरता है
राह विषम ये दिखती है
मंजिल भी तो नहीं मिलती है
किस आस के सहारे बढ़ता जाये
किसके सहारे जीता जाये
कोई ना संबल दिखता है
मन भूला भूला फिरता है

मन भूला भूला फिरता है

ना जाने कैसा सवेरा है
किसने घेरा है
कौन पथिक है
कहाँ जाना है
क्या करना है
आगत विगत में उलझा है
मोह निशा में भटका है
मन ने मचाया हल्ला है
दिखता ना कोई अपना है
कभी लगता जहाँ अपना है
कभी लगता सब सपना है
कैसी अबूझ पहेली है
जितनी सुलझाओ उलझी है
जीवन नैया डोली है
बीच भंवर में अटकी है
मल्लाह ना कोई मिलता है
पार ना कोई दीखता है
ये कैसा जीवन खेला है
जहाँ कोई ना तेरा मेरा है
जानता सब कुछ है फिर भी
पथिक भटकता फिरता है
राह विषम ये दिखती है
मंजिल भी तो नहीं मिलती है
किस आस के सहारे बढ़ता जाये
किसके सहारे जीता जाये
कोई ना संबल दिखता है
मन भूला भूला फिरता है

Tuesday, June 14, 2011

चंचल चंचल रे मना

चंचल चंचल रे मना
काहे चंचल होय
श्याम की ब्रजमाधुरी तो
वृन्दावन में होय

धीरज धीरज रे मना

थोडा धीरज बोय
चाहे सींचे सौ घड़ा
ऋतु आवन फल होय

भागे भागे रे मना

काहे भागे रोये
श्याम सुख सरिता तो
मन आँगन में होय 


निर्मल निर्मल रे मना
निर्मल मन जो होए
श्याम प्रेम का वास तो
वा तन में ही होय   





चंचल चंचल रे मना

चंचल चंचल रे मना
काहे चंचल होय
श्याम की ब्रजमाधुरी तो
वृन्दावन में होय

धीरज धीरज रे मना

थोडा धीरज बोय
चाहे सींचे सौ घड़ा
ऋतु आवन फल होय

भागे भागे रे मना

काहे भागे रोये
श्याम सुख सरिता तो
मन आँगन में होय 


निर्मल निर्मल रे मना
निर्मल मन जो होए
श्याम प्रेम का वास तो
वा तन में ही होय   





Sunday, June 5, 2011

आखिर अपनों से कैसी पर्दादारी?

आजकल तो
छुपे छुपे रहते हैं
अक्स खुद से भी
छुपाते हैं
डरते हैं
कोई बैरन कहीं
नज़र ना लगा दे
बताओ भला
कारे को भी कभी
कारी नज़र लगी है

जो खुद नज़र का टीका हो
उसे भला नज़र कब लगती है
सखी री कोई तो बताओ
कोई तो उन्हें आईना दिखाओ
प्यार करने वालों की
नज़र नहीं लगती
ये फलसफा उन्हें भी समझाओ 

कहना उनसे ज़रा
घूंघट तो उठाएं
मोहिनी मूरत तो दिखाएं
आखिर अपनों से कैसी पर्दादारी?

आखिर अपनों से कैसी पर्दादारी?

आजकल तो
छुपे छुपे रहते हैं
अक्स खुद से भी
छुपाते हैं
डरते हैं
कोई बैरन कहीं
नज़र ना लगा दे
बताओ भला
कारे को भी कभी
कारी नज़र लगी है

जो खुद नज़र का टीका हो
उसे भला नज़र कब लगती है
सखी री कोई तो बताओ
कोई तो उन्हें आईना दिखाओ
प्यार करने वालों की
नज़र नहीं लगती
ये फलसफा उन्हें भी समझाओ 

कहना उनसे ज़रा
घूंघट तो उठाएं
मोहिनी मूरत तो दिखाएं
आखिर अपनों से कैसी पर्दादारी?