सुना है
प्रेम पहला द्वार है
जीवन का
सृष्टि का
रचयिता का
रचना का
सृजन का
मोक्ष का
मगर उसका क्या
जो इनमे से
कुछ ना चाहता हो
ना जीवन
ना सृजन
ना मोक्ष
और फिर भी
पहुँच गया हो
दूसरे द्वार पर
या कहो
अंतिम छोर पर
आखिरी द्वार पर
मगर ये ना पता हो
अब इसके बाद
क्या बचा
कहाँ जाना है
क्या करना है
कौन है उस पार
जिसकी सदायें
आवाज़ देती हैं
जिसे ढूँढने
हर निगाह चल देती है
जिसे चाहने की
हर दिल को शिद्दत होती है
जिसे पाना
हर रूह की चाहत होती है
ये अंतिम द्वार के उस पार
कौन सा शून्य है
कौन सा अक्स है
कौन सा शख्स है
कौन सा तिलिस्म है
कौन सी उपमा है
कौन सी अदृश्य तरंग है
जो चेतनाशून्य कर देती है
जो ना दिखती है
ना मिलती है
फिर भी अपनी
अनुभूति दे जाती है
सब खुद में समाहित करती है
क्या वो प्रेम का लोप है
क्या अंतिम द्वार पर
या फिर प्रेम
सिर्फ पहले द्वार पर ही रुक जाता है
अंतिम द्वार पर तो
प्रेम का भी प्रेम में ही विलुप्तिकरण हो जाता है
और सिर्फ
अदृश्य तरंगों में ही प्रवाहित होता है
और वहाँ
प्रीत ,प्रेम और प्रेमी तत्वतः एक हो जाते हैं ..........निराकार में परिभाषित हो जाते हैं
कौन है उस पार ...........एक आवाज़ तो दो
बताओ तो सही ...........अपने होने का बोध तो कराओ
यूँ ही नहीं पहेलियाँ बुझाओ .........ओ अंतिम छोर के वासी !!!
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