Wednesday, September 12, 2012

पीर प्रसव की............

पीर प्रसव की
यूं ही तो नहीं होती है
इसमें भी तो
इक चाहत जन्म लेती है
और जन्म किसी का भी हो
पीर बिना ना हो सकता है
यही तो प्रसव का सुख होता है
गर करें विचार शुरू से
तो बीजारोपण से लेकर प्रसव वेदना तक
एक सफ़र ही तो तय होता है
जो नयी संभावनाओं को जन्म देता है
तो क्यों ना आज
सफ़र का दिग्दर्शन किया जाए
प्रसव वेदना तक के सफ़र को टंकित किया जाए

यूँ तो ये अटल सत्य है

बिना बीज के ना अंकुरण होता है
सो बीज तो रोपित हुआ ही होगा
फिर चाहे उसके लिए
रूप जन्मों ने बदले होंगे
शिलाओं पर लेख लिखे होंगे
मगर कब और कैसे
इसका ना हम निर्धारण कर पाते हैं
बस सफ़र में चलते चले जाते हैं
कब कैसे कहाँ से खाद पानी मिलता रहा
किसने उसे पोषित किया
ये ना बेशक हम जान पाए
मगर कहीं ना कहीं हम ही उसका माध्यम बने
आंवल नाल से जुड़ने के बाद
चिंता सारी मिट जाती है
भ्रूण को उसकी खुराक तो
हर कीमत पर मिल ही जाती है
यूँ सफ़र जारी रहता है

प्रथम द्वितीय और तृतीय महीने

सुना है बेहद संवेदनशील होते हैं
शायद यही तो आराधना का शैशवकाल होता है
जहाँ भ्रूण ना परिपक्व होता है
सारा दारोमदार माता पर ही होता है
उसे ही उसके प्रति फिक्रमंद रहना पड़ता है
और साधक की साधना को दुरुस्त रखने को
अनुभूति का संचार करना पड़ता है
अनुभूति क्या होती है ............
ये तो ह्रदय की धड़कन होती है
जो बालक की पहचान बनती है
जो बालक के जीवन को दिशा देती है
जब अनुभूति का आगमन होता है
उत्साह द्विगुणित होता है
मन प्रसन्न प्रफुल्लित होता है
क्योंकि अब तक भ्रूण भी
अपनी शैशवावस्था से बाल्यावस्था
की ओर पदार्पण करने लगता है

चतुर्थ , पंचम और षष्ठ महीनो में

बालक आकार लेता है
यही तो साधक के जीवन का
सबसे उत्तम सोपान होता है
अपनी साधना में रत वो
देवता का आह्वान करता है
रो कर , रूठकर , मनाकर
कभी इठलाकर तो कभी उलझाकर
कभी गाकर तो कभी नृत्यकर
मधुसुदन को मोहित करता है
और अपनी साधना के दूसरे
सोपान चढ़ता है
जहाँ ना कोई सहारा होता है
ना कश्ती का किनारा होता है
सिर्फ भावों की बेल ही अमरबेल बन
वटवृक्ष से लिपटती है
साधक जो भावों से परे
ज्ञान नैया में बैठ जाता है
वो ज़रा सी लहर से ही डूब जाता है
साधक जो कर्म की खेती करता है
उसमे भी कभी ना कभी
अहंकार का उदय हो जाता है
और बीच मझधार में ही
उसका गर्भपात हो जाता है
मगर साधक जो प्रभु को
समर्पित होता है
जीवन डोर उसके हाथ सौंप
निश्चिन्त होता है
वो ही अंत में भाव से पार होता है
जैसे भ्रूण का शैशवकाल ख़त्म होता है
वैसे ही वो बाल्यकाल में पदार्पण  करता है
तो माँ का दायित्व हो जाता है
खट्टा मीठा तीखा कड़वा
सोच समझ कर खाए
जिससे ना भ्रूण को कोई दुःख पहुंचे
जो ना उसके अस्तित्व को हानिकारक हो
वो ही क्रियाएं आजमाए
वैसे ही प्रभु भी अपने उस साधक का
ध्यान निरंतर करते हैं
जो सर्वस्व  समर्पित कर
भक्ति भाव से उनको भजता है
और यूँ उसका बाल्यकाल संपूर्ण होता है
फिर चाहे जन्म जन्मान्तरों के चक्कर लगते रहें
उसकी साधना में ना अवरोध उत्पन्न होता है
वहीँ से फिर शुरू हो जाती है
जहाँ से पिछले जन्मों में छुटी होती है
बस यही तो प्रभु की महती कृपा होती है

सप्तम , अष्टम और नवम महीने

फिर बहुत संवेदनशील होते हैं
जहाँ भ्रूण अपने बाल्यकाल से तरुणावस्था
को प्राप्त करता है
तभी तो उसमे समझ का संचार होता है
वो आदतें वो ही ग्रहण करता है
जैसा माँ  का व्यवहार होता है
दिमाग भी तभी आकार पाता है
यही समय तो होता है
जब माँ को विशेष ध्यान रखना होता है
कहीं गलती से भी कोई आचरण बिगड़ जाए
तो संस्कार ना वो मिट पायेंगे
जो जन्म के साथ ही बाहर आयेंगे
ऐसे ही प्रभु को भी ध्यान रखना होता है
जब साधक साधना की अंतिम अवस्था में होता है
जब साधक पूर्णता की ओर अग्रसित होता है
तब रिद्धि सिद्धियों का प्रकटीकरण होता है
जो लालच में फंसाती हैं
जन्मों के फेर में उलझाती हैं
मोह माया के बंधनों के दांव पेंच आजमाती हैं
जिसे साधक ना समझ पाता है
और वो उन्ही में उलझ जाता है
और उसे ही साधना की अंतिम परिणति समझ लेता है
जैसे माँ को कंसूले उठते हैं
तो लगता है जैसे अभी जन्म हुआ
वैसे ही भक्त का वो ऐसा ही समय होता है
ऐसे में किसी ज्ञानी संत की जरूरत होती है
जो इन बाधाओं से पार करता है
जैसे चिकित्सक बतलाता है
अभी समय नहीं आया है
बस आने वाला है
तब तक इंतज़ार करो
और पग संभल संभल कर रखो
ऐसे ही संत आखिरी पड़ाव में
मार्गदर्शन करते हैं
संत रूप में प्रभु ही भक्त की देखभाल करते हैं
ये बस रूप बदले होते हैं
साधना में परिपक्वता लाने के लिए
यूँ भी परीक्षा लेते हैं

जब नौ महीने का समय

व्यतीत हो जाता है
तब शिशु आगमन में
माँ का ह्रदय हिलोर खाता है
प्रतिक्षण एक ही इच्छा रहती है
कब जन्म होगा
कब उसे देखूँगी
कब उसे खिलाऊंगी
कब मेरी ममता सम्पूर्ण होगी
कब मेरे ममत्व को आधार मिलेगा
जो पयोरस  का वो पान करेगा
और जब वो वक्त आता है
तब पीर ना सहन हो पाती है
जान पर बन आती है
मगर शिशु दरस की लालसा में
माँ वो मृत्युतुल्य कष्ट भी सह जाती है
और शिशु को देखते ही
उसकी मुस्कान देख
उसका रुदन सुन
दुग्धपान कराते ही
उसकी सारी पीड़ा छू मंतर हो जाती है
वो प्रसव की वेदना भी भूल जाती है
कुछ ऐसी ही दशा भक्ति की होती है
जब साधना की अंतिम अवस्था होती है
प्रभु दरस की लालसा में
नित्य अश्रु बहाया करता है
उसका गुणगान किया करता है
चहुँ ओर उसके ही दर्शन किया करता है
कभी गाता है कभी नाचता है
प्रभु दरस की लालसा में यूँ बिलखता है
कि प्राण देने को आतुर हो जाता है
हर किसी के पाँव में वो पड़ जाता है
कोई पिया से मिलन करा दे
इसी आस में प्रतिक्षण गुजारने लगता है
और जब भक्ति की चरम सीमा आ जाती है
और पीर इतनी बढ़ जाती है
कि ह्रदय फटने को आतुर होता है
अपना पता भी ना उसे फिर चलता है
सोने खाने पीने का ना उसे होश होता है
क्या पहना है , क्या कर रहा है
इसका भी भान जब नहीं होता है
बस मुख में नाम और आँख से अश्रु बहते हैं
और शब्द ना मुख से निकलते हैं
दुनिया दीवाना कहने लगती है
पागल उपनाम पड़ने लगता है
वो ही तो प्रसव वेदना का अंतिम चरण होता है
फिर प्रभु भी ना रुक पाते हैं
दरस को दौड़े आते हैं
यूँ उसका साक्षात्कार होता है
और निराकार आकार पाता है
तब पीर सारी बह जाती है
अश्रुओं में ढल जाती है
मैं - तू का भेद मिट जाता है
खुद का खुद से मिलन हो जाता है
आत्मसाक्षात्कार हो जाता है
फिर चाहे ८४ लाख योनियों में ही
क्यों ना भटका हो वो
फिर चाहे साधना में ही क्यों ना अटका हो वो
फिर चाहे कितनी ही बार
योगभ्रष्ट क्यों ना बना हो वो
एक बार तो वो उस ड्योढ़ी को पार कर ही जाता है
जिसके उस तरफ उसे
दिव्यज्ञान मिल जाता है
पीड़ा का हरण हो जाता है
चहुँ ओर सिर्फ उजाला ही उजाला चमचमाता है
यूँ पीर प्रसव की सुखकर हो जाती है
जब दिव्य अनुभूति होती है
फिर ना कोई कारण बचता है
वो जन्मों के खेल से बाहर निकलता है
यही तो मनुष्य जीवन का प्रथम और अंतिम लक्ष्य होता है
जिसे कोई कोई ही जान पाता है
और इस पथ पर चल पाता है
क्योंकि यहाँ परीक्षाएं निरंतर होती हैं
और प्रसव वेदना को सहने में हर कोई ना समर्थ होता है
जो इस पीड़ा को सह जाता है वो फिर और ना कुछ चाहता है
हर चाह का अंत हो जाता है
आत्मसुख में वो डूब जाता है
जब आत्म परमात्म मिलन हो जाता है .......आनंद सागर लहराता है
बस रसानंद छा जाता है .......बस रसानंद छा जाता है

यूँ ही नहीं पीर प्रसव की सहने को कोई आतुर होता है ............




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