Monday, September 27, 2010

हाँ , अपना शत्रु में आप बन गया हूँ

अपना शत्रु मैं
आप बन गया 
विषय भोगों 
में लिप्त हो
इन्द्रियों का
गुलाम मैं
खुद बन गया
तेरा बनकर भी
तेरा ना बन पाया
और अपना आप
मैं भूल गया
अब भटकता 
फिरता हूँ
मारा - मारा
मगर मिले ना
कोई किनारा
जन्म- जन्म की
मोहनिशा में सोया
अब ना जाग 
पाता हूँ
जाग- जाग कर भी
बार - बार
विषय भोगों के
आकर्षण में
डूब - डूब जाता हूँ
विषयासक्ति से 
ना मुक्त हो पाता हूँ
विषयों की दावाग्नि 
में जला जाता हूँ
मगर छूट 
नहीं पाता हूँ
हाँ , अपना शत्रु में
आप बन  गया हूँ

15 comments:

  1. भावयुक्त रचना, बेहद गहन चिंतन

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  2. विषयभोगों में लिप्त होकर आदमी इन्द्रियों का गुलाम हो जाता है ... रचना में बहुत ही सटीक बात कहीं हैं ..आभार

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  3. Kitna sach likha hai Jyoti...ham hee apne khud ke shatru ban jate hain..
    Shreshth rachnaon me se ye ek hai tumhari!

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  4. सही बात है आदमी अपना दुश्मन आप ही होता है। अच्छी लगी आपकी रचना। शुभकामनायें

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  5. यथार्थ से परिचित करवाती..बहुत ही सटीक रचना

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  6. अस्पष्टता में मन शत्रुवत हो जाता है।

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  7. ऐसा मनुष्य ही कर सकता है , कभी खुद का दोस्त बन जाता है कभी खुद का दुश्मन ।

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  8. बहुत खूब ....सच कहा है मनुष्य अपना शत्रु खुद ही तो बन जाता है !

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  9. "जाग- जाग कर भी
    बार - बार
    विषय भोगों के
    आकर्षण में
    डूब - डूब जाता हूँ
    विषयासक्ति से
    ना मुक्त हो पाता हूँ
    विषयों की दावाग्नि
    में जला जाता हूँ
    मगर छूट
    नहीं पाता हूँ
    हाँ , अपना शत्रु में
    आप बन गया हूँ"... मानव जीवन ऐसा ही है.. एक आध्यत्मिक रचना जो विषय विकारों से दूर सात्विक जीवन की ओर प्रेरित करती है...

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  10. यही तो माया है .... इस माया से छूटना आसान नही है ... इंद्रियों को बस में करना आसान नही ... अच्छा लिखा है बहुत ही ....

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  11. बहुत सुन्दर और सठिक बात कही है आपने! शानदार रचना!

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  12. जाग- जाग कर भी
    बार - बार
    विषय भोगों के
    आकर्षण में
    डूब - डूब जाता हूँ
    विषयासक्ति से
    ना मुक्त हो पाता हूँ
    --
    सत्य से साक्षात्कार कराती रचना!

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  13. bilkul sateek avam bhav prvan rachna.
    poonam

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  14. bhavo se yukt rachna

    blog par aane ka aabhar
    yuhi margdarshan dete rahiye dhanyvad

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  15. मन तरसत हरि दर्शन कों आज....

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