ये सुन शुकदेव जी बोल उठे
भगवत प्रेमियों में तुम्हारा श्रेष्ठ स्थान है
उनमे तुम्हारा अनुराग भी महान है
तुम्हें प्रभु की लीलाएं
नित्य नयी लगा करती हैं
तभी प्रभु चर्चा में तुम्हें आनंद आता है
यद्यपि ये लीला अत्यंत रहस्यमयी है
फिर भी इसके सभी
राज़ तुम्हें सुनाता हूँ
जब अघासुर मारा गया तब
कन्हैया ग्वालबालों संग
यमुना किनारे गए
सबने मिल स्नान किया
और मंडलाकार पंक्ति बना
भोजन का आनंद लिया
कान्हा ने सबसे पहला ग्रास लिया
फिर सारे गोपों ने
भोजन शुरू किया
कभी कान्हा खुद खाते हैं
कभी गोपों को खिलाते हैं
उन्हीं झूठे हाथों से
सबको खिला
परम सुख देते हैं
जिस सुख के लिए
ऋषि मुनि योगी भी तरसते हैं
आज वो सुख ये
ग्वाल बाल लेते हैं
सबका भोजन करते हैं
कभी सबकी जूठन खाते हैं
ये देख- देख देवताओं के सिर चकराते हैं
जब सब भोजन करते थे
तब कान्हा का एक सखा छुपा बैठा था
वो बाल सखा बेहद गरीब था
खाने को उसके घर में
कुछ भी नहीं था
तीन दिन की बासी रखी
खट्टी छाछ वो लाया था
और कैसे उसे खिलाऊँ
सोच चकराया था
और वृक्ष की ओट में जा
छुपा बैठा था
और अश्रु बहा रहा था
आज मेरे मोहन ने कलेवा मंगाया था
और मैं निर्भाग्य इतना भी न कर सका
अपने प्यारे सखा को
भोजन भी न अर्पित कर सका
ये सोच- सोच सीने में उसके
हूक उठ रही थी
पर जिसे सारी दुनिया
भुला देती है
उसी पर तो हमारे प्रभु की
कृपा बरसती है
जो किसी के काम का नहीं रहता है
वो ही तो प्रभु को सबसे प्यारा होता है
फिर कैसे न उसकी पुकार
उन तक पहुँचती
और कान्हा को उसकी याद आई थी
और "कहाँ है मनसुखा "
आवाज़ लगायी थी
तभी एक ग्वाल ने बतलाया
वो देखो पेड़ की ओट में
छुपा बैठा है
और अपना भोजन खुद कर रहा है
इतना सुन कान्हा उसकी तरफ चल पड़े
उँगलियों में भोजन कण लगे थे
किसी में दही, किसी में चावल
किसी ऊँगली में कधी
किसी में माखन लगा था
पर मोहन का चित्त तो
मनसुखा के भोजन में अटका था
इधर मनसुखा रोता जाता था
आज मेरे पास अपने कान्हा को
खिलाने को कुछ नहीं है
ये खट्टी छाछ तो
उसे नहीं पिला सकता
ये सोच खुद ही घूँट भर रहा था
जैसे ही आखिरी घूँट भरी
कान्हा ने जाकर उसकी गर्दन पकड़ी
क्यों रे मनसुखा सारा
भोजन खुद कर लिया
और मुझे तो
चखने को भी नहीं दिया
अब मनसुखा के मुँह में
जितनी छाछ थी बस
वो ही बची थी
बाकी तो लोटे में
ख़त्म हो चुकी थी
कान्हा ने उसकी गर्दन को दबाया
और उसके मुँह की छाछ को
अपने मुखे में पाया
जिसे पीकर कान्हा का मन हर्षाया
और वो बोल पड़े
अरे मनसुखा! तेरी छाछ तो बहुत मीठी है रे
इतना स्वाद तो माँ यशोदा के
दूध में भी नहीं आया कभी
इतना स्वाद तो
शबरी के बेरों में भी ना पाया कभी
इतना स्वाद तो विदुरानी के
छिलकों में भी ना समाया था
और तू मुझे इससे
बंचित रखता था
ये होती है प्रभु की महती कृपा
सोचने वाली बात सिर्फ इतनी थी
जैसे माँ बाप अपने बच्चों का
जूठा प्रसन्नता से खा लेते हैं
और तनिक भी भेदभाव नहीं करते हैं
वैसा ही दृश्य तो प्रभु ने
पेश किया था
क्योंकि सभी उन्ही की तो संतान हैं
यूँ ही तो नहीं कहा जाता
"त्वमेव माता च पिता त्वमेव "
जब वो ही हमारे सर्वस्व हैं
तो उनमे हम में क्या भेद हुआ
जब आम इन्सान अपने बच्चे की जूठन खा
खुश हो सकता है
तो फिर परमपिता क्यों नहीं ऐसा कर सकता है
पर मनुष्य बुद्धि इसके पार नहीं जा पाती है
ये परम भेद नहीं जान पाती है
सिर्फ तेरे मेरे झूठ सच में ही
उलझती जाती है
मोह माया के गंदले सलिल में
धंसती जाती है
पर प्रभु का पार न कोई पाती है
इस दृश्य को देख
ब्रह्मा का मन भटका था
ब्रह्मा तो मोहित हो गए
ये कैसे भगवान है
जो सबकी जूठन खाते हैं
ये तो भगवान नहीं हो सकते
अगर भगवान हैं तो
परीक्षा लेनी होगी
सोच ब्रह्मा ने एक माया रची
क्रमशः .........
इस तरह की रचनाएं आपके अध्यात्म के अध्ययन का परिचय कराती हैं।
ReplyDeleteबहुत सुंदर!
एक और नयी लीला की जानकारी मिली ... सुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत बेहतरीन....
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है।
अद्भुत...
ReplyDeleteसादर .
छोटे छोटे सुखों में परमानन्द..
ReplyDeleteप्रभु निराले, उसके खेल निराले, उसकी सतत याद दिलाने के लिए शुक्रिया।
ReplyDeleteकृष्ण लीला पढने का सौभाग्य पहली बार मिला ....मन गद गद हो गया ....
ReplyDeleteसुन्दर, सुखद और मधुर
ReplyDeleteकृष्ण-लीला दर्शन।
नमन।
साधुवाद।
आनन्द विश्वास
पर जिसे सारी दुनिया
ReplyDeleteभुला देती है
उसी पर तो हमारे प्रभु की
कृपा बरसती है.
बहुत खूब हैं आपके प्रभु और विलक्षण हैं आप.
सुन्दर सुखद मधुर लेखन से हरती हो संताप.
कृष्ण लीला रस को नित चरम पर पहुंचा रहीं हैं आप,वंदना जी.
मन्त्र मुग्ध हूँ,जी.
मन तृप्त , मुंदी पलकें तृप्त
ReplyDeleteबहुत ही बेहतरीन और प्रशंसनीय प्रस्तुति....
ReplyDeleteइंडिया दर्पण की ओर से शुभकामनाएँ।
मनभावन..
ReplyDeleteशुभकामनायें आपको !
ईश्वर ही ईश्वर की परीक्षा लेने को तैयार थै...मनभावन वर्णन!
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