Thursday, October 4, 2012

एकोअहम

एकोअहम
अन्यो नास्ति का भाव
कैसे क्रियान्वित हो
कैसे दृष्टि पलटे
जो सृष्टि का बोध विस्मित हो
नज़रों का धोखा
कैसे मान सकता है आम इंसान
जो सामने दिख रहा है
घटित हो रहा है
क्रियान्वित है
कैसे उसे ना स्वीकारे
और जो नहीं है
उसे स्वीकार ले
आखिर कैसे ?
एक ऐसा प्रश्न है
जिसके चक्रव्यूह में
उलझा सारा संसार है
जो कहलाता असार है
मगर प्रश्न अपनी जगह
अब भी उपस्थित है
आखिर कैसे
सारा दृष्टि विलास महसूस हो
आखिर कैसे कोई खुद से अलग हो
बेशक पथ कोई हो
चाहे कर्म हो या योग या भक्ति
मगर आम इंसान में कहाँ है वो शक्ति
जो ढूँढ निकाले स्व का महत्त्व
बेशक खोजकर्ता खोज ही लेते हैं
अणु भी परमाणु भी
मगर अस्तित्व की खोज में
खुद से खुद को अलग करना
और फिर खुद में ही सब समाहित करना
आसान प्रक्रिया तो नहीं है
एकोअहम के भाव का परिलक्षित होना
और हो जाये तो फिर
उसका हर पल बने रहना
खुद को संसार से निर्लेप कर लेना
कहना जितना आसान दिखता है
क्रियान्वित करना उतना ही कठिन दिखता है
क्योंकि प्रयोगों की दिशाओं में
खोजें तो बहुत की जाती हैं
मगर प्रमाणिकता के साथ
क्रियान्वित कराने के लिए
मजबूत ठोस धरातल हर किसी को नहीं मिलता
तो क्या ऐसा ही है हम सबके साथ
गर निकले हों खोज पर
एकोअहम के भाव को पा लिया हो
और उसके बाद
उस ठोस धरातल की जरूरत आ पड़ी हो
तो कैसे एकोअहम का भाव पुष्ट हो सकता है
क्योंकि
ज्ञानमार्ग में धरातल बेहद चिकना होता है
ज़रा सी फिसलन ही पर्याप्त होती है
फिर उसी गड्ढे में धकेलने के लिए
ऐसे में
एकोअहम के भाव को कोई कब तक संजो सकता है
सुना है
प्रभु को ज्ञानी तो बहुत पसंद हैं
मगर अहंकारी नहीं
और एकोअहम के भाव में
कहीं ना कहीं अहम् का समावेश तो हो ही जाता है
क्या इसीलिए ज्ञानमार्गी फिसल जाता है
ना जाने कैसी ये सूक्ष्म जगत की फिलोसफी है
जिसमे मन उलझ उलझ जाता है
मगर पार ना कोई पाता है

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