Thursday, August 16, 2012

कृष्ण लीला रास पंचाध्यायी ………भाग 63


लो आ गयी शरद पूर्णिमा की रात्रि
जब चन्द्रमा  अपनी सोलह
कलाओं से परिपूर्ण था
 प्रभु ने योगमाया का आह्वान किया
योगमाये ! कामदेव का
मानमर्दन करना है
और गोपियों का भी
मनोरथ पूर्ण करना है
अब तुम्हें सबसे पहले
मेरा मन बनाना है
क्योंकि प्रभु तो निर्विकार
निर्लेप मनरहित होते हैं
उनमे ना प्रकृति प्रदत्त कोई भी तत्व होते हैं
जैसे बच्चे के साथ हम खेलने के लिए
अपना मन भी बालक जैसा बनाते हैं
वैसे ही आज प्रभु ने भी
अपने प्रेमियों संग खेल करने हेतु
मन बनाने की इच्छा रखी
क्योंकि बिना माया के तो
प्रभु कुछ ना कर पाते हैं
इसलिए योगमाया को समझाते हैं
योगमाये ! आज तुम्हें दिव्य रात्रि बनानी है
रात्रि यूँ तो बारह घंटे की होती है
मगर तुम्हें
बारह घंटे की ना बनाकर
छः माह की बनानी है
कामोद्यीपन के सारे साजो समान भी सजाने हैं
वासंतिक मौसम का आह्वान करो
शीतल सुगन्धित मधुर पवन बहती हो
यमुना का स्वच्छ शीतल जल कलकल निनाद करता हो
मधुर भ्रमर गुंजार करते हों
वृक्ष फलों के बोझ से झुक रहे हों
वन उपवन में बिन मौसम भी
सभी फूल खिल रहे हों
वृक्ष बेमौसम फल दे रहे हों
नयनाभिराम दृश्य बना हो
संगीत नृत्य का भी
सारा सामान जुटा हो
भांति भांति के वस्त्राभूषण
का ढेर लगा हो
हर कोना रसमयी ध्वनि से
गुंजारित हो रहा हो
आज सभी कार्य ऐसे  करने हैं 
कामदेव को कहने का ना मौका मिले
कि समय कम था या
कामोद्यीपन का कोई
सामान कम था
जैसा प्रभु ने समझाया था
वैसा ही वातावरण वहाँ पाया था
ब्रज क्षेत्र तो छोटा पड़ता इसलिए
योगमाया ने
दिव्य वृन्दावन बनाया था
क्योंकि ५६ करोड़ तो
यादवों की स्त्रियाँ ही थीं
इनके अलावा वेदों की ऋचाओं ने भी
शरीर धारण किया
ऋषि रूपा , गन्धर्व रूपा , देवताओं की पत्नियाँ
नागकन्या आदि सभी
इस रात्रि की बाट जोह रही थीं
जन्म जन्मान्तरों की चाह
पूरी करने को आतुर थीं 



 जब मोहक वातावरण प्रभु ने देखा
तब कदम्ब के नीचे खड़े हो
आँख बंद कर
बंसी को होठों पर धर
क्लीं बीज फूंका
क्लीं यानि कामना बीज
वंशी में प्रभु ने ऐसी तान बजाई
जिसे सुन गोपियाँ दौड़ी दौड़ी आयीं
जिसका नाम वंशी में पुकारते थे
सिर्फ उसी गोपी को धुन सुनाई देती थी
बाकी किसी को ना
वो धुन सुनती थी
जैसे ही जिसने अपना नाम सुना
वैसे ही गोपी ने अपनी दशा बिसरायी
ज्यों योगी किसी योग में समाधिस्थ हो
ऐसे हाल हो गया
जो जिस हाल में थी
उसी में दौड़ी आई
कोई गोपी दूध दूह रही थी
जैसे ही आवाज़ सुनी
वो दूध दूहना भूल दौड़ पड़ी
कोई गोपी पति को भोजन कराती थी
एक फुल्का हाथ में
और एक तवे पर था
जैसे ही आवाज़ सुनी
वो फुल्का हाथ में लिए
वैसे ही दौड़ पड़ी
कोई गोपी बच्चे को दूध पिलाती थी
वंशी की धुन सुनते ही
बच्चे को पटक
उसी अवस्था में दौड़ पड़ी
कोई गोपी शरीर में
अंगराग , चन्दन , उबटन
लगा रही थी
वंशी की धुन सुन
उलटे सीधे वस्त्र पहन
दौड़ पड़ी
लहंगे की जगह चादर ओढ़ ली
और चुनरी हाथ में ले दौड़ पड़ी
कोई गोपी सिंगार करती थी
 वंशी की धुन सुन
आंख का अंजन माथे पर
और बिंदी गालों पर लगा दौड़ पड़ी
कोई गोपी आभूषण पहनती थी
वंशी की धुन सुन घबराहट में
हाथ का पाँव में
और गले का हाथ में पहने दौड़ी जाती थी
जो जिस अवस्था में थी
वैसे ही दौड़ रही थी
घरवालों ने कितना रोका
मगर वो ना किसी की सुनती थीं
जैसे कोई वेगवती नदी
सागर से मिलने को
आतुर दौड़ी जाती है
यों सारी गोपियाँ
बिना किसी को देखे
बिना किसी से बोले
बिना इक दूजे को आवाज़ लगाये
आज  ऐसे दौड़ी जाती हैं
आज मंगलमयी प्रेमयात्रा को
विश्राम जो पाना था
कैसे किसी विघ्ने के रोके
वो रुक सकती थीं
क्योंकि उनके मन प्राण  और आत्मा का
आज विश्वभरण ने हरण किया था
कुछ गोपियों के स्वजनों ने
घर द्वार बंद कर रोक लिया
उन्हें ना कहीं से निकलने का मार्ग मिला
तब उन्होंने आँख मूँद
बड़ी तन्मयता से
प्रभु के सौंदर्य , माधुर्य और लीलाओं
 का ध्यान किया
अपने प्रियतम की असह्य
विरह वेदना से
उनका ह्रदय दग्ध हुआ
उसमे जल जो भी
अशुभ संस्कार  थे
भस्मीभूत हुए
और उनका तुरंत ध्यान लग गया
ध्यान में ही बड़े वेग से
प्रभु ने आलिंगन किया
उस समय उस सुख और शांति से
उनके सभी पुण्य संस्कारों का क्षरण हुआ
यद्यपि उस समय उनमे
थोड़ी बहुत कामवासना भी थी
मगर जब सत्य का
परमसत्य से मिलन हो जाता है
तब वो भी तो परमसत्य बन जाता है
प्रभु ने अपनी प्रीति और भक्ति दे मुक्त किया
और उन सबको अपना परमधाम दिया
तब परीक्षित के मन में प्रश्न उठा
गोपियाँ तो केवल प्रभु को
अपना परम प्रियतम मानती थीं
उनका ना उनमे कोई
ब्रह्मभाव था
फिर कैसे उनकी मुक्ति हुई
सुन क्रोधित हो शुकदेव जी बोले
राजन मैं तुम्हें बतला चुका हूँ
शिशुपाल जो प्रभु से
शत्रुता का भाव रखता था
पर उसे भी प्रभु ने मुक्त किया
पूतना वृत्तासुर आदि सभी
राक्षसों को अपना परमधाम दिया
फिर गोपियाँ तो नित्यसिद्धा थीं
जन्म जन्म की उनकी
प्रभु से लौ लगी थी
यदि किसी भी भाव से आये
तो कैसे ना उन्हें मुक्त करते
जब प्रभु अपने से दुश्मनी
रखने वालों को भी तार देते हैं
कर्म क्रोध लोभ मोह
चाहे जैसे भी किसी ने भजा
मगर मरते समय जिसने भी
प्रभु का सुमिरन किया
उसे प्रभु ने भव बँधन से मुक्त किया
उनके यहाँ ना अपने पराये
का कोई भेद है
क्योंकि सब संसार के
वो ही तो परम पिता हैं
फिर कैसे कोई पिता
अपने बच्चों में
भेद कर सकता है
जो जैसे भी आये
उसका ही कल्याण करता है
जिस रूप से वृत्ति
प्रभु चिंतन में लग जाती है
तब वो वृत्तियाँ
भगवन्मय हो जाती हैं
क्योंकि चिंतन सुमिरन
हर पल हर रूप में
प्रभु का ही होता है
तभी जीव बँधन मुक्त होता है
तब परीक्षित का संशय दूर हुआ
शुकदेव जी आगे कथा सुनाने लगे

क्रमश: ……………



16 comments:

  1. बहुत सुन्दर वर्णन ना जाने किस भावना के वशीभूत हो पूरा पढ़ती गई और आनंद आता गया पता नहीं तुम्हारे लेखन की शक्ति या प्रभु की भक्ति आकृष्ट कर रही है ...बहुत खूब

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  2. बहुत मनभावन प्रस्तुति...आभार

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  3. बहुत अच्छी प्रस्तुति!
    इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (18-08-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
    सूचनार्थ!

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  4. बहुत अच्छी प्रस्तुति!
    इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (18-08-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
    सूचनार्थ!

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  5. वाह !! क्या लिखा है...एक साँस में पढ़ती चली गई...जय श्रीकृष्ण भगवान !!

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  6. इस अमृत रस का पान हम भी कर रहे हैं।

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  7. बहुत ही बेहतरीन और प्रभावपूर्ण रचना....
    मेरे ब्लॉग

    जीवन विचार
    पर आपका हार्दिक स्वागत है।

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  8. वंदना जी, बहुत सुंदर कृष्‍ण लीला का वर्णन है। बधाई।

    ............
    हर अदा पर निसार हो जाएँ...

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  9. शिकायत न योगमाया से है,न योगेश्वर से। शिकायत है तो बस गोपियों से!

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  10. कृष्णलीला के बहुत ही सुन्दर भाव समेटे हैं..

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  11. मेरी टिपण्णी कहाँ छिप गयी है,वन्दना जी.

    ईद की बधाई और हार्दिक शुभकामनाएँ.

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  12. वन्दना जी,क्या शुकदेव जी को सचमुच में क्रोध हो गया था या आपने करवाया है.

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  13. @kumar radharaman jiगोपियों से क्यों शिकायत है?

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  14. @kumar radharaman jiगोपियों से क्यों शिकायत है?

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  15. @rakesh kumar jiसच मे ही हल्का सा क्रोध आया था मै कौन कुछ करवाने वाली । जैसा पढा और जाना है वो ही प्रस्तुत कर रही हूँ।

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