Tuesday, October 2, 2012

कृष्ण लीला रास पंचाध्यायी ……भाग 70

अब प्रभु ने जितनी गोपियाँ
उतने रूप धरे थे
दो- दो गोपियों के बीच कन्हैया
गलबहियां डाले नाचते थे
कभी एक गोपी के चारों तरफ
कृष्ण नृत्य करते थे
रसमयी दिव्य लीला का
प्रभु ने प्रारंभ किया
सहस्त्रों गोपियाँ सहस्त्रों कृष्ण
चारों तरफ नृत्य करते थे
जिसे देखने देवता भी
पत्नियों सहित
आकाश में उतरे थे
स्वर्ग की दुन्दुभियाँ स्वयं बज उठीं
दिव्य पुष्प वर्षा होने लगी
गन्धर्व गण प्रभु का यश गान करने लगे
गोपियों के कंगन
पैरों की पायल और करधनी के घुँघरू
एक साथ बजने लगे
ताल से ताल मिलाने लगे
सुर लय ताल ना बिगडती थी
गोपियाँ चाहे रूकती थीं
चाहे थकती थीं , चाहे गिरती थीं
पर लय ताल पर ना असर होता था
अजब चमत्कारिक रसमयी
अद्भुत वातावरण बना था
कृष्ण गोपियों  संग कभी
बड़े वेग से घूमते थे
कभी गोपियाँ कलापूर्ण ढंग से मुस्काती थीं
भौहें मटकाती थीं
नाचते- नाचते पतली कमर
ऐसे लचक -लचक जाती थी
मानो टूट गयी हो
नाचते -नाचते पसीने की बूँदें
चेहरे पर छलछला रही थीं
उन पर काले केश यूँ लगते मानो
काले सर्प ओस की बूँद चाटने आये हों
तन -मन वस्त्रों की सुधि
गोपियाँ भूल गयीं
चोटियाँ ढीली पड़ गयीं
नीवों की गाँठें खुल गयीं
सिर्फ और सिर्फ
आनंद विलास छा गया
कोई गोपी थक जाती तो कृष्ण को पकड़ लेती
तो किसी गोपी का चन्दन
कृष्ण के अंग से लग जाता
और सारा वातावरण महका जाता
कोई गोपी कहती
ज़रा मेरे कलेजे पर
हाथ रख देखो सांवरे
कैसा धड़कता है
आठों पहर तुम इसमें रहते हो
डरती हूँ कहीं
कलेजा धड़कने से तुम्हें दुःख ना पहुंचे
ये उनके प्रेम की पराकाष्ठा थी
बस में होता तो धडकनों को भी रोक देतीं
पर अपने प्रियतम को
ना ज़रा सा भी क्लेश होने देतीं
जब प्रेम की ऐसी उच्चावस्था हो
वहाँ कैसे ना प्रभु की
अनंत कृपा हो
कैसे ना प्रभु उनके वश में हों
यूँ मोहन ने ब्रजबालाओं संग
छह राग और छत्तीस रागनियों संग
रास विलास किया
किसी को ना तन- मन की सुधि रही
नाचते- नाचते गोपियों का आँचल उड़ जाता था
कभी मोहन का मुकुट गिर जाता था
कभी मोतियों  की माला
टूट कर बिखर जाती थी
पर किसी को  किसी की
सुधि कहाँ रह  जाती थी
सब को यूँ लगता
मोहन मेरे साथ ही रास करते हैं
कोई गोपी मोहन के सुर में
ऐसे राग अलापती थी
कि मोहन वंशी बजाना भूल जाते थे
और उसके राग में खो जाते थे
जैसे निर्विकार शिशु दर्पण में
अपनी परछाईं से खेला करता है
वैसे ही राधारमण कभी उन्हें
ह्रदय से लगाते थे
कभी प्रेमभरी चितवन से
घायल करते थे
कभी उन्मुक्त हँसी हँसते थे
कभी अंग स्पर्श करते थे
प्रभु के संस्पर्श से
गोपियाँ प्रेमानंद में भाव विह्वल हुईं
केश खुल गए
हार टूट गए
गहने वस्त्र अस्त व्यस्त हो गए
ये देख देवता भी चकित हो गए
यूँ तो प्रभु आत्माराम हैं
उनमे ना किसी क्रिया का लेशमात्र है
अपने अतिरिक्त किसी और की आवश्यकता नहीं
फिर भी उन्होंने
जितनी गोपियाँ उतने रूप धरे थे
राग रंग के मद में गोपियाँ
गहने और वस्त्र एक दूजे पर
वारना करती हैं
ऐसे अद्भुत दृश्य को देख
यमुना का जल ठहर गया
पशु पक्षी मोहित हो
चित्रलिखे से खड़े रह गए
हवा बहना भूल गयी
जब राधा संग मोहन नृत्य करते हैं
जिसे देख- देख गोपांगनाओं  के ह्रदय
हर्षित होते हैं
तभी एक गोपी नन्द
और एक वृषभानु बनी
और कान्हा का राधा संग
गठजोड़ कर ब्याह करा
समधियों का शिष्टाचार कराया
और राधा के हाथ में
कंगना बांध मोहन से खुलवाती हैं
और जब मोहन खोल ना पाते हैं
तो मीठी ठिठोलियाँ करती हैं
फिर सब गोपियाँ दोनो का पूजन करती हैं
इस दिव्य महारास के दर्शन कर
देवता मोहित होते हैं
और गोपियों की ब्रज रज की
वहाँ के जड़ -चेतन के
भाग्य की सराहना करते हैं
क्यों ना हमें ब्रज में जन्म मिला
ये सोच कर अकुलाते हैं
जब गोपियाँ प्रभु संग विलास कर थक गयीं
तब प्रभु ने यमुना में
गोपियों संग प्रवेश किया
जैसे गजराज हथनियों संग
जल क्रीडा करता है
एक दूजे पर जल की बौछार करते हैं
देवता पुष्प वर्षा करते स्तुति करते  हैं
अद्भुत दृश्य को निहारा करते हैं
जब सबके अन्तस्थ शीतल हुए
तब प्रभु जल से बाहर निकले
और यमुना तट पर आये
योगमाया ने सबको वस्त्र
आभूषण इत्र गजरे दिए
सबने पुराने वस्त्र वहीँ छोड़ दिए
जिन्हें देवताओं ने प्रसाद रूप
टुकड़े कर आपस में बाँट लिया
वास्तव में ये तो प्रभु के
चिन्मय स्वरुप की चिन्मयी लीला थी
कामभावना हो या क्रिया या चेष्टा
सब उनके ही आधीन थी
जिसमे कोई दूसरा स्वरुप ना था
सिर्फ स्वरुप ही निज स्वरुप में अवस्थित था
मगर परीक्षित के मन में प्रश्न उठा
जब प्रभु ने धर्म की रक्षा को अवतार लिया
तो क्यों परस्त्रियों का स्पर्श किया
जब प्रभु पूर्णकाम थे
तो किस अभिप्राय से ऐसा कर्म किया
शुकदेव ने जिसका इस प्रकार उत्तर दिया
समरथ को नहीं दोष गोसाईं
ज्यों पावक चाहे अच्छा हो या बुरा
सब ग्रहण कर लेती है
पर उस पर ना दोष लगता है
जैसे भोलेनाथ  ने
हलाहल का पान किया
मगर उनका उससे कुछ ना बिगड़ा क्योंकि
सामर्थ्यवान का कर्म
निज उद्देश्य से नहीं होता
जगत के कल्याण के लिए
उनका सब कर्म है होता
अहंकार रहित ऐसे पुरुष
ना किसी कर्म बँधन में फंसते हैं
उनके तो हर कर्म जगत हित में होते हैं
फिर चाहे कर्म शुद्ध हों या अशुद्ध
मगर ऐसा ही कर्म यदि
असामर्थ्य विहीन करे
तो अपनी दुर्दशा को स्वयं पहुंचे
जो आचरण अनुकरणीय हो
वो ही जीवन में उतारा जाता है
मगर अन्य मनुष्यों द्वारा
हर कार्य किसी ना किसी
उद्देश्य के निहित किया जाता है
जो स्वार्थ और अनर्थ से जुड़ा होता है
मगर देवता आदि इनसे
ऊपर उठ जाते हैं
तभी ऐसे कर्म कर पाते हैं
तो सोचो जब ये ऐसा कर पाते हैं
तो इनको बनाने वाला
वो जग नियंता
कैसे उसे मानवीय गुणों
शुभ अशुभ
से जोड़ा जा सकता है
कैसे उनमे कर्म बँधन की
कल्पना की जा सकती है
जिनकी चरण रज का
भक्त सेवन करते हैं
जिनके प्रभाव से योगीजन
कर्म बंधन काट डालते हैं
वे प्रभु भक्तों की इच्छा पर ही
अपना चिन्मय स्वरुप प्रकट करते हैं
जब वो ही प्रभु
आत्मरूप से
चर -अचर समस्त विश्व में व्याप्त हैं
फिर वो गोपियों , उनके पतियों
गाय, बछड़ों , बच्चों से
कहो कैसे जुदा हैं
ये तो जीवों पर परम कृपा
बरसाने को प्रभु
ऐसी लीला करते हैं
जिन्हें सुन जीव भगवद परायण हो जायें
उसका चित प्रभु में ही विलय हो जाये
इसलिए प्रभु की इस लीला को
ना दोष दृष्टि से देखो
ये तो जीव और ब्रह्म का
आत्मसाक्षात्कार है
जो जन्म जन्मान्तरों से बिछड़ा है
और महारास में जाकर
अपनी ज्योति में जा मिला है
यही तो जीवन और जीव की परमगति है '
जिसे पाने को जीव
लख चौरासी में भटकता है
इस प्रकार प्रभु ने महारास का आनंद दे
गोपियों की विदा किया
मगर उनके चित को
अपने श्री चरणों में रख लिया
अब गोपियाँ रहती तो घर में थीं
सारे गृह कार्य भी करती थीं
मगर उनकी दृष्टि
उनका मन
उनकी हर क्रिया
सिर्फ कृष्ण के लिए ही होती थी
सबमे कृष्ण का ही दर्शन करती थीं
भेदबुद्धि मिट चुकी थी
एक पर ही अब टिक चुकी थी
बस यही तो महारास का महाभाव है
जहाँ दो का भाव मिट जाता है
और जीव पूर्णता पा जाता है
परीक्षित ये हाल उनके घर में
किसी ने ना जाना
ये ही तो प्रभु की दिव्य लीला होती है
जो अन्दर ही घटित होती है
बाहर से तो हर क्रिया यथावत होती है
मगर अंतर में सब भेद मिट जाता है
जीव ब्रह्म का मिलन हो
अंतस में महारास हो जाता है
इसे पाने को ही हर जीव भटका करता है
और यही उसके जीवन का
प्रथम और अंतिम लक्ष्य होता है
गोपियाँ कोई देह नहीं
बल्कि एक भाव हैं
जिसमे जीव जब "मैं" को भुला देता है
तभी निज स्वरुप को पा लेता है
यह रास वस्तुतः परम उज्जवल रस का दिव्य प्रकाश है
जिन सुधीजनों में गोपीभाव पुष्ट होता है
उन्हें ही इस दिव्य महारास का अनुभव होता है
आत्मा का आत्म में विलास ही
महारास कहलाता है
जब साधक का ध्यान टिक जाता है
ना केवल जड़ शरीर बल्कि
सूक्ष्म शरीर को प्राप्त होने वाले
स्वर्ग , कैवल्य या मोक्ष का भी त्याग होजाता है
और दृष्टि में केवल
चिदानंद स्वरुप कृष्ण बस जाता है
उनके ह्रदय में ही
कृष्ण को तृप्त करने वाला
प्रेमामृत बरसता है
उनकी इस अलौकिक स्थिति में
स्थूल शरीर और उसकी क्रियाओं का
लेश भी ना बचता  है
ऐसी कल्पना तो देहात्मबुद्धि से
जकड़े जीवों को ही होती है
जिन्होंने गोपियों को जाना
या गोपीभाव  को पहचाना
उन्होंने फिर सिर्फ वैसी ही अभिलाषा की
फिर वो चाहे ब्रह्मा हो या शंकर
उद्धव हो या अर्जुन
सब की रति प्रभु चरणों में हुई

क्रमश:…………..........



7 comments:

  1. अदभुत चित्रण और दर्शन प्रस्तुत किया है आपने महारास का.अनुपम भावभक्तिमय प्रस्तुति.

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  2. सुन्दर भाव, रास की सही व्याख्या की है। हो सके तो मेरे ब्लौग पर भी आना और मेरा मार्गदरशन करना http://www.kuldeepkikavita.blogspot.com

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  3. सुन्दर प्रस्तुति!
    कृष्णमय हो गये हम तो!

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  4. रास रचायो, कृष्ण कन्हैया।

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  5. Bahut zyada takleef me hun....na padh pa rahee hun,na likh! Maafee chahtee hun.

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  6. बड़ा ही रोचक प्रसंग रहा।

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  7. वन्दना जी, 'महारास' की इस जीवंत विवेचना से रोमांचित हैं हम दोनों ! पूर्ण-काम योगेश्वर की चिन्मयी लीला में उनके चिन्मय स्वरूप का आभास करा दिया आपने !माने न माने हम दोनों ही ह्रदय से आपके आभारी हैं ! धन्यवाद सहित हमारे हार्दिक आशीर्वाद एवं शुभ कामनाएं स्वीकारें -प्यारे प्रभु की अनंत कृपा हो आप पर , आप सतत यूँ ही लिखती रहें ! शुभचिंतक श्रीमती कृष्णा तथा 'भोला'

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