अरे मैं कौन
सब उसी का है
सबमे उसी का वास है
वो ही प्रस्फुटित होता है शब्द बनकर
सब उसी का है
सबमे उसी का वास है
वो ही प्रस्फुटित होता है शब्द बनकर
अंतर्नाद जब बजता है
सुगम संगीत का प्रवाह
मन तरंगित करता है
इसमें भी तो
वो ही निवास करता है
हर राग में
हर तरंग में
हर ध्वनि में
वो ही तो प्रस्फुटित होता है सरगम बनकर
प्रणव कहूं या मैं कहूं
उच्चारित तो वो ही होता है
ना मैं का लोप होता है
ना मैं का अलोप होता है
हर निर्विकार में
हर साकार में
सिर्फ उसी का आकार होता है
फिर कैसे ना कहूं
ब्रह्मनाद के आनंद में
वो ही तो आनंदित होता है आनंद बनकर
कहो अब
किसका दर्शन होता है
कौन सा दृश्य होता है
कौन द्रष्टा होता है
सब दृष्टि का विलास होता है
वास्तव में तो
ब्रह्म में ही ब्रह्म का वास होता है ब्रह्म बनकर .....ज्योतिर्पुंज बनकर
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