अपना शत्रु मैं
आप बन गया
विषय भोगों
में लिप्त हो
इन्द्रियों का
गुलाम मैं
खुद बन गया
तेरा बनकर भी
तेरा ना बन पाया
और अपना आप
मैं भूल गया
अब भटकता
फिरता हूँ
मारा - मारा
मगर मिले ना
कोई किनारा
जन्म- जन्म की
मोहनिशा में सोया
अब ना जाग
पाता हूँ
जाग- जाग कर भी
बार - बार
विषय भोगों के
आकर्षण में
डूब - डूब जाता हूँ
विषयासक्ति से
ना मुक्त हो पाता हूँ
विषयों की दावाग्नि
में जला जाता हूँ
मगर छूट
नहीं पाता हूँ
हाँ , अपना शत्रु में
आप बन गया हूँ
Monday, September 27, 2010
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भावयुक्त रचना, बेहद गहन चिंतन
ReplyDeleteविषयभोगों में लिप्त होकर आदमी इन्द्रियों का गुलाम हो जाता है ... रचना में बहुत ही सटीक बात कहीं हैं ..आभार
ReplyDeleteKitna sach likha hai Jyoti...ham hee apne khud ke shatru ban jate hain..
ReplyDeleteShreshth rachnaon me se ye ek hai tumhari!
सही बात है आदमी अपना दुश्मन आप ही होता है। अच्छी लगी आपकी रचना। शुभकामनायें
ReplyDeleteयथार्थ से परिचित करवाती..बहुत ही सटीक रचना
ReplyDeleteअस्पष्टता में मन शत्रुवत हो जाता है।
ReplyDeleteऐसा मनुष्य ही कर सकता है , कभी खुद का दोस्त बन जाता है कभी खुद का दुश्मन ।
ReplyDeleteबहुत खूब ....सच कहा है मनुष्य अपना शत्रु खुद ही तो बन जाता है !
ReplyDelete"जाग- जाग कर भी
ReplyDeleteबार - बार
विषय भोगों के
आकर्षण में
डूब - डूब जाता हूँ
विषयासक्ति से
ना मुक्त हो पाता हूँ
विषयों की दावाग्नि
में जला जाता हूँ
मगर छूट
नहीं पाता हूँ
हाँ , अपना शत्रु में
आप बन गया हूँ"... मानव जीवन ऐसा ही है.. एक आध्यत्मिक रचना जो विषय विकारों से दूर सात्विक जीवन की ओर प्रेरित करती है...
यही तो माया है .... इस माया से छूटना आसान नही है ... इंद्रियों को बस में करना आसान नही ... अच्छा लिखा है बहुत ही ....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और सठिक बात कही है आपने! शानदार रचना!
ReplyDeleteजाग- जाग कर भी
ReplyDeleteबार - बार
विषय भोगों के
आकर्षण में
डूब - डूब जाता हूँ
विषयासक्ति से
ना मुक्त हो पाता हूँ
--
सत्य से साक्षात्कार कराती रचना!
bilkul sateek avam bhav prvan rachna.
ReplyDeletepoonam
bhavo se yukt rachna
ReplyDeleteblog par aane ka aabhar
yuhi margdarshan dete rahiye dhanyvad
मन तरसत हरि दर्शन कों आज....
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