गोपियों को प्रभु मिलन की चाह लगी
मनोरथ पूर्ण करने को अगहन में
कात्यायिनी देवी का व्रत करने लगीं
हविष्यान्न खाती थीं
चन्दन, फूल, नैवेद्य, धूप -दीप से
पूजन करती थीं
हे महामाये , महायोगिनी
तुम्हें नमन हम करती हैं
नंदनंदन को पति बना दीजै
ऐसी प्रार्थना करती हैं
ऐसे गोपियाँ आराधना करती हैं
प्रतिदिन यमुना स्नान को जाती हैं
और ठन्डे पानी में डुबकी लगाती हैं
फिर देवी का पूजन करती हैं
एक दिन जैसे ही वस्त्र उतार
यमुना जी में प्रवेश किया
गोपियों की अभिलाषा जान
प्रभु ने इक खेल किया
सब गोपियों के वस्त्र चुरा
कदम्ब पर बैठ गए
हँसी- ठिठोली करने लगे
गोपियों का ह्रदय
प्रेम रस में भीग गया
कान्हा से विनती करने लगीं
तुम्हारी दासी हैं चितचोर
हमारे वस्त्र लौटा दीजिये
हमें अपनी शरण में लीजिये
ठण्ड में ठिठुरी जाती हैं
कुछ तो हम पर रहम कीजिये
जब प्रभु ने जाना
ये सर्वस्व समर्पण कर चुकी हैं
तब कान्हा बोल पड़े
अपने- अपने वस्त्र आकर ले जाओ
गुप्तांगों को छुपाकर
यमुना से जब बाहर आयीं
तब उनके शुद्ध भाव से
मोहन प्रसन्न हुए
वस्त्र कंधे पर रख लिए
और कहने लगे
तुमने जो व्रत लिया है
उसे मैंने जान लिया है
तुमने अच्छी तरह निभाया
ये भी मैंने मान लिया
पर एक त्रुटि कर डाली
जब तक ना पश्चाताप करोगी
तब तक ना व्रत का
संपूर्ण फल लोगी
तुमने यमुना में
नग्न होकर स्नान किया
वरुण देवता और यमुना का
अपराध किया
दोष शांति के लिए
हाथ उठा सिर से लगाओ
और प्रणाम करो
फिर अपने वस्त्र ले जाओ
प्रभु की बातों पर
भोली गोपियों ने
विश्वास किया
व्रत में आई त्रुटि का
परिमार्जन किया
जैसा नंदनंदन ने कहा
वैसी ही आज्ञा का पालन किया
जब प्रभु ने देखा
सब मेरी आज्ञा का
पालन करती हैं
तब करुनामय ने
उनके वस्त्र दिए
प्रभु ने कैसी अजब लीला की
पर तब भी ना
किसी गोपी के मन में
क्षोभ हुआ
उसे अपना ही दोष माना
कैसे मोहन ने सबका
मन वश में कर रखा था
जब सबने वस्त्र पहन लिए
पर एक पग ना आगे धरा
प्रभु पूजन की इच्छा
मन में समायी थी
पर लज्जावश कुछ ना कह पाई थीं
अंतर्यामी ने सारा
भेद जान लिया
शरदपूर्णिमा पर
मनोरथ पूर्ण करूंगा
कह इच्छा को बल दिया
गोपियाँ प्रभु मिलन की लालसा में
दिन गुजारने लगीं
शरद पूर्णिमा का
इंतजार करने लगीं
पर यहाँ ज्ञानीजन
चीरहरण के भेद बताते हैं
सभी अपने अपने मत
बतलाते हैं
हर शंका मिटाते हैं
जैसे प्रभु चिन्मय
वैसे उनकी लीला चिन्मय
यूँ तो प्रभु की लीलाएं
दिव्य होती हैं
सर्वसाधारण के सम्मुख
ना प्रगट होती हैं
अन्तरंग लीला में तो
गोपियाँ ही प्रवेश कर पाती हैं
गोपियों की चाहना थी
श्री कृष्ण के प्रति पूर्ण समर्पण
रोम रोम कृष्णमय हो जाये
इसके लिए साधना करती थीं
घर परिवार की ना चिंता करती थीं
लोक लाज का त्याग किया
प्रभु नाम का संकीर्तन किया
पर फिर भी ना पूर्ण समर्पण हुआ
लीला की दृष्टि से थोड़ी कमी थी
निरावरण रूप से नहीं जाती थीं
थोड़ी झिझक बीच में आती थी
साधक की साधना तभी
पूर्ण मानी जाती है
जब आवरण हटा दिया जाता है
कोई भेद ना किसी में रहता है
उनका संकल्प तभी पूर्ण कहाता है
जब प्रभु स्वयं आकर
संकल्प पूर्ण करते हैं
ब्रह्म जीव का जब
भेद मिट जाता है
वो ही पूर्ण साक्षात्कार कहाता है
यूँ तो लीला पुरुषोत्तम
जब भी लीला करते हैं
किसी मर्यादा का ना
उल्लंघन करते हैं
साधना मार्ग में विधि का अतिक्रमण
गोपियाँ अज्ञानतावश करती थीं
पर उसका मार्जन करवाना था
प्रेम के नाम पर विधि का उल्लंघन
ना कान्हा को भाता था
इसलिए गोपियों से
प्रायश्चित करवाया
चराचर प्रकृति के अधीश्वर
स्वयं कर्ता, भोक्ता और साक्षी हैं
कोई ना व्यक्त अव्यक्त पदार्थ यहाँ
जिसका उन्हें भान ना हो
या जो उनसे विलग हो
सब उनका और वो सबमे
व्याप्त रहते हैं
ये भेद तो सिर्फ
दृष्टि में रहते हैं
गोपियाँ पति रूप में चाहती थीं
वो पति जो उनकी
आत्मा का स्वामी हो
देह से परे साक्षात्कार पाती थीं
आम जन की दृष्टि
देह तक ही सीमित होती है
वो क्या जाने दिव्यता प्रेम की
जिसकी बुद्धि विषय विकारों में ही
लिप्त रहती है
जब साधक पर प्रभु की
अहैतुकी कृपा बरसती है
तब ही उसकी बुद्धि
प्रभु भजन में लगती है
जब सत्संग मनन करता है
तब प्रभु केवट बन
भवसागर पार करते हैं
जन्म जन्मान्तरों के बंधनों से
जीव को मुक्त करते हैं
तब दिव्यानंद का अनुभव होता है
परम विश्रांति का अधिकारी बन जाता है
जब प्रभु से चिर संयोग होता है
और गोपियाँ कोई
साधारण ग्वालिनें ही नहीं थीं
ये तो प्रभु की नित्यसिद्धा
प्रकृतियाँ थीं
जो प्रभु इच्छा से लीला में
प्रवेश पाती थीं
जन्म जन्मान्तरों के
कलुमश मिटाती थीं
जब प्रभु गोपियों को
निरावरण हो सामने बुलाते हैं
यहाँ तरह तरह के भाव आते हैं
प्रभु जानते थे
मुझमे उनमे ना कोई भेद है
पर अज्ञानतावश गोपियाँ
वो भेद ना पाती हैं
यहाँ प्रभु ये समझाते हैं
साधक की दशा बताते हैं
भगवान को चाहना
और साथ में संसार को भी ना छोड़ना
संस्कारों में उलझे रहना
माया का पर्दा बनाये रखना
द्विविधा की दशा में
साधक जीता है
वो माया का आवरण
नहीं हटा पाता है
सर्वस्व समर्पण ना कर पाता है
यहाँ भगवान गोपियों के माध्यम से
सिखाते हैं
संस्कार शून्य निरावरण होकर
माया का पर्दा हटाकर
अपना सर्वस्व समर्पण
करना ही कल्याणकारी होता है
जहाँ जाकर ही
ब्रह्म जीव का भेद मिटता है
यह पर्दा ही व्यवधान उत्पन्न करता है
जब ये पर्दा हट जाता है
तब प्रेमी निमग्न हो
स्वयं को भी भूल जाता है
लोग लाज को त्याग
प्रभु मिलन की उत्कंठा में
दौड़ा जाता है
वस्त्रों की सुधि भुला देता है
अपना आप मिटा देता है
जब कृष्ण ही कृष्ण नज़र आता है
तब वो ही प्रभु के प्रति
विशुद्ध प्रेम कहाता है
यहाँ प्रभु बतलाते हैं
प्रेम, प्रेमी और प्रियतम
के मध्य पुष्प का पर्दा भी
नहीं रखा जाता है
क्योंकि प्रेम की प्रकृति यही है
सर्वथा व्यवधान रहित
अबाध अनन्त मिलन
जब प्रेमी इस दशा को पाता है
तभी स्वयं भी प्रेममय बन जाता है
गोपियां लज्जावनत मुख किये आती हैं
पुराने संकार ना जाते हैं
पर प्रभु इशारे में बतलाते हैं
तुमने कितने त्याग किये
घर बार की मोह माया को त्यागा है
फिर इस त्याग में क्यों
संकोच की छाया है
गोपियाँ तो निष्कलंक कहाती हैं
इसलिए त्याग के भाव का भी त्याग
उसकी स्मृति का भी त्याग करना होगा
जहाँ सब संज्ञाशून्य होगा
तभी पूर्ण समर्पण होगा
और जब गोपियाँ इस भाव में डूब गयीं
जब दिव्य रस के अलौकिक
अप्राकृत मधु रस में छक गयीं
फिर ना देह का भान रहा
जब प्रेमी आत्मविस्मृत हो जाता है
तब उसका दायित्व प्रियतम पर आ जाता है
जब प्रभु ने देखा
इनका पूर्ण समर्पण हुआ
इन्हें ना कोई भान रहा
तब मर्यादा की रक्षा हेतु
उनको वस्त्र दिया
और उन्हें हकीकत का भान कराया
शारदीय रात्रि में कामना पूर्ण का वचन दिया
यहाँ प्रभु ने साधना सफल होने की
अवधि निर्धारित की
जिससे स्पष्ट हुआ
प्रभु में काम विकार की
ना कल्पना हुई
कामी (आम) मनुष्य अगर वहाँ होता
वस्त्रहीन स्त्रियों को देख
क्षणमात्र भी ना वश में रहता
जो वस्त्र प्रभु सम्मुख जाने में
विक्षेप उत्पन्न करते थे
वो ही वस्त्र प्रभु स्पर्श से
प्रसाद स्वरुप हुए
इसका कारण भगवान से
सम्बन्ध दर्शाता है
जब प्रभु ने वस्त्र स्पर्श किया
तब प्रभु स्पर्श से वस्त्र भी
अप्राकृत रसात्मक हो गए
कहने का ये तात्पर्य हुआ
संसार तभी तक
विक्षेपजनक होता है
जब तक ना साधक का
भगवान से सम्बन्ध और
भगवान का प्रसाद ना बन जाता है
तब वो प्रभु का स्वरुप ही बन जाता है
आनंद में सराबोर हो जाता है
उसके लिए तो नरक भी
बैकुंठ बन जाता है
स्थूलताओं से परिवेष्ठित
मानव बुद्धि जड़ बँधन तक ही
सीमित रहती है
प्रभु की दिव्य चिन्मयी लीलाओं की
कल्पना भी नहीं कर सकती है
कोई यदि कृष्ण को
भगवान ना भी माने
तब भी तर्क और युक्ति के आगे
कोई बात ना टिक पाती है
जो कृष्णे के चरित्र पर
लांछन लगाती हो
मात्र ग्यारह वर्ष की अवस्था तक
प्रभु ने बृज में वास किया
और रास लीला का समय
यदि दसवां वर्ष माना जाये
और नवें वर्ष में मानो
चीरहरण लीला हुई
कैसे कोई कह सकता है
आठ नौ वर्ष के बालक में
कामोत्तेजना हुई
गर गाँव की ग्वालिनें
प्रभु की दिव्यता को जानतीं
तो कैसे उनके लिए
इतना कठिन व्रत करतीं
आज भी राम- सा वर पाने को
कुंवारी कन्या व्रत रखती हैं
वैसे ही उन कुमारियों ने
कृष्ण को पाना चाहा
और व्रत पूजन किया
फिर कैसे इसमें दोष समाया है
ये तो अज्ञानियों की
तुच्छ बुद्धि को दर्शाता है
ये तो प्रभु ने नग्न स्नान की कुप्रथा
मिटाने को चीरहरण किया
जीव ब्रह्म के बीच
माया का पर्दा हटाना ही
चीरहरण कहलाता है
जिसके भेद अज्ञानी मूढ़
ना जान पाता है
parda hatna bahut zaruri hai.
ReplyDeleteगहन भाव व्यक्त हुये ..... कृष्ण की लीला को कहाँ समझ पाते हैं ... बहुत सुंदर प्रस्तुतीकरण
ReplyDeleteबहुत बेहतरीन रचना....
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है।
प्रेममय वातावरण है, कृष्णमय वातावरण है..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि-
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (24-062012) को चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
बहुत ही रोचक वर्णन.ब्रम्ह-जीव का भेद मिटने पर ही प्रभु से एकाकार सम्भव है.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और ज्ञान वर्धक अभिव्यक्ति...माया का पर्दा हटाना बहुत ज़रूरी है तभी प्रभु मिलन की आशा की जा सकती है...चीर हरण की बहुत सुन्दर और सार्थक व्याख्या...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteविलक्षण भक्तिमय और ज्ञानमय प्रस्तुति.
ReplyDeleteलगता है गंगा यमुना और सरस्वती के
संगम में स्नान कर रहा हूँ.
बहुत बहुत हार्दिक आभार,वंदना जी.
वाह ज़ी वाह आपका प्रयास अति ऊतम है आपका बहुत बहुत आभार...जय श्री कृष्णा
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