मगर ये वार्तालाप
यहीं ना बंद हुआ
भक्त ने झट दूसरा प्रश्न दाग दिया
प्रभु जब तुमने मान लिया
तुम ही सब कुछ करते हो
तो बताओ तो जरा
फिर भक्त की परीक्षा क्यूँ लेते हो
क्यों उसे दो के भ्रम में उलझाते हो
क्यूँ तुम में और उसमे कोई भेद है
ये बतलाते हो
सुन प्रभु ने जवाब दिया
जब भक्त मेरे हैं
मैं उनका हूँ
तो उनके प्रेम का परिक्षण करता हूँ
क्या ये भी मुझे उतना ही चाहता है
जितना मैंने इसे चाहा है
या ये अपनी किसी गरज से
मुझसे मिलने आया है
जब खोटा है या खरा
ये परख लेता हूँ
तब उस पर अपना
सर्वस्व न्योछावर करता हूँ
और भक्त के हाथों बिक लेता हूँ
अब वो जैसा चाहे मुझे नचाता है
चाहे तो भूखा रखे
चाहे तो काम करवाए
चाहे तो बर्तन मंजवाए
चाहे तो झाडू लगवाए
मैं उसके प्रेम पर रीझ जाता हूँ
और उसकी ख़ुशी में ही
अपनी ख़ुशी समझता हूँ
जैसे भक्त मेरी ख़ुशी में
अपनी ख़ुशी समझता है
वैसे ही मैं भी उसके साथ करता हूँ
यहाँ दोनों के भाव
एकाकार हो जाते हैं
दोनों ही अपना स्व भूल जाते हैं
और एक रूप हो जाते हैं
यही तो वो भाव होता है
जिसके लिए मैं ये
सारी लीला रचता हूँ
और तुम मुझ पर दोषारोपण करते हो
बताओ तो जरा कहाँ फिर
दोनों में कोई भेद रहा
और कब मैंने दो का भेद कहा
यही तो मैं समझाना चाहता हूँ
तू मेरी किरण है जो मुझसे बिछड़ी है
बस एक बार मुझे आवाज़ दे
मैं सौ कदम आगे आ जाता हूँ
और उसे अपने में मिला लेता हूँ
फिर कहाँ दोनों में भेद रहा
ये भेद मैंने नहीं डाला है
बस दृष्टि के बदलने से ही
सृष्टि बदली नज़र आती है
वरना तो तुझमे मुझमे कोई भेद नहीं
यही समझाना चाहता हूँ
पर जीव भूला भूला फिरता है
और आवागमन में फंसता है
अरे अरे फिर तुम उसी बात पर आते हो
प्रभु मुझे फिर घुमाते हो
अभी तो तुमने माना है
सब तुम ही करते हो
तो इस रूप में भी तो
तुम्हारा ही सारा खेल होता है
भेद विभेद सब दृष्टि भ्रम होता है
जबकि कर्ता कर्म और फल
सब तुम्हारा ही रूप होता है
देखो ये शब्दों की उलझन में ना उलझाओ
मुझे अपने शब्द जाल में ना फंसाओ
और जब तुम कहते हो
तुझमे मुझमे कोई भेद नहीं
फिर क्यों कठिन परीक्षा लेते हो
क्यों जीव को इतना भटकाते हो
जो जान पर बन आती है
तब जाकर तुम मिलने आते हो
और दूसरी तरफ कहते हो
बस मेरा सुमिरन किया कर
और कर्म सारे मेरे अर्पण किया कर
बताओ तो जरा
जीव क्या करे और क्या ना करे
कैसे खुद को अपने कर्तव्यों से विमुख करे
जब तुम ही उसे फंसाते हो
कर्त्तव्य निभाने का उपदेश देते हो
कर्म की शिक्षा देते हो
और जब वो कर्म में संलग्न होता है
तब उसे भोगों में लिप्त होने का दंड देते हो
ये कैसा तुम्हारा विधान है
जो जीव की समझ से पार है
अरे भोले भक्त मेरे
मैंने ना कोई दंड विधान रखा
सिर्फ इतना ही तो है कहा
कर्म करे जा फल की इच्छा मत रख
अर्थात निर्लिप्त भाव से कर्म कर
और अपने सारे कर्म मुझे अर्पण कर
मुझे अर्पण करने से वो ही कर्म तेरा
मेरी पूजा बन जायेगा
और फिर मुझसे मिलने में
ना कोई बाधा तू पायेगा
कर्म करते भी मुझसे मिला जा सकता है
जरूरी नहीं तू राम नाम की माला ही जपा करे
ये कर्म भूमि मैंने ही बनाई है
बस इतनी ही तो बात कहलाई है
यहाँ कर्म किये बिना ना
कोई एक क्षण रह सकता है
बस तू खुद को कर्म का कर्ता मत मान
और कर्म अपना मेरे अर्पण कर
फिर देख मुझसे मिलना सुगम हो जायेगा
तेरे पथ पर तू बिना पुकारे भी
मुझे खड़ा पायेगा
अरे वाह प्रभु .....क्या बात तुम कहते हो
जब जीव कर्म करेगा तो बताओ तो जरा
कैसे कर्म बँधन से खुद को मुक्त करेगा
क्या कर्म बिना किसी आशा के किया जा सकता है
क्या कर्म से बिना सम्बन्ध जोड़े कोई कर्म किया जा सकता है
जब कर्म से कोई नाता होगा
तभी तो कर्म सही ढंग से होगा
और उसे पूरा करने की जब इच्छा होगी
तभी तो कर्म में उसकी रति होगी
बताओ फिर कैसे कर्मफल से जीव
खुद को विमुख कर सकता है
बिना चाहत के कोई कैसे
कर्म कर सकता है
कहीं ना कहीं किसी ना किसी अंश में
कोई तो चाहत छुपी होगी
अच्छा बताओ जरा
अगर कोई तुम्हें चाहे
तो क्या तुम्हें पाने की चाहत नहीं रखेगा
और तुम्हें पाने के लिए
वो तुम्हारा सुमिरन भजन मनन नहीं करेगा
अब सारे कर्म वो कर रहा है
मगर बिना चाहत के तो
तुम्हें पाने का कर्म भी नहीं कर रहा है
फिर भला कैसे जीव
चाहत मुक्त हो सकता है
कैसे खुद को पूर्ण विमुख कर सकता है
जब तक किसी कार्य को करने का कारण नहीं होगा
कार्य कहो तो कैसे संपन्न होगा
प्रभु तुम्हारी बातें बहुत भरम फैलाती हैं
जो जीव के समझ नहीं आती हैं
देखो तुम्हें अपनी कार्यप्रणाली बदलनी होगी
थोड़ी जीव की भी सुननी पड़ेगी
ये नहीं सारा दोष जीव के सिर मढ़ दो
और खुद को पाक साफ़ दिखा दो
तुम भी दोषमुक्त नहीं हो सकते हो
जब तक जीव पर आरोप रखते हो
प्रभु प्यारे भक्त की बातों में
रस लेते हैं
और मधुर मधुर मुस्कान से
दृष्टिपात करते हैं
भक्त और भगवान की महिमा
अजब न्यारी है
जहाँ भक्त ने ही वकील और जज की कुर्सी संभाली है
और प्रभु कटघरे में खड़े
मधुर मधुर मुस्काते हैं
और अपने प्यारे भक्त की मीठी बातों पर
रीझे जाते हैंक्रमश :………
काफी फुर्सत में हैं भगवान ... बढ़िया वार्तालाप चल रहा है ....
ReplyDeleteपरीक्षाओं से ही प्रेम गहराता है।
ReplyDeleteवन्दना जी.अब आप ही बताईये कि
ReplyDeleteआप प्रभु की भक्त हैं कि नही.
आपने तो प्रभु को देखा सुना और अनुभव
ही नही किया बल्कि लगता है निरुत्तर भी
कर दिया.
बेचारे प्रभु!
परीक्षा न हो तो सधता नहीं कोई .... परीक्षा तो प्रभु की अधिक होती है
ReplyDeletehttp://bulletinofblog.blogspot.in/2012/10/blog-post_19.html
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति!
ReplyDeleteइस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (20-10-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ! नमस्ते जी!
Tumhare lekhan ke bareme kya kahun? Mere paas alfaaz nahee hote!
ReplyDeleteभक्त के सामने कटघरे भी हो जाते हैं भगवान् !
ReplyDeleteभक्तिमय प्रेम छलकता है शब्दों में !
यह अंक भी रोचक लगा।
ReplyDeleteहम तो बीच में ही खो गये... :(
ReplyDeleteरचना काफ़ी ग़ूढ और समझने वाली है !
सच ! आपने बहुत मेहनत की है... आपको इस कर्म का फल ज़रूर मिलेगा !
हम फिर से इसको पढ़ने दोबारा फ़ुर्सत में आएँगे !:)
अभी जल्दी में पढ़ना.. रचना के साथ नाइंसाफी होगी..( आशा है, इसके लिए आप हमें क्षमा करेंगे.. )
~सादर !!!
हम तो बीच में ही खो गये... :(
ReplyDeleteरचना काफ़ी ग़ूढ और समझने वाली है !
सच ! आपने बहुत मेहनत की है... आपको इस कर्म का फल ज़रूर मिलेगा !
हम फिर से इसको पढ़ने दोबारा फ़ुर्सत में आएँगे !:)
अभी जल्दी में पढ़ना.. रचना के साथ नाइंसाफी होगी..( आशा है, इसके लिए आप हमें क्षमा करेंगे.. )
~सादर !!!