Tuesday, May 8, 2012

कृष्ण लीला ……भाग 47





ब्रह्मा के पुत्र कश्यप की
कद्रु विनता नाम की दो रानियाँ थीं
कद्रु के कालीनाग सर्प
और विनता के
गरुड और सूर्य के सारथि अरुण
नामक दो पुत्र हुये
दोनो सवति मे एक दिन ये बात हुई
सूर्य के रथ मे
किस रंग के है घोडे जुते
विनता ने श्वेतवर्ण और कद्रु ने
स्यामवर्ण बतलाये
झगडा होने पर प्रतिज्ञा कर डाली
झूठ बोलने वाली सच बोलने वाली की दासी होगी
जब सर्पों  को पता चला
अपना माथा पीट लिया
माता पहले हमसे तो पूछा होता
इतना सुन कद्रु बोली
कोई तिकडम अब तुम ऐसी लडाओ
जिससे मेरा कहना सच हो जाये
और विनता मेरी दासी बन जाये
तब सर्प घोडों के अंगों से जा लिपटे
जिसे देख विनता के पसीने छूटे
जब गरुड को पता चला
तब सर्पों की माता से ये कहा
तुमने छल बल से मेरी
माता को धोखा दिया
पर माता को दासी मत बनाओ
उसके बदले जो चाहे ले जाओ
इतना सुन सर्पों ने
अमृत कलश लाने की मांग करी
गरुड जी ने लाकर कलश दिया
ये देख देवताओं मे
खलबली मच गयी
अगर सर्पों ने अमृत पिया
कोई ना जीता रह पायेगा
ये सोच गरुड जी से विनय किया
जैसे धोखे से उन्होने
तुम्हारी माता को भुलावा दिया
वैसा ही मार्ग अब तुम भी अपनाना
पर अमृत कलश वापस ले आना
जब सर्प अमृत पीने से पहले
स्नान करने तालाब मे घुसे
गरुड जी कलश ले उड चले
जाकर कलश देवताओं को दिया
मगर दोनो मे शत्रुता का बीज पड गया
नारायण प्रभु से गरुड ने वरदान पाया
सर्पों के भय से खुद को मुक्त पाया
मगर दोनों  में वैर था पनपा 
इसी कारण
पूर्व काल मे सर्पों ने
नियम बनाया था
प्रत्येक अमावस्या को
हर परिवार से
एक सर्प की भेंट
गरुड को दी जाये
कद्रु और विनता मे
जन्मो से वैर पनपा था
इसी वैर के कारण
जो भी मिलता
उसी सर्प को गरुड जी खा जाते थे
तब व्याकुल हो सर्प
ब्रह्मा शरण मे आये
तब ब्रह्मा ने ये नियम बनाये
प्रत्येक अमावस्या सर्प परिवार
अपनी बारी पर सर्प भेंट करेगा
पर जब कालिय की बारी आई
घमंड और गर्व से
ना फ़ूला समाता था
बलि देना तो दूर
जो सर्प गरुड की भेंट
चढाये जाते थे
उन्हे भी खा जाता था
ये देख गरुड को क्रोध आ गया
कालिय को मारने के लिये
बडे वेग से प्रहार किया
कालिय ने अपने सौ फ़णों से
गरुड पर प्रहार किया
कालिय की ढिठाई देख
विष्णु वाहन गरुड  ने भी
कडे प्रहार किये
जिससे कालिय व्याकुल हुआ
और बडे वेग से
भागता यमुना के कुण्ड मे छुप गया
इसी स्थान पर एक दिन
क्षुधातुर गरुड ने
सौभरि ॠषि के मना करने पर भी
मस्त्यराज को खा लिया
ये देख सभी मछलियों को बडा कष्ट हुआ
दीन हीन व्याकुल हो
मुनि से प्रार्थना की
उनकी दशा देख
सौभरि ने गरुड को शाप दिया
यदि फिर तुम इस कुण्ड की
मछलियाँ खाओगे
तत्क्षण प्राणों से हाथ धो बैठोगे
ये बात कालिय को पता थी
इसी कारण आकर यहाँ शरण ली थी
इस तरह शुकदेव जी ने
ये रहस्य उदघाटित किया

क्रमश: ………

12 comments:

  1. आपका गहन चिंतन,मनन और पठन...इस रचना द्वारा ज्ञात होता है!...अति सुन्दर...आभार!

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  2. एक और शानदार अंक ...!

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  3. बहुत बेहतरीन रचना....
    मेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है।

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  4. प्रवाहमयी भाषा में व्यक्त कृष्णगाथा..

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  5. बहुत रोचक और ज्ञानप्रद...आभार

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  6. Kabhi ek kitab ke roop me ise prakashit zaroor karna!

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  7. Learning a lot through this series...

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  8. अच्छी प्रस्तुति.
    पौराणिक कथा की सुन्दर काव्यमय
    अभिव्यक्ति.

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  9. बहुत बेहतरीन व प्रभावपूर्ण रचना....
    मेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है।

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  10. कविता पढ़ने के बहाने ज्ञान मिल गया

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