जग नियंता
नियंत्रित किये है
सारी सृष्टि
मगर "मैं" अनियंत्रित है
अस्फुट है
बेचैन है
खानाबदोश ज़िन्दगी आखिर
कब तक जी सकता है
हाँ ........."मैं" वो ही
जिसका अंकुर
सृष्टि के गर्भ में ही उपजा था
और बह रहा है
तब से निरंतर
अपने साथ काम ,क्रोध और लोभ
की आंधियां लेकर
और देखता है जहाँ भी उपजाऊँ भूमि
बीज रोपित कर देता है
जो वटवृक्ष बन पीढियां तबाह कर देता है
युगों को अभिशापित कर देता है
और आने वाली पीढियां
उसे ढ़ोने को मजबूर हो जाती हैं
क्योंकि "मैं" रुपी
चाहे रावण हो या कंस या दुर्योधन
हमेशा युगों पर प्रश्नचिन्ह छोड़ गया
जिसकी सलीब आज भी
सदियों से ढ़ोती पीढियां
उठाने को मजबूर हैं
क्योंकि नहीं मिल रहा उन्हें
अपने प्रश्नों का सही उत्तर
नहीं हुई ऐसी खोज जो कारण
की जड़ तक जा सके
बस लकीर के फकीर बने
सवालों को गूंगा किये
हम एक अंधी दौड़ में चल रहे हैं
और कोई यदि सवाल करे
तो उसे ही पागल घोषित कर रहे हैं
ऐसे में "मैं" तो पोषित होना ही है
क्योंकि उसके पोषक तत्त्व तो यही हैं
क्या "मैं " को ज़मींदोज़ करने के लिए
हर बार प्रलय जरूरी है ?
ये "मैं" की परिपाटी बदलने के लिए
क्या उसकी टहनी के साथ
दूसरी शाखा नहीं जोड़ी जा सकती
जो "हम" के फूलों से पल्लवित हो
और सृष्टि कर्ता का सृजन सफल हो
या ये उसकी सरंचना का वो छेद है
जिसे वो स्वयं नहीं भरना चाहता
क्योंकि
मदारी के खेल में बन्दर को तो सिर्फ उसके इशारों पर नाचना होता है
जो ये नहीं सोच पाता
क्या असर पड़ेगा इसका द्रष्टा पर
फिर सुना है
सृजनकर्ता को नहीं पसंद
"मैं" का अंकुर
तो प्रश्न उठता है फिर पैदा ही क्यों किया वो बीज ??????????
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