Tuesday, October 30, 2012

" नदी हूँ फिर भी प्यासी "

ए .....ले चलो 
मुझे मधुशाला  
देखो
कितनी प्यासी है मेरी रूह
युग युगांतर से
पपडाए चेहरे की दरारें
अपनी कहानी आप कर रही हैं
कहीं तुमने अपनी आँखों पर
भौतिकता का चश्मा
तो नहीं लगा लिया
जो आज तक तुम्हें
मेरी रूह की सिसकती
लाश का करुण  क्रंदन
न सुनाई दिया 
और मैं
युगों युगों से
जन्म जन्म से
अपनी रेत के
तपते रेगिस्तान में 
मीन सी तड़प रही हूँ
प्यास पानी की होती
तो शायद
रेगिस्तान में भी
कोई चश्मा ढूंढ ही लेती
मगर तुम जानते हो
मेरी प्यास
उसका रूप उसका रंग
निराकार होते हुए भी
साकार हो जाती है
और सिर्फ यही इल्तिजा करती है
ए .........एक बार सिर्फ एक बार
प्रीत की मुरली बजाते
मेरी हसरतों को परवान चढाते 
इस राधा की प्यास बुझा जाओ
हाँ ..........प्रियतम
एक बार तो दरस दिखा जाओ
बस .............और कुछ नहीं
कुछ नहीं चाहिए उसके बाद 
तुम जानते हो अपनी इस नदी की प्यास को
फिर चाहे कायनात का आखिरी लम्हा ही क्यों न हो
बस तुम सामने हो ..........और सांस थम जाए 
इससे ज्यादा जीने की चाह नहीं ...........
ए ...........एक बार जवाब दो ना
क्या होगी मेरी ये हसरत पूरी ........... रेगिस्तान की इस रेतीली नदी की

No comments:

Post a Comment