प्राकृत देह का निर्माण
स्थूल , सूक्ष्म और कारण शरीरों से हुआ
जिनके कारण ही जीव
जन्म मृत्य के चक्कर में पड़ा
ये प्राकृत शरीर
चाहे मैथुन से , चाहे संकल्प से
चाहे ह्रदय , नाभि, कंठ, नेत्र ,
या सिर्फ स्पर्श से या चाहे
दृष्टि से मिलते हैं
मगर कर्म बँधन से मुक्त ना होते हैं
मगर अप्राकृत शरीर
विलक्षण होते हैं
जो महाप्रलय में भी
ना नष्ट होते हैं
फिर भगवद देह तो
साक्षात् भगवद्स्वरूप है
रक्त मांस , मेद, अस्थि से ना निर्मित है
फिर प्रभु का स्वरुप
कैसे रक्त मांस अस्थि मय होता
उनमे देह देही , गुण गुणी
रूप रुपी , नाम नामी
लीला लीलापुरुषोत्तम का
कोई भेद नहीं
प्रभु का अंग अंग पूर्ण कृष्ण है
प्रभु की प्रत्येक इन्द्री से
सभी कार्य हो सकते हैं
जैसे उनके कान देख सकते हैं
आँखें सुन सकती हैं
त्वचा स्वाद ले सकती है
रसना सूंघ सकती है
नाक स्पर्श कर सकती है
वे हाथों से देख सकते हैं
आँखें सुन सकती हैं
कृष्ण का सब कृष्ण रूप होने से पूर्ण है
इसी कारण उनकी नित्य माधुरी
नित्य नवीन सौन्दर्यमयी है
प्रभु का शरीर ना कर्म जन्य है
ना मैथुनी ना दैवी
वो तो सर्वथा विशुद्ध भगवत स्वरुप हैं
तभी अखंड ब्रह्मचारी कहलाते हैं
प्रभु की ये लीला पूर्ण दिव्य थी
तभी योगमाया को कह
अपना मन बनवाया
क्योंकि प्रभु के पास स्वयं का
ना कोई मन होता है
और गोपियों ने तो
अपना मन प्रभु में मिला दिया था
तब प्रभु ने विहार के लिए
नवीन मन की
दिव्य मन की सृष्टि की
यही योगमाया प्रभु के लिए
दिव्य स्थल , दिव्य सामग्री
दिव्य मन का निर्माण करती है
तभी प्रभु की बांसुरी
जड़ को चेतन , चेतन को जड़
चल को अचल, अचल को चल
विक्षिप्त को समाधिस्थ
और समाधिस्थ को विक्षिप्त बनाती है
तभी गोपियाँ बंसी की धुन सुनते ही
सब कार्य छोड़ प्रभु की ओर
चल पड़ती हैं
उन्हें ना ध्यान कुछ रहता है
कौन सा कम अधूरा हो
या पूरा करके जाएँगी
क्योंकि वो तो नित्य संकल्प हो चुकी थीं
सर्वस्व समर्पण कर चुकी थीं
बेशक शरीर से सारे कार्य करती थीं
मगर वंशी की धुन कानों में पड़ते ही
उनका ध्यान कर्म की पूर्णता पर ना रहता था
जैसे सन्यासी का मन
वैराग्य की प्रबल ज्वाला से परिपूर्ण रहता है
फिर वैराग्य की पूर्णता
और प्रेम की पूर्णता
एक ही तो बात हुई
गोपियाँ ब्रज और प्रभु के बीच
पूर्ण वैराग्य स्वरुप हैं
या मूर्तिमान प्रेम
इस विषय में कौन निर्णय ले सकता है
गोपियों और प्रभु के
अलौकिक रूप को
कैसे जान सकता है
फिर उनकी दिव्य लीला का
कोई कैसे वर्णन कर सकता है
फिर कैसे मैं अज्ञानी वर्णन कर सकती हूँ
बस प्रभु चरणों में ही
सारा लेखन समर्पित करती हूँ
यूँ तो जितना गुणगान करो
थोडा ही रहता है
अभी ना जाने कितने और
दिव्य भाव यहाँ बतलाये हैं
जो मानुष के समझ ना आये हैं
प्रभु प्रेरणा से लिया संकल्प पूर्ण हुआ
ये प्रभु की दिव्य लीलाओं का
प्रभु के लिए गुणगान हुआ
अगली प्रेरणा तक
अब लेखनी को विराम देती हूँ
जब जैसी प्रभु की मर्ज़ी होगी
जब गोपी विरह के भावों का समावेश होगा
तभी उद्धव गोपी संवाद रूप में
नव सृजन होगा
जब प्रभु इस लायक समझेंगे
तब उद्धव गोपी संवाद का आगाज़ करेंगे
तब तक उस पूर्णकाम को
कोटि कोटि नमन करती हूँ
जो मुझे नराधम को अपनी शक्ति से नवाज़ा
और अपनी लीलाओं का गुणगान करने का मौका दिया
कैसे उऋण हो सकती हूँ
प्रभु कृपा की यही तो विलक्षण महिमा है
स्वयं सब कार्य संपन्न करते हैं
और उसका श्रेय भक्तों को दे देते हैं
मैं नतमस्तक हुई जाती हूँ
पर पार ना उनका पाती हूँ
बस उनके दर्शन की अभिलाषी हूँ
प्रेम सुधा की प्यासी हूँ
!!!!!!!!अथ श्री कृष्ण कथा !!!!!!
कौन रूप मैं भज लूँ भगवन..
ReplyDeleteसाधू-साधू
ReplyDeleteआपकी लिखनी से श्रीकृष्ण कथा पढ़ पाई...बहुत सारी नई जानकारियाँ भी मिलीं...समापन के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें|
ReplyDeleteश्रीकृष्ण भगवान की जय !!
बहुत सुंदर वंदन है प्रभु का ...वंदना जी ...
ReplyDeleteबहुत सुंदर ....
आज बड़ा गहन आध्यात्मिक चर्चा है।
ReplyDeleteअभी "अथ श्री कृष्ण कथा " क्यूँ ?
ReplyDeleteकृष्ण कथा अंतहीन है चिरंतन है ! आज और आने वाले कल भी वो वैसे ही घटित होती रहेगी जैसे आपने देखा और हम सब को दिखाया है ! धन्यवाद और हार्दिक आभार !
कृपया प्रेमाभक्ति पर ऐसे ही भावयुक्त आलेख लिखती रहें !अनंत शुभ कामनाएं और आशीर्वाद
अनुपम पूर्णाहुति.
ReplyDeleteकृष्ण लीला बहुत ही रसपूर्ण,सारगर्भित
भाव और भक्ति का संचार करती हुई
बहुत ही आनन्दित करने वाली रही.
बहुत बहुत हार्दिक आभार,वन्दना जी.