Tuesday, October 30, 2012

खंडित काल की खंडित कृति हूँ मैं .....

 कैसी  हो गयी हूँ मैं ..........खुद से भी अनजान सी  ........क्या चाहती हूँ नहीं जानती ..........ढूंढ रही हूँ खुद में खुद को ...........कोई पहचान चिन्ह ही नहीं मिल रहा ........ बड़ी बेतरतीबी बनी हुयी है ..........कभी किसी धुन पर थिरक उठना तो अगले ही पल किसी धुन पर रो पड़ना या गुमसुम हो जाना ............कभी विचलित तो कभी उद्वेलित तो कभी उद्गिन ...........अजब उहापोह की धमाचौकड़ी मची रहती है और उसमे खुद को ढूंढना जैसे अँधेरी  कोठरी में सूईं को ढूंढना .............भागने की इच्छा होना और कोई दरवाज़ा न दिखना जो गली की ओर  खुलता हो .......... दिख भी जाये तो कोई राह न दिखती जिसकी कोई मंजिल हो ..........ऐसे में ना बाहर  की रही ना  अन्दर की ...........अजब कशमकश का  शोर ................कान  बंद करने पर भी सुनाई देता है ............नहीं भाग पाती आंतरिक कोलाहल से ............और कभी सब यूँ शांत जैसे सृष्टि का अस्तित्व ही न हो ...........सिर्फ एक नाद हो ............परम नाद , ब्रह्म नाद ............कौन सी स्थिति का द्योतक है ? कैसी ये मनःस्थिति है ? कौन सी विडंबना है जो सर उठाना चाहकर भी नहीं उठा पा रही .........खुद को पूरा नहीं पा रही और असमंजस की स्थिति में गोते लगाता मुझमे कोई मुझे ढूंढ रहा है ............क्या मिलूंगी मैं कभी उससे ? खोज की अपूर्णता का तिलिस्म भेदने के लिए किस कालचक्र से गुजरना होगा जो प्रश्न के आगे लगे प्रश्नचिन्ह से निजात मिल सके .........खंडित काल की खंडित कृति हूँ मैं ..... मिलेगा कोई शिल्पकार क्या मुझे मेरा रंग रूप देने के लिए .........इंतज़ार की वेदी पर चिता सुलग रही है ..........आह्वान करती हूँ तुम्हारा ..............पूर्णाहूति के लिए ...........देव मेरे ! शिलाओं के उद्धार को अवतरित होना होगा !!!!!!!!

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